Bacteria: बैक्टीरिया के नाम के लिए नई प्रणाली वैज्ञानिकों ने तैयार किया, तीन सदी पुरानी प्रथा बदली


बैक्टीरिया (प्रतीकात्मक तस्वीर)।

बैक्टीरिया (प्रतीकात्मक तस्वीर)।
– फोटो : iStock

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बैक्टीरिया के नामकरण के लिए जीनोम सीक्वेंसिंग आधारित नयी प्रणाली ‘सीक-कोड’ को वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। इसके साथ ही 300 साल पुरानी जीवों के नामकरण की प्रथा को बदला गया है। दावा किया गया है कि ऐसा करने से इन सूक्ष्मजीवों को जानने में वैज्ञानिकों को आसानी होगी, वहीं नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स की पहचान से लेकर कैंसर के इलाज की तलाश तक में मदद मिल सकती है।

ऐसे रखे जाते हैं नाम
करीब 300 साल से पूर्व पौधों व जीवों की प्रजातियों की असंख्य विविधता की वजह से उनका नामकरण प्रकृति वैज्ञानिकों के लिए समस्या बन चुका था। किसी जीव या प्रजाति को दूसरी से अलग दर्शाना मुश्किल हो रहा था। इसके समाधान में स्वीडन के वनस्पति वैज्ञानिक कार्ल लिनेस ने 1737 में एक तार्किक बाई-नॉमिअल प्रणाली पेश की थी। इसमें सभी जीवों, पेड़-पौधों आदि के नाम दो हिस्सों में रखे जाते। पहला हिस्सा उनका जीनस होता, जो सरनेम की तरह काम आता। दूसरा, उस प्रजाति की विशेषता बताता। इस मेल से लगभग सभी जीवों काे एक विशिष्ट नाम मिलना संभव हुआ। जैसे हम मनुष्य होमो सेपियन कहलाए। इसमें होमो हमारा जीनस बना, यह मनुष्य के लिए लैटिन शब्द है। और सेपियन यानी बुद्धि रखने वाला। कार्ल की बाई-नॉमिनल प्रणाली पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, शैवाल, फंगी, वायरस, बैक्टीरिया के नाम रखने का नियम बनी, इन्हें कोड कहा जाने लगा। एजेंसी

बैक्टीरिया की एक प्रभावी, औपचारिक और स्थाई नामकरण प्रणाली वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर इन सूक्ष्म जीवों की विविधता का पता लगाने में ज्यादा मदद मिलेगी। हमारे वातावरण में उनकी क्या भूमिका है, यह भी पता चलेगा। वैज्ञानिक किसी बैक्टीरिया के बारे में ज्यादा पुख्ता तरीके से एकदूसरे से अपने शोध को लेकर बात कर पाएंगे। नई प्रणाली बनाने में शामिल वैज्ञानिकों का तो यह भी दावा है कि इससे नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स और कैंसर का इलाज तलाशने में भी मदद मिलेगी। बैक्टीरिया के नामकरण की जीनोम आधारित इस नई प्रणाली के लिए 2018 में अमेरिका में नेशनल साइंस फाउंडेशन के सहयोग से पहल की गई थी। इसे लंबे समय के विचार-विमर्श और अध्ययन के बाद सितंबर 2022 में सीक-कोड के रूप में अपनाया गया। इस प्रणाली के आने के बाद भी शुद्ध कल्चर वाले बैक्टीरिया के नामकरण के लिए बनी पुरानी प्रणाली चलती रहेगी।

बैक्टीरिया में समस्या आई
बैक्टीरिया का नाम रखने के लिए 1867 में पहली बार विस्तृत नियम तैयार हुए, हर 6 साल में इन पर इंटरनेशनल बॉटेनिकल कांग्रेस विचार करती। इस बीच आज आधुनिक विज्ञान और तकनीक ने बैक्टीरिया परिवार में शामिल  प्रोकार्योट्स का अध्ययन गहराई से करने में मदद की। प्रोकार्योट्स पर बाई-नॉमिनल प्रणाली काम नहीं कर रही थी क्योंकि यह एकल कोशिका वाले जीव अनूठे हैं। अब तक इनकी 18,000 ज्ञात प्रजातियां हैं और अज्ञात की संख्या हजारों करोड़ से लाखों करोड़ तक होने का अनुमान वैज्ञानिक लगाते है।नामकरण के नियम के तहत दो अलग देशों से बैक्टीरिया का शुद्ध कल्चर भी मिलना चाहिए। वहीं इन  प्रोकार्योटिक के केंद्र में न्यूक्लियाई नहीं होता। इनका शुद्ध कल्चर किसी प्रयोगशाला में पेट्री डिश पर अपने आप नहीं उगाया जा सकता।

और इसलिए बदली प्रथा
इसी वजह से नया सीक-कोड तैयार किया गया। यह डीएनए सीक्वेंसिंग डाटा से प्रजाति तय करता है। प्रोकार्योटिक बैक्टीरिया की किसी प्रजाति को लैब में पैदा कर उसका अध्ययन करने के बजाय वैज्ञानिक उसकी डीएनए सीक्वेंसिंग का सहारा ले पाएंगे। उन्हें इस सूक्ष्मजीवी का जीनोम हासिल होगा, जो डीएनए का ब्लूप्रिंट कहा जाता है। इसी में किसी जीव की सारी कार्यप्रणाली मौजूद होती है। सीक्वेंसिंग के डाटा को स्थाई माना जाता है। इससे किसी खास प्रजाति और अन्य प्रजाति से उसकी अलग पहचान में मदद मिलेगी। नई प्रणाली से नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स की पहचान से लेकर कैंसर के इलाज की तलाश तक में मदद मिल सकती है।

