सिने भाषा बाजारः दर्शक के हाथ में आए नए औजार | – News in Hindi – हिंदी न्यूज़, समाचार, लेटेस्ट-ब्रेकिंग न्यूज़ इन हिंदी


मूल रूप से स्पेनिश भाषा में बनी ‘मनी हाइस्ट’ और कोरियाई भाषा में बनी ‘स्क्विड गेम्स’ जैसी वेब सीरीज एवं के-ड्रामा सीरीज की शानदार सफलता यह बताने के लिए काफी थी कि भारतीय दर्शक अब केवल अंग्रेजी भाषा में बने अमेरिकी और ब्रिटिश कंटेंट से ही संतुष्ट नहीं होने वाले हैं. लिहाजा ओटीटी जगत पर कोरियन, स्पेनिश, फ्रेंच, इतालवी इत्यादि भाषाओं के कंटेंट की एक बाढ़ सी आ गई, जिसे सबटाइटल्स और डबिंग की मदद से गटकने में दर्शकों को आसानी तो हुई ही, साथ ही अब जाकर इसमें उन्हें कुछ अलग किस्म का स्वाद आने लगा है. एक ट्रेंड के रूप में इन भाषाओं का कंटेंट अपनी जगह बना ही पाया था कि दर्शकों का दिल टर्किश ड्रामा और फिल्मों पर फिदा हो चला. हिंदी के अलावा तमिल, तेलुगु, मराठी, बांग्ला आदि में उपलब्ध है.

सिनेमा कंटेंट को लेकर अपने मिजाज से इतना परे जाकर, भारतीय दर्शकों की पसंद-नापसंद का इतनी जल्दी-जल्दी बदलना थोड़ा चौंकाता तो है. वो भी ऐसे समय में जब एक तरफ वैश्विक स्तर पर हमारी फिल्में अपने लिए नए-नए बाजार खोज रही हैं तो दूसरी तरफ अपना देसी दर्शक विश्व की अलग-अलग भाषाओं में बने कंटेंट रूपी महासागर में गोते लगा रहा है. बात चाहे देश की हो या विदेश में डंका बजाने की, दुनिया की तमाम भाषाओं के कंटेंट को अपनाने का यह ट्रेंड सिरे चढ़ पाया है तो वो है सबटाइटल्स और डबिंग की मदद से, जिसकी मांग दिनों दिन बढ़ती रही है. ऐसा लगता है मानो देसी दर्शकों के सामने अलग-अलग भाषाओं के कंटेंट से सजा कोई बड़ा सा दस्तरखान लगा है और उन्हें एक-एक करके इसके सभी जायके चखने हैं.

फिर बात चाहे स्नैक्स का सा कुरकुरा स्वाद देती फ्रेंच सीरीज ‘लुपिन’ की हो या फिर चटपटे स्वाद वाली इटेलियन कॉमेडी फिल्म ‘दि प्लेयर्स’ की. तीखा खाने का दिल किया तो अरेबिक हॉरर सीरीज ‘पैरॉनार्मल’ या ‘जिन्न’ देख डाली या वीकेंड में पॉपकार्न के साथ ‘बिंज’ वॉच करते-करते ‘ड्यूशलैंड 83’ या ‘क्लिओ’ जैसी कोई जर्मन सीरीज निपटा दी. ‘डे ड्रीमर’, ‘ऑवर स्टोरी’, च्वाइस, दि प्रॉमिस, एज इफ के जरिए एक नए तरह की टर्किश थाली तो दर्शकों को मिल ही चुकी है. वैसे प्लेट में जापानी, मैंडरिन और नॉर्डिक रीजन की डेनिश, आइसलैंडिक, स्वीडिश, नॉर्वेजियन और फिनिश भाषाओं के कंटेंट के लिए भी पर्याप्त जगह है, इसलिए अलग से किसी दावत की जरूरत फिलहाल न पड़े.

