भरोसे पर टिकी मैत्री : भारत-नेपाल संबंधों में आता सुधार, ‘बिग ब्रदर’ रवैये को त्यागने की जरूरत पर जोर


सार

दिल्ली और काठमांडू के पूर्व राजनयिक कहते हैं कि भारत को अपने दशकों पुराने दोषपू्र्ण रवैये पर पुनर्विचार करना चाहिए, जो इस हिमालयी देश में भारत-विरोधी भावनाओं को पैदा करने के लिए जिम्मेदार था, क्योंकि इसने भू-राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं पर ध्यान ही नहीं दिया।

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भारत-नेपाल संबंधों की वास्तविक नींव 1950 में मैत्री संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ रखी गई थी, जिसमें निरंतर प्रगाढ़ता देखी गई, लेकिन 2015 में आए नए संविधान में तराई के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए नेपाल पर दबाव बनाने की खातिर भारत द्वारा की गई नाकेबंदी के बाद रिश्तों में खटास आ गई। इस हिमालयी देश के विभिन्न शासनों ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाए रखे, लेकिन भारत के साथ उसके रिश्ते तब खराब हुए, जब केपीएस ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार ने नया नक्शा जारी किया, जिससे लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा को नेपाल के क्षेत्र के रूप में दिखाया गया। 

भारत ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और चेतावनी देने के अलावा इसे एकतरफा कार्रवाई बताया। इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों लुंबिनी की यात्रा की थी, जो उनकी पांचवीं नेपाल यात्रा थी। इससे पहले भी 2018 में उन्होंने जनकपुर धाम की यात्रा की थी। भारत और नेपाल के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए हैं, जो भविष्य में संबंधों को बेहतर बनाएंगे। इनमें 79.12 अरब रुपये की लागत वाली एरिन-वन-वी जल विद्युत परियोजना भी शामिल है। 

नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ भारत केसंबंधों को कमजोर करने के लिए चीन का कारक जिम्मेदार रहा है, इसलिए चीन को मात देने के लिए, जो अमेरिका की जगह महाशक्ति देश बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए है, भारत को चतुर कूटनीति का विकल्प चुनना चाहिए। ऊर्जा क्षेत्र में भविष्य के संयुक्त सहयोग की नींव रखना तथा देउबा और मोदी के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद दोनों पक्षों के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर दोनों देशों में बिजली की मांग को पूरा करने के लिहाज से दूरगामी फैसला है। 

देउबा ने वेस्ट सेती हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के विकास के लिए भारत की इच्छुक कंपनियों को भी आमंत्रित किया है। दोनों प्रधानमंत्रियों ने पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना को प्राथमिकता के साथ लेने पर सहमति व्यक्त की है, जो बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान कर स्थानीय लोगों की उन्नति में मदद कर सकती है। एक और पहल भविष्य के लिहाज से लाभप्रद होगी, क्योंकि दोनों पक्षों ने बुद्ध के जन्मस्थान लुंबिनी और कुशीनगर के बीच सिस्टर सिटी संबंध स्थापित करने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमति व्यक्त की है, जहां बुद्ध ने महाप्रयाण किया था। 

देउबा के प्रयास भारत की समान भागीदारी वाली वित्तीय और तकनीकी सहायता से जलविद्युत परियोजनाओं के जरिये विकास सुनिश्चित करने की संप्रभुता और दायित्व से निर्धारित हैं। विश्लेषकों के मुताबिक, नेपाल के विकास कार्यक्रमों में मदद के लिए अगले दो साल में काठमांडू को 56 अरब नेपाली रुपये की बड़ी सहायता घोषणा के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते तेजी से बढ़ रहे थे। लेकिन उसके बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए नेपाल के साथ बीस समझौते किए। 

इसके अलावा मोदी सरकार ने 2015 में जो नाकाबंदी की, उससे नेपाली जनता नई दिल्ली के खिलाफ हो गई। भारत का उद्देश्य तराई क्षेत्र (बिहार से सटे) के नागरिकों की मदद के लिए नेपाल सरकार पर दबाव बनाना था, जो उस समय बनाए जा रहे संविधान में अधिक हिस्सेदारी चाहते थे। नेपाल को भारत से अलग करने की चीन की योजना का मुकाबला करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी धार्मिक कूटनीति को आगे बढ़ाना पसंद किया, जिसे उन्होंने 2018 में सीता के गृह स्थान जनकपुर की यात्रा के जरिये शुरू की थी, ताकि नेपाल-भारत द्विपक्षीय संबंधों को ऊर्जा के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। 

