Doctor’s Day Exclusive: सामाजिक-पारिवारिक चुनौतियों के साथ बढ़ते हिंसा के मामले, फिर ‘क्यों बनूं डॉक्टर’?


एक शिशु को दुनिया में लाने के लिए मां के साथ ही एक डॉक्टर की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। महिला के गर्भ में जैसे ही शिशु पलना शुरू करता है, डॉक्टर मां और बच्चे दोनों की सुरक्षा के लिए प्रयास करने लगते हैं। बच्चे के जन्म से लेकर सेहत से जुड़े हर पड़ाव पर डाॅक्टर उनके साथ रहते हैं। 

पहले के दौर में वैद्य और दाई हुआ करते थे, जो अपने ज्ञान और अनुभवों से मरीज का उपचार करते थे। लेकिन अब वर्षों की मेहनत और पढ़ाई के बाद डॉक्टर की डिग्री मिलती है। जीवन की रक्षा का वचन लेने के बाद वह डॉक्टर जब कार्यक्षेत्र पर उतरता है तो उसे न केवल गंभीर से गंभीर बीमारी और मरीजों के दर्द का सामना करना पड़ता है, बल्कि कई बार मरीजों के परिवार की उग्रता और बदजुबानी भी झेलनी पड़ती है। जिन डॉक्टरों को भगवान का रूप माना जाता था, उन्हीं डॉक्टरों को संघर्ष का भी सामना करना पड़ता है।

पिछले कुछ वर्षों में डॉक्टरों की स्थिति में बहुत बदलाव आया, अब उनके लिए मरीजों को ठीक करने के साथ खुद की सुरक्षा करते रहना भी बड़ा चैलेंज बनता जा रहा है। ए दिन किसी हॉस्पिटल या क्लीनिक में डॉक्टर की पिटाई का मामला चर्चा में रहता है। दूसरों की जान बचाने वाले चिकित्सकों के लिए देश में कोई कानूनी सुरक्षा नहीं। हम डाॅक्टरों के सम्मान में एक जुलाई को राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस मनाते हैं, लेकिन क्या वही चिकित्सक आज के दौर में सुरक्षित हैं? हिंसा के अलावा कई अन्य कारणों से भी डॉक्टरों में तनाव बढ़ रहा है।

आजकल डॉक्टर शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक हर स्तर पर दबाव झेल रहे हैं। राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस पर जानिए डॉक्टरों की मुश्किलों और बढ़ती हिंसा के पीछे की वजह क्या है? इन  विपरीत परिस्थितियों से उपजा बड़ा सवाल यह है- आखिर क्यों बनूं डॉक्टर?

डाॅक्टर के खिलाफ हिंसा के बढ़ते मामले


हम डाक्टरों के सम्मान में 1 जुलाई को नेशनल डॉक्टर्स डे मनाते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में डॉक्टर्स की स्थिति खतरे में हैं।

 

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 75 फीसदी डॉक्टरों को अपने कार्य स्थल पर किसी न किसी तरह की हिंसा का सामना करना पड़ा। मरीज या उनके परिवार के लोग कभी भी डाॅक्टरों पर भड़क जाते हैं। ऊंची आवाज में बात करते हैं, अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं, धमकी देते हैं और हाथ तक उठा देते हैं।


कोविड काल में जहां डॉक्टरों ने अपनी जान की परवाह किए बिना लगातार मरीजों की सेवा की तो उन्हीं दिनों में डॉक्टरों के साथ सबसे ज्यादा हिंसा के मामले भी सामने आए। कोविड वार्ड में कई मरीजों ने डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के साथ दुर्व्यवहार किया। जो मेडिकल टीम कोविड जांच के लिए फील्ड पर उतरी, उन्हें पिटाई और पथराव झेलना पड़ा।

डाॅक्टर के तनाव को नहीं समझते मरीज

डॉक्टरों के साथ होने वाली हिंसा पर मोहम्मद अरशद (पीजी रेजिडेंट, मनश्चिकित्सा विभाग) कहते हैं हम अगर डॉक्टर बने हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि हम मरीज या उनके अटेंडेंट से मार खाने के लिए काम कर रहे हैं। एक डॉक्टर कई दिनों तक बिना सोए काम करता है। ऐसे में डॉक्टर पर मानसिक दबाव कितना होता है, ये बात आम लोगों को नहीं पता होती।