ग्लोबल पहुंच में मददगार

हर साल दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में हमारे देश में बनती हैं. साल 2019 में 2,400 से अधिक फिल्में बनाई गईं. हालांकि कोविड से पहले हिंदी के साथ-साथ तमिल, तेलुगु, सहित अन्य भाषाओं की फिल्में बढ़िया से लेकर संतोषजनक तक बिजनेस कर रही थीं. बावजूद इसके हर साल बनने वाली कुल फिल्मों में से गिनती की सौ फिल्में भी ऐसी नहीं होतीं, जिन्हें हम ब्लॉकबस्टर या सुपरहिट या हिट की श्रेणी में रख सकें. और अब जाकर तो हालत और भी खराब हो चली है. लेकिन क्या इससे भारतीय फिल्मों की ग्लोबल पहुंच पर कुछ प्रभाव पड़ता है?

डबिंग और सबटाइटल्स की मदद से भारतीय फिल्में लगातार अपनी पहुंच बढ़ाने में लगी हैं. उदाहरण के लिए अपनी रिलीज के तीन साल बाद ऋतिक रोशन की फिल्म ‘सुपर 30’ कुछ हफ्ते पहले जापान में जापानी सबटाइटल्स के साथ रिलीज की गई. गलवान घाटी की घटना न हुई होती तो यह फिल्म 2020 में चीन में रिलीज होनी थी. एस.एस. राजामौली की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘आरआरआर’ इस महीने जापानी डब वर्जन के साथ रिलीज होनी है. इसके पहले ‘आरआरआर’ को 55 भाषाओं के सबटाइटल्स एवं डबिंग के साथ विश्वव्यापी स्तर पर रिलीज किया गया था.

आमतौर पर राजामौली की फिल्में तमिल, तेलुगु, हिंदी, कन्नड़ और मलयालम के अलावा विदेश में अंग्रेजी में डब या सबटाइटल्स के साथ रिलीज होती रही हैं, लेकिन ‘बाहुबली’ की सफलता के बाद काफी कुछ बदल गया है. ‘बाहुबली’ को चीनी और जापानी भाषा में डब वर्जन के साथ रिलीज किया गया था, जिसमें जापानी भाषा के संस्करण को आर्थिक सफलता भी हासिल हुई थी. इसलिए इस बार ‘आरआरआर’ को इन दो भाषाओं के साथ-साथ कोरियन, पुर्तगाली, तुर्की, स्पेनिश में भी डब किया गया है.

इसी साल आई ‘केजीएफ 2’, कन्नड़ भाषा में बनी ऐसी पहली फिल्म है, जो ग्रीस और साउथ कोरिया में डब एवं सबटाइटल्स के साथ रिलीज की गई. इंडोनेशिया के समीप, प्रशांत महासागर क्षेत्र में स्थित एक स्वतंत्र राष्ट्र पपुआ न्यू गिनी में भी ‘केजीएफ 2’ रिलीज हुई, जहां की कुल आबादी करीब 90 लाख है और आधिकारिक भाषा अंग्रेजी होने के बावजूद यहां 839 भाषाएं बोली जाती हैं. थोड़ा पीछे जाकर देखें तो आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘ड्रीमगर्ल’ के बाद अक्षय कुमार की फिल्म ‘मिशन मंगल’ को हांगकांग में कैण्टोनी भाषा में रिलीज किया गया था. आयुष्मान खुराना और तबू की फिल्म ‘अंधाधुन’, चीन में ‘पियानो प्लेयर’ के नाम से रिलीज की गई, जिसके डब वर्जन ने 318 करोड़ रुपए का बिजनेस किया तथा आमिर खान की ‘दंगल’ और ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ के बाद चीन में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली तीसरी फिल्म बनी.

कंगना रनोट की फिल्म ‘मणिकर्णिकाः दि क्वीन ऑफ झांसी’ (2019) को करीब साल भर बाद जापान में जापानी भाषा में रिलीज किया गया, जहां ओपनिंग वीक में वह तीसरे नंबर पर थी. इसके पहले कंगना की फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ को जर्मन भाषा में रिलीज किया गया था. कुछ और प्रयास जैसे रानी मुखर्जी की फिल्म ‘हिचकी’, ‘मुन्ना माइकल’ और ‘शुभ मंगल सावधान’ को रूस एवं कजाकिस्तान में तथा ‘बजरंगी भाईजान’ ने तुर्की में अपने लिए बाजार तलाशने हेतु भाषा के स्थानीयकरण का सहारा लिया. हाल में रिलीज हुई रणबीर कपूर-आलिया भट्ट की फिल्म ‘ब्रह्मास्त्र’ को डिज्नी ने ग्लोबल अपील के साथ अब तक की सबसे बड़़ी भारतीय फिल्म रिलीज के टैग के साथ भारत समेत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रस्तुत किया, जिसके तहत कुल वैश्विक कमाई 429 करोड़ रुपए बताई जाती जबकि इसमें से 110 करोड़ रुपए विदेश में हुई कमाई से आए. अपनी रिलीज के समय यह फिल्म पूरी दुनिया में नंबर 1 चार्ट पर रही जो अपने आप में किसी कीर्तिमान से कम नहीं है.