विस्तार

बैक्टीरिया के नामकरण के लिए जीनोम सीक्वेंसिंग आधारित नयी प्रणाली ‘सीक-कोड’ को वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। इसके साथ ही 300 साल पुरानी जीवों के नामकरण की प्रथा को बदला गया है। दावा किया गया है कि ऐसा करने से इन सूक्ष्मजीवों को जानने में वैज्ञानिकों को आसानी होगी, वहीं नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स की पहचान से लेकर कैंसर के इलाज की तलाश तक में मदद मिल सकती है।

ऐसे रखे जाते हैं नाम

करीब 300 साल से पूर्व पौधों व जीवों की प्रजातियों की असंख्य विविधता की वजह से उनका नामकरण प्रकृति वैज्ञानिकों के लिए समस्या बन चुका था। किसी जीव या प्रजाति को दूसरी से अलग दर्शाना मुश्किल हो रहा था। इसके समाधान में स्वीडन के वनस्पति वैज्ञानिक कार्ल लिनेस ने 1737 में एक तार्किक बाई-नॉमिअल प्रणाली पेश की थी। इसमें सभी जीवों, पेड़-पौधों आदि के नाम दो हिस्सों में रखे जाते। पहला हिस्सा उनका जीनस होता, जो सरनेम की तरह काम आता। दूसरा, उस प्रजाति की विशेषता बताता। इस मेल से लगभग सभी जीवों काे एक विशिष्ट नाम मिलना संभव हुआ। जैसे हम मनुष्य होमो सेपियन कहलाए। इसमें होमो हमारा जीनस बना, यह मनुष्य के लिए लैटिन शब्द है। और सेपियन यानी बुद्धि रखने वाला। कार्ल की बाई-नॉमिनल प्रणाली पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, शैवाल, फंगी, वायरस, बैक्टीरिया के नाम रखने का नियम बनी, इन्हें कोड कहा जाने लगा। एजेंसी

बैक्टीरिया की एक प्रभावी, औपचारिक और स्थाई नामकरण प्रणाली वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर इन सूक्ष्म जीवों की विविधता का पता लगाने में ज्यादा मदद मिलेगी। हमारे वातावरण में उनकी क्या भूमिका है, यह भी पता चलेगा। वैज्ञानिक किसी बैक्टीरिया के बारे में ज्यादा पुख्ता तरीके से एकदूसरे से अपने शोध को लेकर बात कर पाएंगे। नई प्रणाली बनाने में शामिल वैज्ञानिकों का तो यह भी दावा है कि इससे नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स और कैंसर का इलाज तलाशने में भी मदद मिलेगी। बैक्टीरिया के नामकरण की जीनोम आधारित इस नई प्रणाली के लिए 2018 में अमेरिका में नेशनल साइंस फाउंडेशन के सहयोग से पहल की गई थी। इसे लंबे समय के विचार-विमर्श और अध्ययन के बाद सितंबर 2022 में सीक-कोड के रूप में अपनाया गया। इस प्रणाली के आने के बाद भी शुद्ध कल्चर वाले बैक्टीरिया के नामकरण के लिए बनी पुरानी प्रणाली चलती रहेगी।

बैक्टीरिया में समस्या आई

बैक्टीरिया का नाम रखने के लिए 1867 में पहली बार विस्तृत नियम तैयार हुए, हर 6 साल में इन पर इंटरनेशनल बॉटेनिकल कांग्रेस विचार करती। इस बीच आज आधुनिक विज्ञान और तकनीक ने बैक्टीरिया परिवार में शामिल  प्रोकार्योट्स का अध्ययन गहराई से करने में मदद की। प्रोकार्योट्स पर बाई-नॉमिनल प्रणाली काम नहीं कर रही थी क्योंकि यह एकल कोशिका वाले जीव अनूठे हैं। अब तक इनकी 18,000 ज्ञात प्रजातियां हैं और अज्ञात की संख्या हजारों करोड़ से लाखों करोड़ तक होने का अनुमान वैज्ञानिक लगाते है।नामकरण के नियम के तहत दो अलग देशों से बैक्टीरिया का शुद्ध कल्चर भी मिलना चाहिए। वहीं इन  प्रोकार्योटिक के केंद्र में न्यूक्लियाई नहीं होता। इनका शुद्ध कल्चर किसी प्रयोगशाला में पेट्री डिश पर अपने आप नहीं उगाया जा सकता।

और इसलिए बदली प्रथा

इसी वजह से नया सीक-कोड तैयार किया गया। यह डीएनए सीक्वेंसिंग डाटा से प्रजाति तय करता है। प्रोकार्योटिक बैक्टीरिया की किसी प्रजाति को लैब में पैदा कर उसका अध्ययन करने के बजाय वैज्ञानिक उसकी डीएनए सीक्वेंसिंग का सहारा ले पाएंगे। उन्हें इस सूक्ष्मजीवी का जीनोम हासिल होगा, जो डीएनए का ब्लूप्रिंट कहा जाता है। इसी में किसी जीव की सारी कार्यप्रणाली मौजूद होती है। सीक्वेंसिंग के डाटा को स्थाई माना जाता है। इससे किसी खास प्रजाति और अन्य प्रजाति से उसकी अलग पहचान में मदद मिलेगी। नई प्रणाली से नई पीढ़ी के एंटीबायोटिक्स की पहचान से लेकर कैंसर के इलाज की तलाश तक में मदद मिल सकती है।





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