विद्या बालन एक बड़ी पत्रकार माया मेनन के किरदार में हैं। वहीं शेफाली शाह माया की मेड रुखसाना के रोल में हैं। रुखसाना एक मजबूत, सच्ची और सेल्फ रिस्पेक्टिंग महिला है जिसकी जिंदगी उसका छोटा सा परिवार है तो वहीं माया मेनन पति से अलग हो चुकी है और एक बेटा आयुष है। दोनों किरदारों की जिंदगी सही पटरी पर दौड़ रही थी लेकिन कहानी में मोड़ तब आता है जब रुखसाना की बेटी आलिया का एक्सीडेंट हो जाता है। इसी हिट एंड रन केस पर ये कहानी 2 घंटे 10 मिनट तक चलती है। विद्या बालन की ‘जलसा’ क्राइम बेस्ड स्टोरी जरूर है लेकिन ये न्याय और अन्याय पर नहीं बल्कि नैतिक और अनैतिकता के द्वंद पर आधारित है। यही बात इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष भी है। यही बिंदु इसे अब तक की दूसरी फिल्मों से अलग बनाता है।
कैसे दूसरे क्राइम बेस्ट मूवीज से अलग है
‘जलसा’ की दूसरी अच्छी बात ये है कि अब तक दर्शकों ने कई तरह के क्राइम बेस्ड फिल्में देखी हैं। लेकिन अक्सर यही देखा जाता है कि कहानी के अंत में पता चलता है कि आरोपी कौन है? क्लाईमैक्स में गुनहगार का पर्दाफाश होता है। लेकिन ‘जलसा’ में ऐसा कुछ नहीं होता। आपको कहानी के शुरू होने के 7-8 मिनटों के अंदर पता चल जाएगा कि असली अपराधी कौन है? क्या वाकई जुर्म है या कोई गलती? ये कहानी तो आपको धीरे धीरे कई कैरेक्टर के जरिए शानदार मैसेज दे जाती है।
कोई विलेन नहीं है कोई हीरो नहीं है
अक्सर आप फिल्म देखते हैं। सबसे पहले हीरोइन या हीरो की ग्रैंड एंट्री होती है और फिर धमाकेदार स्टाइल में विलेन आता है। कहानी पर्दे पर दौड़ती है। ऐक्शन देखते हैं मार पिटाई देखते हैं और अंत में हीरो विलेन को धूल चटा देता है और इसी के साथ फिल्म खत्म हो जाती है। इस तरह बॉलिवुड मलासा की ज्यादातर फिल्में पिरोई जाती है। लेकिन सुरेश त्रिवेणी ने ऐसा कुछ नहीं किया। उनकी ‘जलसा’ में न कोई हीरो है न कोई विलेन। ‘जलसा’ में माया, रुखसाना, ड्राइवर, पुलिसवाले समेत कई किरदार हैं जो आम जीवन की मुश्किलों को दिखाते हैं और सीख देने का प्रयास करते हैं।
कलाकारों और निर्देशन
‘जलसा’ फिल्म में विद्या बालन एक बार फिर अपने जबरदस्त एक्सप्रेशंस से छाप छोड़ती है। गुस्से में तमतमाती, घबराहट में पसीना छूटता, डर के मारे धुंआ निकलता या फिर प्यार का भाव… उनके चेहरे पर ये सब ऐसे झलकता है कि लगता ही नहीं कि वह अभिनय कर रही है। उनके काम में सच्चाई झलकती है। शेफाली शाह पहले भी कई बार अपने दमदार अभिनय का लोहा मनवा चुकी हैं। इस बार भी उसी लायक उन्होंने काम किया है लेकिन इक्का दुक्का मौके पर उनकी बॉडी लैंग्वेज किरदार से टूट जाती है। वहीं सुरेश त्रिवेणी ने इस बार भावात्कमक तरीके से कहानी को बयां किया है। पर्दे पर आप इसे न केवल देखते हैं बल्कि महसूस भी करने लगते हैं।
कहां रह गई चूक
इस फिल्म में एक किरदार है ट्रेनी पत्रकार का। ये ट्रेनी, माया मेनन के ऑफिस में ही काम करती है। उसे इस एक्सीडेंट के बारे में बैक टू बैक सुराग मिलते हैं और वह इस केस को सुलझा भी लेती है। लेकिन ट्रेनी पत्रकार कैसे ये सब करती है, ये समझ के परे लगता है। इस बारे में ज्यादा कुछ दिखाया नहीं गया है। बतौर राइटर व पत्रकार टर्म्स से सोचें तो ये थोड़ा खटकाता है।