इसी मेंटल प्रेशर के साथ वह रोज मरीजों और उनके तीमारदारों को डील करते हैं।

हमारे लिए मरीजों का इलाज करना सिर्फ हमारे लिए पेशेवर काम नहीं है, यह भावनात्मक संतुष्टि भी देता है। मरीज को ठीक करने के लिए हम जी जान लगा देते हैं, ऐसे में बिना कुछ सोचे-समझे हमपर गुस्सा निकालना कहां जायज है? हमारी भी एक सीमा होती है, हम ईश्वर तो नहीं हैं न।

हिंसा के कारण डॉक्टरों की इच्छाशक्ति पर होता है नकारात्मक असर

लखनऊ स्थित एक चिकित्सा संस्थान में जूनियर रेजिडेंट डाॅ. अरफुल खान के मुताबिक, समाज में अब इतनी नकारात्मकता आ गई है कि लोगों को सकारात्मक चीजें दिखती ही नहीं। जैसे जहां मैं काम कर रहा हूं, वहां ओपीडी मुफ्त है लेकिन फिर भी बहुत सारे मरीजों का रवैया डॉक्टरों के साथ सही नहीं होता, फिर भी डॉक्टर अपनी ड्यूटी करता रहता है। लेकिन घंटों लगातार काम करने के बाद अगर कोई मरीज या तीमारदार डॉक्टर पर हाथ उठा देता है तो इससे डॉक्टर का दिल टूट जाता है।

वह जिस आत्मसंतुष्टि के लिए इतनी मेहनत कर रहा होता है, वह खत्म होने लगती है। इस तरह की हरकतों के कारण डॉक्टर के काम करने की इच्छा मर जाती है, इससे सीधा नुकसान समाज का ही है।

डाॅक्टरों पर काम का बढ़ता बोझ

हमारे हेल्थ सिस्टम में अभी बेहद सुधार की आवश्यकता है। हर डॉक्टर पर मरीजों की संख्या का लोड इतना ज्यादा होता है, जिसके कारण डाॅक्टरों पर बहुत दबाव आ जाता है। काम के प्रेशर के साथ परिवार के लिए समय निकालना और कुछ दबाव अथॉरिटी स्तर से भी होते हैं। बढ़ते दबाव, हिंसा के बीच आलम यह है कि डॉक्टर्स अब अपने बच्चों को डॉक्टर बनाने से कतरा रहे हैं।

बिना जाने डाॅक्टर पर आरोप लगाते हैं लोग 

डॉ. स्वप्निल श्रीवास्तव (एसोसिएट प्रोफेसर, फार्माकोलॉजी) कहते हैं, भारत में डॉक्टरों की जो स्थिति हो रही है, उसमें हर डाॅक्टर दबाव में रहता है। इस दबाव में आप मरीजों का इलाज सही मनोस्थिति से कैसे करेंगे? पढ़ाई से लेकर प्रेक्टिस तक, हर तरफ अलग-अलग प्रकार की चुनौतियां हैं। डॉक्टर भी इंसान है, जब वह सब्जी या कपड़े की दुकान पर जाता है तो उसे भी पैसे देकर ही चीजें मिलती हैं। काम के हिसाब से आर्थिक लाभ भी चुनौती रहती है।

इन सब दबावों के बीच जिस मरीज का आप इलाज कर रहे होते हैं उसके परिजन जब मारपीट पर उतर आते हैं तो यह निश्चित ही हतोत्साहित करने वाली स्थिति होती है। इसी वजह से डॉक्टर नहीं चाहते कि उनके परिवार के बच्चे डॉक्टर बने। आलम यह आने वाला है कि देश में पहले से ही डॉक्टरों की कमी है और अगर नए लोग इस पेशे में रुचि नहीं दिखाएंगे तो हालात और भी खराब हो सकते हैं।