इसके अलावा साउथ की भी कई फिल्में उन्हीं सब देशों में पैठ बनाती दिख रही हैं, जहां बॉलीवुड कोशिश कर रहा है. हालांकि पहुंच बढ़ रही है और पहचान भी मिल रही है, लेकिन क्या इससे आर्थिक पक्ष भी मजबूत हो रहा है? साल 2020 की फिक्की की एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 और 2018 के मुकाबले 2019 में विदेश में अधिक फिल्में रिलीज होने के बावजूद आय में (चीन को मिलाकर) क्रमशः 439, 491, 332 मिलियन डॉलर की गिरावट देखी गई है. कोविड की वजह से साल 2020-21 के हालात तो सिनेमा जगत के लिए वैसे ही खराब रहे. लेकिन साल 2022 से सूरत लगातार बदलती दिख रही है.

‘ब्रह्मास्त्र’ की सफलता के बाद 400 करोड़ रुपए का कारोबार कर चुकी हाल में आई मणिरत्नम निर्देशित तमिल फिल्म ‘पोन्नियिन सेल्वनः 1’ ने 140 करोड़ रुपए विदेश से अर्जित किए हैं. सिंगापुर, मलेशिया, श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया में यह रिलीज के समय नंबर 1 की पोजिशन पर रही तथा अमेरिका में पहले तीन नंबरों में, साथ ही इन देशों में यह सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों की लिस्ट में शुमार हो गई है. आने वाले महीनों में ‘ब्रह्मास्त्र’ और ‘पोन्नियिन सेल्वन 1’ को कई और देशों में डब संस्करण तथा सबटाइटल्स के साथ रिलीज किया जाना बाकी है. इसके अलावा ‘केजीएफ 2’, ‘आरआरआर’, ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘ब्रह्मास्त्र’, ‘पीएस-1’, ‘विक्रम’ जैसी बड़ी सफलताओं के साथ-साथ कई छोटी-छोटी फिल्मों को घरेलू जमीन पर मिली कामयाबी ने डबिंग तथा सबटाइटलिंग, विदेश में सफलता हासिल करने के अहम औजार बन गए हैं, जिनकी धार आने वाले समय में और तेज होगी.

पर दु:ख होता है कभी-कभी देखकर कि एक तरफ भारतीय दर्शक दिल खोलकर दुनियाभर की भाषाओं के कंटेंट में दिलचस्पी दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ कुछ फिल्म सितारे कभी-कभी भाषा के उत्तर-दक्षिण में इस कदर उलझ जाते हैं कि उन्हें शायद खुद भी पता नहीं रहता कि वह क्या बोल गए. बयान बहादुर बनते समय उन्हें शायद जरा भी इल्म नहीं रहता होगा कि जब वह यह साबित करने में लगे रहते हैं कि हिंदी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़़ या मलयालम में से कौन सी भाषा सिनेमा जगत में ज्यादा प्रभावी और बड़ी है, तब उन्हीं की कोई फिल्म किसी स्टूडियों में डबिंग और सबटाइटल के लिए इन्हीं भाषाओं के अनुवादकों या डबिंग कलाकारों द्वारा अपने अगले दर्शक वर्ग समूह तक पहुंचाने के लिए सजाई-संवारी जा रही होती होगी. इल्म होता तो कुछ प्रसिद्ध कलाकारों के बयानों में ऐसी तल्खी न देखने को मिलती, जिससे कुछ महीने पहले उत्तर और दक्षिण की सिने बिरादरी के बीच तू तू मैं मैं काफी बढ़ गई थी.

