यह रिसर्च ‘साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल’ में प्रकाशित हुई है। इसमें बताया गया है कि रिसर्चर्स ने मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (MRI) का इस्तेमाल करके अंतरिक्ष में जाने वाले से पहले यात्रियों के दिमाग को देखा। जब अंतरिक्ष यात्री इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर पहुंच गए, उसके बाद भी रिसर्चर्स ने एक-एक महीने के अंतराल पर उनके दिमाग को देखा। 6 महीने बाद जब अंतरिक्ष यात्री पृथ्वी पर लौटे, तो उनकी बारीकी से जांच की गई।
रिसर्चर्स ने पाया कि अंतरिक्ष यात्रियों के दिमाग में द्रव से भरी वह जगह जिसे पेरिवास्कुलर स्पेस कहा जाता है, उसका साइज बड़ा हो गया। ऐसा उन अंतरिक्ष यात्रियों के साथ हुआ था, जो पहली बार स्पेस में गए थे। जो अंतरिक्ष यात्री अपने दूसरे मिशन में गए थे, उनमें कोई बदलाव देखने को नहीं मिला। इससे पता चलता है कि समय के साथ अंतरिक्ष यात्री भी वहां के माहौल में ढल जाते हैं।
अंतरिक्ष यात्रियों के दिमाग में बदलाव खतरनाक लग सकता है, लेकिन उनमें ऐसी कोई बड़ी समस्या नहीं दिखाई दी। माना जा रहा है कि यह बदलाव अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण की कमी के कारण आता है। अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने के दौरान तरल पदार्थ यात्रियों के शरीर के ऊपरी हिस्से में जमा हो जाते हैं। इसी वजह से उनका चेहरा फूल जाता है। कई अंतरिक्ष यात्रियों को उनके विजन यानी देखने में परेशानी होती है।
इससे पहले भी रिसर्च में यह पता चला है कि यात्रियों का दिमाग अंतरिक्ष में समय बिताने पर बड़ा हो जाता है, जिसकी वजह फ्लूइड का रिडिस्ट्रीब्यूशन हो सकता है। स्पेसफ्लाइट के दौरान इंसान का शरीर कैसे बदलता है, यह समझना अंतरिक्ष एजेंसियों के लिए प्रमुख विषय है। इस स्टडी से पृथ्वी पर रहने वाले आम लोगों को भी फायदा हो सकता है। खासतौर पर उन लोगों के लिए जो दिमाग में फ्लूइड के सर्कुलेशन को प्रभावित करने वाली बीमारियों से पीड़ित हैं।
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