ब्रेन इम्प्लांट : पूरी तरह लकवाग्रस्त इंसान ने कंप्यूटर की मदद से बताई अपनी इच्छा


एमियोट्रोफिक लैटरल स्लेरोसिस (amyotrophic lateral sclerosis) यानी एएलएस, एक प्रगतिशील नर्वस सिस्टम डिजीज है, जो ब्रेन और रीढ़ की हड्डी में नर्व्स सेल्स को इफेक्ट करती है. इससे मांसपेशियों पर कंट्रोल का नुकसान होता है. साधारण भाषा में इसे लकवा कहते हैं. दैनिक भास्कर अखबार में न्यूयॉर्क टाइम्स के हवाले से छपी न्यूज रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जर्मनी के अस्पताल में एएलएस से जूझ रहे 34 साल के युवक ने ब्रेन इम्प्लांट (brain implant) के जरिए संवाद किया है. इस रिपोर्ट के अनुसार, कुछ सालों पहले ही पता चला था कि इस युवक के दिमाग के सेल्स तेजी से डिजेनरेट (Degenerate) हो रहे हैं. कह सकते हैं कि जिस आदमी के आई बॉल्स (Eye Balls) भी नहीं हिल रहे थे, उसने इस टेक्नोलॉजी की मदद से जर्मन में कुछ शब्द कहे. उसका मतलब था, खाने में मुझे करी के साथ आलू और फिर उसका सूप चाहिए. जिनेवा की तबिंगेन यूनिवर्सिटी (Tübingen University) में बायोमेडिकल इंजीनियर रहे डॉ. उज्ज्वल चौधरी (Ujwal Chaudhary) बहुत टाइम से ब्रेन इम्प्लांट के तरीके पर रिसर्च कर रहे थे. डॉ. चौधरी के अनुसार, इस शख्स ने सीधे अपनी पलकों की बजाय आई बॉल्स के सहारे संवाद करने की कोशिश की. हम ये देखकर चौंक गए.

रिसर्च टीम के लीड और यूनिवर्सिटी के पूर्व न्यूरो साइंटिस्ट निलस बिरबाउमर (Niels Birbaumer) ने बताया कि दुनिया में यह पहली बार है कि जब पूरी तरह से लकवा पीड़ित इंसान बाहरी दुनिया से इस तरह से संवाद कर सका. ब्रेन इम्प्लांट की मदद से आए परिणाम संभावित बहुत कारगर हो सकते हैं, ये अनकॉन्शियस या बेहोशी की स्थिति में भी मददगार हो सकते हैं.

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दिमाग में लगाए दो छोटे इलेक्ट्रोड 
आपको बता दें कि 2017 में पूरी तरह से लकवे का शिकार होने से पहले पीड़ित ने आई मूवमेंट के जरिए परिवार से बात की थी. जब परिजन पीड़ित के लिए दूसरा तरीका तलाशने के लिए डॉ चौधरी और डॉ बिरबाउमर के पास गए. पीड़ित की मंजूरी के बाद न्यूरोसर्जन और स्टडी के राइटर डॉ जेम्स लहम्बर्ग (Dr. James Lumberg) ने दिमाग में दो छोटे इलेक्ट्रोड लगाए, जो उसकी मूवमेंट कंट्रोल कर रहे थे. दो महीने तक पीड़ित के हाथ-पैर और जीभ की मूवमेंट पर नजर रखी, ताकि ब्रेन सिग्नल देख सकें. डॉ बिरबाउमर ने ऑडिटोरी न्यूरोफीडबैक (auditory neurofeedback) का सुझाव दिया. फिर उन्होंने सेकंड नोट प्ले किया, जो सीधा दिमाग की स्थिति मैप कर रहा था.

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5 साल पहले रिसर्च पर लगी थी रोक
डॉ. चौधरी और डॉ. बिरबाउमर ने 5 साल पहले इस टेक्ननोलॉजी पर रिसर्च की थी. तब जांच में पता चला कि उनकी रिकॉर्डिंग में पक्षपात हुआ. विवाद के बाद जर्मन रिसर्च फाउंडेशन ने इस रिसर्च को आगे बढ़ाने पर रोक लगा दी थी. साथ ही डॉ. चौधरी पर 3 साल और डॉ. बिरबाउमर पर 5 साल की रोक लगा दी थी. ये मामला कोर्ट में है.

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