सिनेमाई भाषा का वैश्विक बाजार

विश्व के एक छोर से दूसरे छोर को जोड़ने, सांस्कृतिक एवं सामाजिक समझ बढ़ाने एवं उसके अदान-प्रदान में सिनेमा का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. और यह इंटरनेट जैसे मायावी साधन के बगैर काफी पहले से होता आ रहा है. पचास के दशक में रूस, अरब देशों, चीन और अफ्रीका आदि देशों में शोमैन राजकपूर खूब प्रसिद्ध हुए. तो यहां 60 के दशक में भारत में जेम्स बॉन्ड की फिल्में सुर्खियों में रहने लगीं. चीनी भाषा आज भी यहां किसी के पल्ले न पड़े, पर सत्तर-अस्सी के दशक में अपनी मार्शल आर्ट फिल्मों के जरिए ब्रूस ली, भारत समेत दुनियाभर में छाए रहे. नब्बे के दशक तक भारत में उनके पोस्टर खूब बिकते रहे. अस्सी के दशक के मध्य में जब भारत में वीडियो कैसेट का दौर आया तो ऑर्नोल्ड और स्टैलन पोस्टर ब्वाय बन गए और ब्रूस ली की जगह जैकी चान ने ले ली. लेकिन उससे जरा पहले मिथुन चक्रवती की फिल्म ‘डिस्को डांसर’ रूस, अरब देशों, तुर्की, अफ्रीका, पूर्वी यूरोप, जापान और चीन में धूम मचा चुकी थी. फिर नब्बे के दशक में जब केबल-सैटेलाइट का दौर आया तो शाहरुख खान ने एक तरफ एकदम नए तरह का ग्लोबल दर्शक वर्ग तैयार किया, तो ओर भारत में ‘जुरासिक पार्क’, ‘मिशन इम्पॉसिबल’, ‘इंडिपेंडेंस डे’, ‘गोल्डन आई’, ‘ममी’ और ‘टाइटैनिक’ जैसी फिल्मों को हिंदी फिल्मों से ज्यादा सफलता मिलने लगी.

अब से और 20-25 साल बाद जब एक सदी के दौरान सिनेमा के जरिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान और अलग-अलग देशों के बीच फासले कम करने पर बात होगी तो वह चर्चा डबिंग और सबटाइटल्स की भूमिका के बगैर नहीं की जा सकेगी. उपर्शीषक-डबिंग के बगैर राज का जूता जापानी होता या जबलपुर का, किसे पता चलता. जिम्मी जिम्मी… की धुन लाजवाब थी, पर इस गीत के बोल ही अगर रूसी और जापानियों के पल्ले पड़ते नहीं तो मिथुन दा की ग्लोबल अपील कैसे रंग दिखा पाती. वो चाहे फिर ब्रूस ली हों या जैकी चान, मैंडरिंग और कैण्टोनी भाषा में बनी उनकी शुरूआत दौर की फिल्में अगर अंग्रेजी में डब या सबटाइटल्स के साथ नहीं आती तो चीन और हांगकांग से बाहर के बाजार में उनकी पैठ बननी मुश्किल होती. या एक पल को मान लेते हैं कि एक्शन स्टार फिर भी किसी तरह अपनी मार्केट बना लेते हैं, लेकिन रोमांटिक हीरो का क्या. वह दूसरे देश में बिना डायलॉग्स और आधी-अधूरी समझ आने वाली कहानी के बगैर कैसे टिकेगा. यूके, अमेरिका, यूरोप के कुछ बड़े देशों को छोड़कर बाकी जगह शाहरुख खान के प्रशंसक, स्थानीय भाषा के में डब या सबटाइटल्स से ही बन पाये होंगे. या आमिर खान, जिनकी ‘3 इडियट्स’, ‘पीके’, ‘दंगल’, ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ जैसी फिल्मों ने भाषा के स्थानीयकरण के चलते चीन और जापान जैसे देशों में प्रसिद्धि और पैसा खूब पाया.