जनकपुर की अपनी पूर्व यात्रा को याद कर हुए मोदी ने लुंबिनी में कहा भी कि ‘नेपाल के बिना हमारे राम अधूरे हैं, लेकिन मुझे पता है कि आज जब भारत में एक बहुत बड़ा मंदिर बन रहा है, तब नेपाल के लोग भी उतने ही खुश हैं।’ बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर अपने 20 मिनट के संबोधन में मोदी ने तब कहा था, भारत और नेपाल की हमेशा से मजबूत होती दोस्ती और हमारी निकटता से पूरी मानवता को मौजूदा दौर में उभरने वाली वैश्विक परिस्थितियों में लाभ होगा। नेपाल के प्रधानमंत्री देउबा भारत को निकट पड़ोसी और विश्वस्त मित्र बता रहे हैं। 

लुंबिनी में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि वह भारत स्थित बोधगया, सारनाथ और कुशीनगर को शामिल करते हुए बुद्ध सर्किट विकसित करने के लिए उत्सुक हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह देउबा और उनके भारतीय समकक्ष नरेंद्र मोदी की आम धारणा थी, जो विगत अप्रैल में बिजली क्षेत्र में सहयोग पर एक ‘संयुक्त विजन स्टेटमेंट’ के लिए सहमत हुए थे, जो इस ढांचे के तहत बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल (बीबीआईएन) जैसे सहयोगी देशों को शामिल कर बिजली क्षेत्र में विस्तार पर आधारित है और जो इन देशों के बीच परस्पर सहमति से होगा। 

विजन स्टेटमेंट के अनुसार, दोनों पक्ष नेपाल में बिजली उत्पादन परियोजनाओं के दोहन और विकास पर सहयोग को मजबूत करने पर सहमत हुए हैं और जो दो पड़ोसियों के बीच संबंधों को और मजबूत करता है। कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि नेपाल के प्रति भारत की विदेश नीति विशेष रूप से बड़े भाई की तरह रही है, जिसने नेपाल में भारत-विरोधी भावनाएं पैदा करने में योगदान दिया था और जिस पर भविष्य में ‘पुनर्विचार’ की आवश्यकता है, ताकि उसकी संप्रभुता की रक्षा के अलावा समानता प्रदान की जा सके, जिससे हिमालयी देश में आम लोगों की प्रशंसा मिले। 

दिल्ली और काठमांडू के पूर्व राजनयिक कहते हैं कि भारत को अपने दशकों पुराने दोषपू्र्ण रवैये पर पुनर्विचार करना चाहिए, जो इस हिमालयी देश में भारत-विरोधी भावनाओं को पैदा करने के लिए जिम्मेदार था, क्योंकि इसने भू-राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं पर ध्यान ही नहीं दिया। वे अपनी राय में एकमत हैं कि अधिकांश राजनेताओं और आम लोगों के बीच भारत-विरोधी भावनाओं की उत्पत्ति राणा शासन के अलावा हमारे देश की विदेश नीति से निपटने वाले लोगों, राजनेताओं और नौकरशाहों के ‘बिग ब्रदर’ रवैये से हुई है, जिसे सुधारा जाना चाहिए।

विस्तार

भारत-नेपाल संबंधों की वास्तविक नींव 1950 में मैत्री संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ रखी गई थी, जिसमें निरंतर प्रगाढ़ता देखी गई, लेकिन 2015 में आए नए संविधान में तराई के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए नेपाल पर दबाव बनाने की खातिर भारत द्वारा की गई नाकेबंदी के बाद रिश्तों में खटास आ गई। इस हिमालयी देश के विभिन्न शासनों ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाए रखे, लेकिन भारत के साथ उसके रिश्ते तब खराब हुए, जब केपीएस ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार ने नया नक्शा जारी किया, जिससे लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा को नेपाल के क्षेत्र के रूप में दिखाया गया। 

भारत ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और चेतावनी देने के अलावा इसे एकतरफा कार्रवाई बताया। इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों लुंबिनी की यात्रा की थी, जो उनकी पांचवीं नेपाल यात्रा थी। इससे पहले भी 2018 में उन्होंने जनकपुर धाम की यात्रा की थी। भारत और नेपाल के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए हैं, जो भविष्य में संबंधों को बेहतर बनाएंगे। इनमें 79.12 अरब रुपये की लागत वाली एरिन-वन-वी जल विद्युत परियोजना भी शामिल है। 

नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ भारत केसंबंधों को कमजोर करने के लिए चीन का कारक जिम्मेदार रहा है, इसलिए चीन को मात देने के लिए, जो अमेरिका की जगह महाशक्ति देश बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए है, भारत को चतुर कूटनीति का विकल्प चुनना चाहिए। ऊर्जा क्षेत्र में भविष्य के संयुक्त सहयोग की नींव रखना तथा देउबा और मोदी के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद दोनों पक्षों के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर दोनों देशों में बिजली की मांग को पूरा करने के लिहाज से दूरगामी फैसला है। 

