कांग्रेस : अतीत में कैद, भविष्य की तलाश में पार्टी, एक बार फिर वही चिंतन करने का वादा


पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकें बॉलीवुड फिल्मों की अगली कड़ी की तरह रही हैं। कहानी वही रहती है, पटकथा और संवाद समान रहते हैं और अंत का अनुमान लगाया जा सकता है। रविवार को हुई बैठक भी इससे अलग नहीं थी। कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ गांधी परिवार मिला, इस्तीफे की पेशकश की गई, बलिदान के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया, फिर बहाने और विश्लेषण हुए और अंत में एक और चिंतन बैठक करने के वादे के संग बैठक खत्म हो गई। 

कुछ लोगों को उम्मीद थी कि कांग्रेस कुछ करिश्मा करेगी। फिर भी 136 साल पुरानी पार्टी अपेक्षित हार को नाटकीय और आश्चर्यजनक बनाने में कामयाब रही! पांच राज्यों में चुनाव के अंत में 10 मार्च को कांग्रेस की स्कोर शीट 0-5 थी। उत्तर प्रदेश में उसका वोट शेयर 2.3 फीसदी रहा और 403 सीटों वाली विधानसभा में उसके खाते में मात्र दो सीटें आईं। अगर कोई उसके 2017 के स्कोर को भी जोड़ ले, तब भी पार्टी दहाई अंक का आंकड़ा नहीं छू पाती है। पिछले तीन दशकों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कुल संख्या विधानसभा की आधी सीटों के बराबर भी नहीं है।

चार अन्य राज्यों में भी इसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। पंजाब में पार्टी ने दलित कार्ड खेला था, लेकिन मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दोनों सीटों से चुनाव हार गए। उत्तराखंड में पार्टी और हरीश रावत, दोनों हार गए। मणिपुर में कांग्रेस ने भाजपा को चुनाव जीतने में मदद ही की। गोवा में चुनाव के बाद गठबंधन करने की उसकी उम्मीदें बिखर गईं। एक बार फिर ये नतीजे चौंकाने वाले नहीं लगते, पर बारीक विवरण स्तब्ध करते हैं।

लगता है कि कांग्रेस चुनाव कैसे नहीं लड़ा जाए, इस पर किताब लिख रही है। पश्चिम बंगाल में इसने वाम मोर्चे के साथ गठबंधन किया और इसका वोट शेयर गिरकर 2.9 फीसदी रह गया। केरल में इसने उसी वाम मोर्चे के खिलाफ चुनाव लड़ा और दशकों की परंपरा तोड़ते हुए पिनरई विजयन के नेतृत्व वाली माकपा को फिर सरकार बनाने में सक्षम बनाया। अवसरवादियों के साथ समझौता कर इसने असम में भाजपा को सत्ता में वापसी करने की अनुमति दी। 

एन.आर. कांग्रेस से रिश्ता तोड़ और तमिलनाडु में द्रमुक का दुमछल्ला बनने जैसी गलतियां कर यह पुड्डुचेरी में हार गई। हार एक पैटर्न बनाती है और तबाही लाती है। कांग्रेस दशकों से विभिन्न राज्यों से बाहर है-तमिलनाडु में 55 वर्षों से, पश्चिम बंगाल में 45 साल से, उत्तर प्रदेश और बिहार में तीस साल से ज्यादा समय से, ओडिशा और गुजरात में 25 साल से ज्यादा समय से और इसी तरह अन्य राज्यों में भी। 

हाल के वर्षों में जहां भी मतदाताओं को अपने मुद्दों का प्रतिनिधित्व करने वाला और अपनी भाषायी व सांस्कृतिक शिकायतें दूर करने का व्यावहारिक वैकल्पिक मोर्चा मिल गया, उन्होंने कांग्रेस को हटा दिया है-जैसे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, दिल्ली और अब पंजाब, जहां केजरीवाल की आप ने शानदार प्रदर्शन किया है। जनवरी, 2013 में, कांग्रेस ने जयपुर में राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाने के लिए उत्तराधिकार योजना शुरू की। 