इसी तरह भारत में जेम्स कैमरून की ‘जुरासिक पार्क’ (1993) का हिंदी वर्जन डब फिल्मों की श्रंखला में ऐतिहासिक माना गया है. इस फिल्म से अंग्रेजी से हिंदी में डब फिल्मों के एक नए दर्शक वर्ग को बनाने में मदद मिली, जिसका असर जेन्स बॉन्ड सीरीज की ‘गोल्डन आई’ (1995) और इसके बाद की कई हॉलीवुड फिल्मों को मिलता दिखा. फिर जब 1997 में ‘जुरासिक पार्क 2’ आई तो उस दर्शक वर्ग को पता था कि वह अंग्रेजी का कंटेंट किस भाषा में और क्यों देखने जा रहा है. टिकट खिड़की पर बढ़ती भीड़ से उसके टेस्ट का पता लग चुका था, जिसका नतीजा यह हुआ कि इसके अगले साल आई रोनॉल्ड एमरिच की ‘गॉडजिला’ (1998) और उसके बाद आई ब्रैंडन फ्रेजर की एक्शन फिल्म ‘ममी’ (1999) तो शायद लोगों को मुंह जबानी याद सी हो गई थी. मुझे लगता है कि धीरे-धीरे अंग्रेजीदां दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा हिंदी डब वर्ग में रूपांतरित होने लगा था.

‘ग्लैडिएटर’ (1999), ‘मेट्रिक्स’ (2000), ‘स्पाइडर-मैन’ (2002) सीरीज, ‘हैरी पॉटर’ सीरीज (2001), ‘पाइरेट्स आफ दि कैरेबियन सीरीज’ (2001), ‘मिशन इम्पॉसिबल’ सीरीज (2000), ‘बॉन्ड सीरीज’ (2002), ‘फास्ट एंड फ्यूरियस’ सीरीज (2001), ‘एवेंजर्स’ सीरीज (2012) आदि और हालिया फिल्मों की सफलता ने साबित किया है कि अंग्रेजी से ज्यादा कमाई इनके डब संस्करणों से हुई. दिल्ली जैसे शहर की बात करूं तो ‘जुरासिक पार्क’ से पहले अंग्रेजी फिल्म का मतलब था दूतावासों की गोद में बसा चाणक्य सिनेमा हॉल, पर ‘गोल्डन आई’ (1995) के हिंदी में आने तक पहाड़गंज का शीला सिनेमा हॉल अंग्रेजी की हिंदी में डब फिल्मों का चर्चित केन्द्र बन गया था, जिसे देश का पहला 70 एमएम थियेटर का श्रेय भी हासिल है.

एक बात यह भी है कि हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा का डब वर्जन, गैर अंग्रेजी भाषी के लिए सुविधाजनक रहता है, पर अंग्रेजी फिल्म को अंग्रेजी सबटाइल्स के साथ देखने में अधिक सुविधा रहती है. खासतौर से भारत जैसे देश में जहां अंग्रेजी बोलने और समझने की सच्चाई आंकड़ों की हकीकत से काफी अलग है. हालांकि विदेशी फिल्मों, फिर वो चाहे किसी भी भाषा की हों, को डब या सबटाइटल्स के साथ रिलीज करने या न करने के पीछे पेशेवर-व्यावसायिक कारण भी शुरू से रहे हैं, जिसके तहत अक्सर सुपर हीरोज या पॉपुलर फिल्मों को ही डब वगैराह करने का का निर्णय लिया जाता है.

ओटीटी की सफलता का आधार

हालांकि मौजूदा दौर में ओटीटी मंचों ने अपना दर्शक वर्ग बढ़ाने के लिए इन दो तकनीकों-सुविधाओं का इस्तेमाल सबसे अच्छे ढंग से किया है. सब्टाइटल्स यानी उप-शीर्षक और डबिंग यानी मूल भाषा से किसी अन्य भाषा में रुपांतरण, ने देसी-विदेशी कंटेंट का लुत्फ लेने वाले सिने प्रेमियों की सहूलियतें पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा दी हैं. इसमें ओटीटी मंचों की भूमिका अहम बन गई है. अगर आज चार लोग आसानी से किसी स्पेनिश, फ्रेंच, डेनिश, पोलिश फिल्म या वेब सीरीज की बात कर रहे हैं, तो उसके पीछे सबटाइल्स और डबिंग एक अहम वजह है.

