उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को देखते हुए मंगलवार को भाजपा और समाजवादी पार्टी ने अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया। भाजपा ने लड़कियों को स्कूटी देने, लव जिहाद पर कानून बनाने और किसानों को मुफ्त बिजली देने पर दांव लगाया है, तो समाजवादी पार्टी ने किसानों को मुफ्त बिजली-खाद, कर्जमाफी, एक करोड़ नौकरियां देने और महिलाओं के लिए पूरी शिक्षा मुफ्त करने के साथ नौकरियों में एक तिहाई आरक्षण देने का वादा किया है। उत्तर प्रदेश पर लगभग 6.53 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है, और उसकी कर्ज लेने की क्षमता लगभग समाप्त हो चुकी है। देश के सभी राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों को मिलाकर यह कर्ज लगभग 70 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि राजनीतिक दल इन वायदों को कैसे पूरा करेंगे? और जनता इन वायदों पर कितना भरोसा करती है?
प्रसिद्ध वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर राजनीतिक दलों के द्वारा दिए जाने वाले इन मुफ्त की घोषणाओं पर रोक लगाने की मांग की है। उन्होंने अपनी याचिका में इसे संविधान के अनुच्छेद 14, 162, 266(3) और 282 का उल्लंघन बताया है। उन्होंने मुफ्त की घोषणाएं करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने और उनका चुनाव चिन्ह जब्त करने की मांग की है। सर्वोच्च अदालत ने केंद्र से इस पर एक महीने के अंदर जवाब देने का निर्देश दिया है। केंद्र ने अभी तक अपना जवाब दाखिल नहीं किया है।
भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ला ने अमर उजाला से कहा कि यदि उनकी पार्टी की तरह योजनाओं को जमीन पर उतारने की ठोस पहल की जाती है, तो ये घोषणाएं जनता के मन में राजनीतिक दलों के प्रति विश्वसनीयता पैदा करती हैं। इससे राजनीतिक दल समाज के कमजोर वर्गों को आगे बढ़ाने के लिए अपनी नीतियां जनता तक पहुंचाते हैं।
प्रेम शुक्ला ने दावा किया कि भाजपा ने 2017 में जनता से किए गए अपने सभी वादों को पूरा किया है। सरकार बनने के बाद पहली कैबिनेट बैठक में ही किसानों का 36 हजार करोड़ का कर्ज माफ किया गया। शहरों में 24 घंटे और गांव में 18 घंटे तक बिजली उपलब्ध कराई गई। सरकारी क्षेत्र में पांच लाख सरकारी नौकरियों के साथ-साथ निजी क्षेत्र में 1.2 करोड़ रोजगार उपलब्ध कराया गया। उन्होंने कहा कि अपने संकल्पों को पूरा करने के कारण ही भाजपा की जनता के बीच स्वीकार्यता बढ़ रही है।
राजनीतिक विश्लेषक सुनील पांडे ने कहा कि उनका निजी तौर पर उनका मानना है कि जनता घोषणा पत्र में किए गए वादों से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होती है। घोषणा पत्र जारी करने की कई महीने पहले से ही चुनाव प्रचार शुरू हो जाता है और लगभग उसी समय जनता किसे वोट देना है, इस पर अपना अंतिम मन बना चुकी होती है। उन्होंने कहा कि यदि केवल घोषणा पत्रों से चुनाव जीते जाते तो मायावती कभी उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री नहीं बन पातीं क्योंकि बसपा कभी घोषणा पत्र नहीं जारी करती।
बहुत सीमित संख्या में ही ऐसे मतदाता होते हैं जो चुनाव के अंतिम क्षणों में अपना मत निर्धारित करते हैं। ऐसे में उन्हें नहीं लगता कि इन घोषणा पत्रों का कोई बहुत बड़ा असर मतदाताओं के ऊपर पड़ता है। क्योंकि इन घोषणा पत्रों की कोई वैधानिक बाध्यता नहीं होती, इसलिए राजनीतिक दल चुनाव के बाद इन मुद्दों को भूल जाते हैं, इसलिए इसे एक गलत परंपरा समझकर रोक देना चाहिए।
दक्षिण भारत के राज्यों से शुरू हुई यह परंपरा धीरे-धीरे यह उत्तर भारत के राज्यों में फैलती जा रही है। उत्तर प्रदेश और बिहार अपनी कर्ज लेने की क्षमता लगभग खो चुके हैं। कोई आय न होने के बाद भी मुफ्त योजनाओं की घोषणा करना देश के आर्थिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं है। आमदनी की कोई ठोस योजना न होने के बाद भी राजनीतिक दल भारी-भरकम घोषणाएं कर जनता को छलने का कार्य करते हैं।
उन्होंने कहा कि किसी वर्ग विशेष को मुफ्त की योजनाएं देकर जनता की विशेष वर्ग पर टैक्स की का भार डाला जाता है। यह एक गलत परंपरा है। जब तक अपने वायदों पर खरा उतरने की कोई वैधानिक बाधता नहीं तय की जाती राजनीतिक दलों को इस तरह की घोषणाएं करने से सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग को रोक लगाने के बारे में विचार करना चाहिए।
इसकी बजाय राजनीतिक दलों को शिक्षा और स्वास्थ्य पूरी तरह से नि:शुल्क करने और इनकी विश्वस्तरीय गुणवत्ता देने की योजना पेश करनी चाहिए, जिसका लाभ समाज के सभी वर्गों को पूरी तरह उपलब्ध होना चाहिए। यदि सभी नागरिकों को स्वास्थ्य और शिक्षा की चिंता से मुक्त कर दिया जाए तो वह बाकी की चीजें अपने स्तर पर प्राप्त कर सकते हैं और सरकारों पर इसका बोझ नहीं पड़ेगा।