एक ऐसे व्यक्ति को इतनी पुरानी पार्टी का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया गया, जिसके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था। नतीजा सामने है। उसके बाद पार्टी लगातार दो लोकसभा चुनाव हार गई है। जीतने से ज्यादा उसने चुनाव हारे हैं। यहां मुद्दा क्षमता और संगठनात्मक नेतृत्व का है। सवाल यह है कि पार्टी किसका प्रतिनिधित्व करती है या उसके होने का मतलब क्या है। इसने 2019 में न्याय के मुद्दे पर प्रचार किया, पर इसे आंशिक या पूर्ण रूप से लागू करने के लिए उसे राज्यों में सत्ता के लिए संघर्ष करना पड़ा। 

इसने सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के विचार को बढ़ावा दिया, पर पंजाब, छत्तीसगढ़ या राजस्थान में इसे लागू करने में वह विफल रही। ऐसे साहित्य की कमी नहीं है, जिससे पार्टी समझ सकती है कि किस वजह से वह संकट में है। वर्ष 1936 के लखनऊ अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘हम जनता के साथ काफी हद तक संपर्क खो चुके हैं और उनसे मिलने वाली जीवनदायिनी ऊर्जा से वंचित हैं, हम सूखते और कमजोर होते हैं, हमारा संगठन सिकुड़ता है और अपनी शक्ति खो देता है।’ 

50 साल बाद, 1985 में उनके नाती राजीव गांधी ने मुंबई में शताब्दी सत्र में बोलते हुए कहा था, ‘देश भर में लाखों साधारण कांग्रेसी कार्यकर्ता कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति उत्साह से भरे हुए हैं। लेकिन वे लाचार हैं, क्योंकि उनकी पीठ पर सत्ता और प्रभाव के दलाल सवार हैं, जो एक जन आंदोलन को सामंती कुलीन तंत्र में बदलने के लिए संरक्षण देते हैं।’ वर्ष 2022 में वे शब्द सच साबित हो रहे हैं। पार्टी और उनके नेता अतिथि की तरह उपस्थिति जताने में विश्वास रखते हैं। 

फिल्म आंधी में गुलजार ने सत्ताधारी राजनेताओं के लिए लिखा था-सलाम कीजिए, आली जनाब आए हैं। कांग्रेस ने विपक्ष में रहते हुए इसे अपनाया है। अदृश्य कांग्रेस ट्विटर पर नजर आती है। नेताओं ने पार्टी और राजनीति को सीएसआर गतिविधियों में तब्दील कर दिया है! राजनीति में सफलता के लिए विचारों और एक संस्थान की जरूरत होती है। राहुल गांधी ने जुलाई, 2019 में अध्यक्षता से इस्तीफा दे दिया था। तब से सोनिया गांधी की अंतरिम अध्यक्षता में पार्टी काम करती है, पर फैसले और निर्देश राहुल और प्रियंका द्वारा लिए जा रहे हैं। 

जब 23 असंतुष्ट नेताओं ने पार्टी में चुनाव और पुनर्गठन की मांग उठाई, तो उन्हें गलत बताया गया और सोशल मीडिया पर उनका मजाक उड़ाया गया। रविवार को कार्यसमिति ने अध्यक्ष पद और संगठनात्मक चुनाव का वादा फिर दोहराया। जैसे-जैसे पार्टी अप्रासंगिक होती जा रही है, इसके वादे धूमिल पड़ते जा रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र को विचारों और तर्कों की प्रतिस्पर्धी राजनीति की, मुद्दों पर पूर्णकालिक जुड़ाव की जरूरत है, नारों की आंधी को ट्वीट करने की नहीं। कांग्रेस को इस भ्रम से बाहर निकलना चाहिए कि मतदाता एक दिन उसे सत्ता में वापस लाएंगे। मतदाता पहले से ही कहीं और देख रहे हैं।



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