देउबा ने वेस्ट सेती हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के विकास के लिए भारत की इच्छुक कंपनियों को भी आमंत्रित किया है। दोनों प्रधानमंत्रियों ने पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना को प्राथमिकता के साथ लेने पर सहमति व्यक्त की है, जो बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान कर स्थानीय लोगों की उन्नति में मदद कर सकती है। एक और पहल भविष्य के लिहाज से लाभप्रद होगी, क्योंकि दोनों पक्षों ने बुद्ध के जन्मस्थान लुंबिनी और कुशीनगर के बीच सिस्टर सिटी संबंध स्थापित करने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमति व्यक्त की है, जहां बुद्ध ने महाप्रयाण किया था। 

देउबा के प्रयास भारत की समान भागीदारी वाली वित्तीय और तकनीकी सहायता से जलविद्युत परियोजनाओं के जरिये विकास सुनिश्चित करने की संप्रभुता और दायित्व से निर्धारित हैं। विश्लेषकों के मुताबिक, नेपाल के विकास कार्यक्रमों में मदद के लिए अगले दो साल में काठमांडू को 56 अरब नेपाली रुपये की बड़ी सहायता घोषणा के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते तेजी से बढ़ रहे थे। लेकिन उसके बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए नेपाल के साथ बीस समझौते किए। 

इसके अलावा मोदी सरकार ने 2015 में जो नाकाबंदी की, उससे नेपाली जनता नई दिल्ली के खिलाफ हो गई। भारत का उद्देश्य तराई क्षेत्र (बिहार से सटे) के नागरिकों की मदद के लिए नेपाल सरकार पर दबाव बनाना था, जो उस समय बनाए जा रहे संविधान में अधिक हिस्सेदारी चाहते थे। नेपाल को भारत से अलग करने की चीन की योजना का मुकाबला करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी धार्मिक कूटनीति को आगे बढ़ाना पसंद किया, जिसे उन्होंने 2018 में सीता के गृह स्थान जनकपुर की यात्रा के जरिये शुरू की थी, ताकि नेपाल-भारत द्विपक्षीय संबंधों को ऊर्जा के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। 

जनकपुर की अपनी पूर्व यात्रा को याद कर हुए मोदी ने लुंबिनी में कहा भी कि ‘नेपाल के बिना हमारे राम अधूरे हैं, लेकिन मुझे पता है कि आज जब भारत में एक बहुत बड़ा मंदिर बन रहा है, तब नेपाल के लोग भी उतने ही खुश हैं।’ बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर अपने 20 मिनट के संबोधन में मोदी ने तब कहा था, भारत और नेपाल की हमेशा से मजबूत होती दोस्ती और हमारी निकटता से पूरी मानवता को मौजूदा दौर में उभरने वाली वैश्विक परिस्थितियों में लाभ होगा। नेपाल के प्रधानमंत्री देउबा भारत को निकट पड़ोसी और विश्वस्त मित्र बता रहे हैं। 

लुंबिनी में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि वह भारत स्थित बोधगया, सारनाथ और कुशीनगर को शामिल करते हुए बुद्ध सर्किट विकसित करने के लिए उत्सुक हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह देउबा और उनके भारतीय समकक्ष नरेंद्र मोदी की आम धारणा थी, जो विगत अप्रैल में बिजली क्षेत्र में सहयोग पर एक ‘संयुक्त विजन स्टेटमेंट’ के लिए सहमत हुए थे, जो इस ढांचे के तहत बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल (बीबीआईएन) जैसे सहयोगी देशों को शामिल कर बिजली क्षेत्र में विस्तार पर आधारित है और जो इन देशों के बीच परस्पर सहमति से होगा। 

विजन स्टेटमेंट के अनुसार, दोनों पक्ष नेपाल में बिजली उत्पादन परियोजनाओं के दोहन और विकास पर सहयोग को मजबूत करने पर सहमत हुए हैं और जो दो पड़ोसियों के बीच संबंधों को और मजबूत करता है। कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि नेपाल के प्रति भारत की विदेश नीति विशेष रूप से बड़े भाई की तरह रही है, जिसने नेपाल में भारत-विरोधी भावनाएं पैदा करने में योगदान दिया था और जिस पर भविष्य में ‘पुनर्विचार’ की आवश्यकता है, ताकि उसकी संप्रभुता की रक्षा के अलावा समानता प्रदान की जा सके, जिससे हिमालयी देश में आम लोगों की प्रशंसा मिले। 

दिल्ली और काठमांडू के पूर्व राजनयिक कहते हैं कि भारत को अपने दशकों पुराने दोषपू्र्ण रवैये पर पुनर्विचार करना चाहिए, जो इस हिमालयी देश में भारत-विरोधी भावनाओं को पैदा करने के लिए जिम्मेदार था, क्योंकि इसने भू-राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं पर ध्यान ही नहीं दिया। वे अपनी राय में एकमत हैं कि अधिकांश राजनेताओं और आम लोगों के बीच भारत-विरोधी भावनाओं की उत्पत्ति राणा शासन के अलावा हमारे देश की विदेश नीति से निपटने वाले लोगों, राजनेताओं और नौकरशाहों के ‘बिग ब्रदर’ रवैये से हुई है, जिसे सुधारा जाना चाहिए।



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