London files Review: न तो लंदन से और न फाइल्स से, ‘लंदन फाइल्स’ का लेना देना किसी से नहीं


लंदन फाइल्स के ओटीटी रिलीज को लेकर मीडिया में काफी सुगबुगाहट थी. संभव है कि इस नाम से मिलती जुलती एक फिल्म अभी बहुचर्चित हुई है इसलिए. या फिर ये भी हो सकता है कि अर्जुन रामपाल का ये ओटीटी डेब्यू था इसलिए. बहरहाल वजह जो भी रही हो, ये वेब सीरीज जिसके 32 से 35 मिनट लम्बे 6 एपिसोड ओटीटी प्लेटफॉर्म वूट पर रिलीज किये गए हैं, बेहतरीन शुरुआत के बाद पूरी तरह पका डालती है. अर्जुन रामपाल के लिए उनका ओटीटी पर पदार्पण कमज़ोर साबित होगा क्योंकि उनके अच्छे अभिनय के बावजूद, इस वेब सीरीज की कहानी इतनी ऊटपटांग है जिस वजह से निर्देशक भी कुछ विशेष नहीं कर पाए हैं. इस वेब सीरीज को देखने का दुष्परिणाम सरदर्द हो सकता है. कहानी में किसी बात पर विश्वास करने का मन ही नहीं होता और दर्शक अजीबोगरीब प्लॉट को देखते देखते सर पकड़ लेता है. लंदन फाइल्स को खोलने से बचेंगे तो बेहतर रहेगा

अर्जुन रामपाल एक पुलिस अफसर हैं जिनका बेटा अपने 14 वे जन्मदिन पर अपने सहपाठियों की गोली मार कर हत्या कर देता है. वहीँ दूसरी ओर पूरब कोहली की बेटी गायब हो जाती है और परिस्थितयां ऐसी बनती हैं कि उसकी हत्या का शक पूरब पर जाता है और उसे जेल हो जाती है. तहकीकात करते करते अर्जुन को पता चलता है कि एक ऐसा पंथ है जिसका उद्देश्य लंदन में कठोर -एंटी इमीग्रेशन कानून का विरोध करने के बहाने अराजकता फैलाना होता है. पूरब कोहली की बेटी ज़िंदा है और पंथ में शामिल हो गयी है. अर्जुन रामपाल किसी तरह इस पंथ तक पहुँचता है और खुद भी इसमें शामिल हो जाता है. इस दौरान पंथ के एक समूह ने एक बड़ी बिल्डिंग पर कब्ज़ा कर लिया, लोगों को बंधक बना लिया होता है और एंटी-इमीग्रेशन कानून वापस लेने की मांग न मानी जाने की स्थिति में बिल्डिंग को बम से उड़ा देने की धमकी दी जाती है. अर्जुन रामपाल पहुँच कर परिस्थितयां संभालता है, सभी लोग आत्मसमर्पण कर देते हैं और किस्सा ख़त्म हो जाता है.

अजीबोगरीब सी पटकथा है. इसका लंदन से सिर्फ इतना सम्बन्ध है कि कहानी लंदन में बसाई गयी है. किसी और देश में बसाई जा सकती थी. फाइल्स का ज़िक्र किया है लेकिन फाइल कुछ नहीं है बल्कि एंटी-इमीग्रेशन लॉ के कागज़ हैं और वो भी दिखावे के तौर पर आते हैं. गोपाल दत्त और प्रतीक पयोधि ने मिल कर इस सीरीज को लिखा है. गोपाल बतौर एक्टर बेहतर हैं बजाये लेखक के क्योंकि एक सरल सी कहानी का अंत एक घुमावदार और पेचीदा तरीके से करने से ये साबित होता है कि लिखने से पहले कोई निर्देशित धारा नहीं थी और बस लिखते गए तो कहानी बन गयी. अर्जुन रामपाल एक कठोर पिता हैं और अपने बेटे को अपनी महत्वकांक्षाओं के बोझ तले पीसे जा रहे हैं ये बात इतनी बाद में आती है कि तब तक उसकी उपयोगिता ही ख़त्म हो चुकी होती है. पूरब कोहली का किरदार कन्फ्यूज्ड है. वो कभी कभी होटलों में रात गुज़ारता है जबकि शहर में उसका घर है. वो शुरू से ही थोड़ा खड़ूस है और न्यूज़ चैनल का एडिटर वाली अकड़ दिखाता रहता है. ऐसे में उसके विवाहेतर सम्बन्ध होना लाज़मी हैं. दुर्भाग्य ऐसा है कि उसकी बेटी तक उसे गुनेहगार समझती है लेकिन असल में ऐसा कुछ है ही नहीं. वो होटल में क्यों रहता है इसका कोई लॉजिक देना ज़रूरी नहीं है. अंडरग्राउंड पंथ क्यों और कैसे जन्म लेता है इसके पीछे कोई कहानी नहीं समझायी गयी है. गोपाल दत्त का किरदार भी अजीब सा है.

अर्जुन रामपाल ने अभिनय तो ठीक किया है लेकिन उनका किरदार अपने ही दुःख से पीड़ित है जिस वजह से उसके काम करने का तरीका समझ नहीं आता. उसे सबूत बड़ी आसानी से मिलते जाते हैं और निष्कर्ष पर भी बिना मेहनत किये पहुँच जाता है. अंडरग्राउंड पंथ में उसके शामिल होने के दृश्य किसी साइकोलॉजिकल फिल्म की तरह बनाने की कोशिश की है जिसमें अर्जुन का अभिनय और निखरता है लेकिन उसके बाद कहानी बिलकुल ही बिगड़ जाती है. एंटी-इमीग्रेशन लॉ के बजाये सारा फोकस पंथ पर डाल दिया जाता है. पूरब कोहली का काम भी अच्छा है और नयी अभिनेत्री मेधा राणा का भी लेकिन इनके किरदारों की परिणीति बहुत ही विचित्र है इसलिए भरोसा करने का दिल नहीं करता. बाकी कलाकारों ने कोई विशेष प्रभाव नहीं डाला है और इसलिए वेब सीरीज में कोई संतुलन नहीं नज़र आता. सपना पबि का रोल एक एपिसोड में ही ख़त्म हो जाता है. स्नेहा खानवलकर का संगीत भी बेतुका है और कहानी में कोई मदद नहीं करता. परीक्षित झा (टब्बर, डी कपल्ड) की एडिटिंग में बहुत कुछ गुंजाईश नज़र आती है क्योंकि थ्रिलर होने के कुछ कुछ सीन से पूरी वेब सीरीज पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ा नहीं है. यही आलम सिनेमेटोग्राफर अरुण कुमार पांडे (पाताल लोक) के काम का भी है. लंदन फिल्माने की कोई कोशिश नहीं की गयी है. ये भी संभव है कि बजट कम होने की वजह से बहुत से चीट शॉट दिखा कर लंदन का माहौल बनाया गया है.

कहने को लंदन फाइल्स एक क्राइम थ्रिलर या साइकोलॉजिकल थ्रिलर के तौर पर दिखाया जा सकता था लेकिन वो इन दोनों ही मामलों में फेल हो जाता है और एक कन्फ्यूज्ड वेब सीरीज की तरह प्रस्तुत किया जाता है. अर्जुन रामपाल अकेले इस वेब सीरीज को नहीं बचा सकते थे. आप आपने समय बचाइए क्योंकि हर फाइल अच्छी फाइल हो ये जरूरी नहीं है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
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Tags: Arjun rampal, Film review, Voot Select

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