आर्थिक दबाव के कारण विदेशों में काम करने पर मजबूर डॉक्टर  

एक रेजिडेंट डॉक्टर के ऊपर काम का बहुत प्रेशर होता है। उनके पास कई मरीज होते हैं। वह 24 घंटे में कभी कभी 4 से 5 घंटे की ही नींद ले पाते हैं, लेकिन उनकी आय बहुत कम होती है। ऐसे में डॉक्टर पर तनाव अधिक बढ़ जाता है। उन्हें काम करने के साथ ही परिवार को भी संभालना होता है। 

डाॅक्टरों के विदेश जाने से हमारे देश का नुकसान 

डॉक्टर अरशद खान कहते हैं कि डॉक्टर्स बहुत मेहनत करके अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करते हैं लेकिन जब उन पर आर्थिक दबाव बनता है तो वह देश छोड़कर बाहर चले जाते हैं। इसी वजह से हमारे देश के टैलेंट और काबिलियत का फल, हमारे ही देश के लोगों को नहीं मिल पाता है। एक डॉक्टर जितनी मेहनत करता है,उसे उस हिसाब से सैलरी बहुत कम होती है। अमेरिका जैसे देशों में कई भारतीय डॉक्टर काम करने को मजबूर हैं, इससे हमारे देश को बहुत नुकसान हो रहा है।

डाॅ. अरफुल खान कहते हैं कि हर डॉक्टर सिर्फ पैसों के लिए काम नहीं करता लेकिन डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस की पढ़ाई में साढ़े पांच साल लग जाते हैं। उसके पहले एमबीबीएस की तैयारी करना, नीट पीजी के लिए तैयारी करना, जिसमें हमारा दो साल लग जाता है। फिर तीन साल की एमडी, कुछ लोग उसके बाद तीन साल का डीएम करते हैं। कुल मिलाकर 10 से 12 साल की पढ़ाई करने के बाद अगर एक इंसान ये उम्मीद करता है कि उसकी सैलरी कम से कम उतनी हो, जिससे उसकी लाइफ आसान हो जाए।

डॉक्टर दुर्व्यवहार का कैसे करते हैं सामना?

जब किसी डॉक्टर के साथ मरीज या तीमारदार बदजुबानी करता है, तब भी डॉक्टर विनम्रता से ही बात करता है। इलाज के साथ ही उन्हें इसकी भी ट्रेनिंग दी जाती है। डॉक्टर्स के मुताबिक एमबीबीएस के दूसरे साल से डॉक्टर मरीज से मिलने लगते हैं। क्लीनिकल ट्रेनिंग के दौरान वह मरीजों से सिर्फ बात करते हैं। उनकी बीमारी के बारे में जानते हैं, लेकिन जब फाइनल ईयर के बाद डॉक्टर इंटर्नशिप में आते हैं और सीनियर डॉक्टर के साथ काम करना शुरू करते हैं तो उन्हें सिखाया जाता है कि ऐसे मरीजों या उनके परिजनों से कैसे बर्ताव करना है। 

बताया जाता है कि वह कितना भी गुस्सा करें, लेकिन एक डॉक्टर को आराम से बात करनी है। अगर आप शांत होते हैं और उन्हें प्यार से समझाते हैं तो मरीज की आधी परेशानी डॉक्टर के व्यवहार से ही दूर हो जाती है। धीरे धीरे अनुभव के साथ हम मरीजों के गुस्से को संभालना सीख जाते हैं।

डाॅक्टरों की सुरक्षा की हो व्यवस्था

डॉ अरशद कहते है कि भले ही हमें मेडिकल की ट्रेनिंग के दौरान ये बताया जाता है कि मरीज या तीमारदार के साथ हमें बहुत विनम्र रहना चाहिए। लेकिन जब ये दुर्व्यवहार हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो 24 घंटे काम करने वाले डॉक्टर के साथ ऐसा व्यवहार शर्मनाक और बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। इसलिए हर अस्पताल और डिपार्टमेंट में डाॅक्टरों के लिए अच्छी सिक्योरिटी की व्यवस्था की जानी चाहिए, जिसकी जिम्मेदारी काबिल लोगों के हाथों में हो ताकि डॉक्टर भी ठंडे दिमाग से सुकून के साथ काम कर सके। 



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