देसी ओटीटी मंचों पर हिंदी के कंटेंट के साथ भी हिंदी एवं अंग्रेजी के सबटाइटल्स की सुविधा होती है. किसी मेगा बजट चर्चित फिल्म के डब संस्करण की गिनती 20-30 के बढ़कर 50 भाषाओं तक पहुंच गई है, जबकि सस्ता और सुलभ होनेे की वजह से सब्टाइटल्स ने ज्यादा तेजी अपनी पहुंच बढ़ाई है. हाल में एक ओटीटी मंच पर आई नाओमी वाट्स की अंग्रेजी फिल्म गुडनाइट मॉमी, हिंदी, तमिल और तेलुगू सहित दुनियाभर की 35 भाषाओं के सब्टाइटल्स तथा हिंदी सहित 11 अन्य भाषाओं में डबिंग के साथ रिलीज किया गया.

यह फिल्म साल 2014 में इसी नाम से आई एक जर्मन भाषा में बनी फिल्म का रीमेक है. नेटफ्लिक्स पर फ्रेंच भाषा में उपलब्ध कंटेंट की संख्या 150 से अधिक होगी, जिसमें से काफी सारी सामग्री अंग्रेजी या हिंदी में डब-सबटाइटल्स के साथ देखी जा सकती है. इसके मुकाबले में अमेजन प्राइम, डिज्नी-हॉटस्टार तथा बाकी मंचों पर अलग-अलग भाषाओं का विदेशी कंटेंट तो है, पर हिंदी में डब या सबटाइटल्स की सुविधा थोड़ी कम है. बावजूद इसके अगर किसी को नॉर्डिक नुआर के तहत ट्रैप्ड, एनट्रैप्ड, डेडविंड सरीखी सीरीज देखनी है, तो वह मूल भाषा की परवाह किए बगैर केवल अंग्रेजी सबटाइटल्स के साथ भी देखेगा और यह एक ऐसा नियम है जो फ्रेंच, रशियन, अरबी सहित तमाम विदेशी भाषाओं पर लागू होता आया है. असल, में ओटीटी पर तेजी से फलते-फूलते उद्यम में भाषा केवल एक माध्यम है, जो बस दर्शकों की पसंद और मांग के आधार पर अपनी उपलब्धता सुनिश्चित करते हुए बाजार में अपनी पैठ बढ़ा रही है. ओटीटी पर तेजी का ही असर है कि आज नए के साथ-साथ पुराने हिंदी कंटेंट को धड़ाधड़ अंग्रेजी या कुछ अन्य भाषाओं के सबटाइल्स के साथ प्रस्तुत करने की एक होड़ सी मची है.

दरअसल, भारत में ओटीटी-स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स पर गैर अंग्रेजी कंटेंट की मांग जिस तेजी से बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से बदल भी रही है. स्पेनिश और कोरियाई कंटेंट को लेकर दर्शकों की पसंद अब नई बात नहीं रह गई है, बल्कि टर्किश कंटेंट ने इनके बीच सेंध लगाई है. इससे पहले टर्किश ड्रामा कंटेंट, मिडिल ईस्ट और एक दर्जन से अधिक दक्षिणी एवं मध्य अमेरिकी देशों में बड़े चाव से देखे और खूब पसंद किए गये हैं. तुर्की को दुनिया में दूसरे सबसे बड़े टीवी कंटेंट निर्यातक के रूप में गिना जाता है. इनके अलावा फ्रेंच, नॉर्डिक, जर्मन, जापानी, डैनिश, आइसलैंडिक, जर्मन और मैंडरिन कंटेंट के प्रति भी दिलचस्पी बढ़ रही है. एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्ट्रीमिंग का बाजार जो कि आय में बढ़ोतरी के अपने दूसरे चरण में है, मौजूदा समय में करीब 3 बिलियन डॉलर का है जिसके साल 2027 तक 7 बिलियन डॉलर होने का अनुमान लगाया जा रहा है. देश में ओटीटी मंचों के फलने-फूलने के पीछे निश्चित रूप से अन्य कई कारण भी हैं, लेकिन डबिंग और सबटाइटसल्स की मदद से देसी हो या विदेशी भाषा के कंटेंट को अपनी पसंद और सुविधाजनक भाषा में देख पाने की जो सहूलियत एक दर्शक को मिली है, उससे इन मंचों का आधार तो मजबूत हुआ है, इसमें दो राय नहीं है.

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