Presidential Poll: कांग्रेस ने उठाया आदिवासियों के वनाधिकार का मुद्दा, मुर्मू की दावेदारी के सामने कितना कारगर ये दांव?


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केंद्र सरकार ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर आदिवासी समुदाय के बीच एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। इससे देश के 11 करोड़ से ज्यादा आदिवासी समुदाय के लोगों के बीच पार्टी की पैठ मजबूत हो सकती है, लेकिन भाजपा की इसी दावेदारी के बीच कांग्रेस ने आदिवासियों के वनों पर अधिकार का मुद्दा उठा दिया है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि सरकार ने वनाधिकार कानून में परिवर्तन कर आदिवासी समुदाय के हितों को गंभीर चोट पहुंचाई है, जबकि मुर्मू को प्रतीक बनाकर वह खुद को इन्हीं वर्गों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करना चाहती है। इससे राष्ट्रपति चुनाव के बीच एक बड़ा विमर्श पैदा हो सकता है। 

क्या कहती हैं लोक संघर्ष मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रतिभा शिंदे? 
गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के आदिवासी समुदाय के लोगों के लिए काम करने वाली लोक संघर्ष मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रतिभा शिंदे ने अमर उजाला को बताया कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाये जाने से जनजातीय समुदाय के बीच एक सकारात्मक संदेश गया है, लेकिन इसी के साथ वे गड़े मुर्दे भी उखड़ सकते हैं जिन्हें सरकार अब तक छिपाए रखने में कामयाब रही थी। इसमें ओडिशा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्यों में हुई वे घटनाएं भी शामिल हैं जिनमें पुलिस ने गोलीबारी की और कई आदिवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी। विशाखापत्तनम में हुई घटना आदिवासियों के बीच आज भी बड़ा ज्वलंत मुद्दा है। 

शिंदे के मुताबिक, भाजपा मुर्मू की वह छवि भुनाना चाहती है जिसमें ओडिशा में रहते हुए उन्होंने आदिवासी समुदाय के लिए बड़ा काम किया था। उन्होंने आदिवासियों के कथित धर्मपरिवर्तन के खिलाफ ईसाई मिशनरियों बड़ा अभियान चलाया था। इस तरह भाजपा न केवल आदिवासियों को साधने में सफल हो सकती है, बल्कि ईसाई मिशनरियों के खिलाफ उसके आनुषंगिक संगठनों के कार्यों को इन इलाकों में मजबूती मिल सकती है। शिंदे का मानना है कि इसके साथ जनजातीय समुदाय की वह नाराजगी भी उभर कर सामने आ सकती है कि मुर्मू ने उस समय कोई हस्तक्षेप नहीं किया जब ओडिशा की खानों से आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा था और उन्हीं के जंगलों से उनका अधिकार छीना जा रहा था। आदिवासियों का मानना है कि द्रौपदी मुर्मू उस समय बड़ी शख्सियत बन चुकी थीं। 

2006 में बने वनाधिकार कानून में वन भूमि से संबंधित कोई भी निर्णय आदिवासी समुदाय की एक विशेष कमेटी लिया करती थी। उसकी सहमति के बिना जंगल भूमि पर कोई भी प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं हो सकता था, जबकि बदले कानून में आदिवासियों की भूमिका को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है। आदिवासी समुदाय के बीच यह एक बड़े असंतोष का कारण बना हुआ है। हालांकि, ये मुद्दे कितना राजनीतिक रंग पकड़ते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस इस मुद्दे को कितनी संजीदगी के साथ उठाती है। कांग्रेस ने इस मुद्दे पर भाजपा पर हमला बोलकर अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं, जबकि दूसरी तरफ द्रौपदी मुर्मू के सामने दावेदारी पेश कर रहे यशवंत सिन्हा इस मुद्दे पर खामोश हैं। 

सोची समझी है चुप्पी
राजनीतिक विषयों के टिप्पणीकार धीरेंद्र कुमार कहते हैं कि आदिवासी समुदाय के विषयों पर राजनीतिक दलों की चुप्पी सोची-समझी राजनीतिक रणनीति है। यदि वे मुर्मू की देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर दावेदारी का विरोध करते हैं तो वे जनजातीय समुदाय के बीच खलनायक के तौर पर देखे जा सकते हैं। इसका उन्हें राजनीतिक नुकसान हो सकता है। भाजपा कह सकती है कि वह आदिवासी समुदाय की महिला को सम्मान देना चाहती है जबकि विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं। 

वनाधिकार कानून में परिवर्तन कर आदिवासियों के अधिकारों को चोट पहुंचाने की बात भी विपक्षी दलों के लिए उल्टी पड़ सकती है क्योंकि यह पन्ना खोलते ही कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों की यह सच्चाई सामने आ सकती है कि उनके शासन काल में भी आदिवासी समुदाय के हितों को गंभीर चोट पहुंचाई गई थी। यही कारण है कि राष्ट्रपति चुनाव के पूरे परिदृश्य से यह चर्चा गायब है। यशवंत सिन्हा के पश्चिम बंगाल के जनप्रतिनिधियों के बीच समर्थन के लिए न बुलाए जाने की अटकलों को इन्हीं आधारों पर समझा जा सकता है। 

कितना है जनजातियों का राजनीतिक असर
चुनावी बहस के बीच यह देखना आवश्यक है कि आखिर जनजातीय समुदाय भाजपा के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में आदिवासियों की जनसंख्या 10 करोड़ से कुछ ज्यादा थी। कई राज्यों में अकेले आदिवासियों की जनसंख्या सरकार बनाने-बिगाड़ने में सक्षम है। जनगणना के अनुसार त्रिपुरा में आदिवासियों की संख्या 31.8 प्रतिशत है। इसके अलावा सिक्किम में 33.8 प्रतिशत, मणिपुर में 35.1 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 30.6 प्रतिशत, झारखंड में 26.2 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 22 प्रतिशत और ओडिशा में 22.8 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में इनकी आबादी लगभग 10.5 प्रतिशत है और ये लगभग 15 जिलों में ज्यादा प्रभावी हैं।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी के लगभग 15 प्रतिशत है। राज्य के नौ जिलों में आदिवासी ज्यादा प्रभावी हैं। उनके लिए राज्य की 26 सीटें आरक्षित की गई हैं। दक्षिण गुजरात में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है और 26 आरक्षित सीटों में से 17 इसी एरिया से आती हैं। हालांकि, आदिवासी समुदाय राज्य की 40 के करीब विधानसभा सीटों पर अपना दबदबा रखते हैं। आदिवासियों में भील, गोंड, संथाल, मीणा उरांव, मुंडा और बोडो आदिवासी जातियों का दबदबा है तो अनेक उपजातीय जनजातियां भी इनका समूह बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

रोजगार और बेहतर जीवन की आशा में कई राज्यों से आदिवासियों का पलायन भी हुआ है जिसके कारण कई राज्यों-क्षेत्रों में उनकी आबादी के अनुपात में बदलाव हुआ है, लेकिन इसके बाद भी ज्यादातर राज्यों में उनका राजनीतिक कद बरकरार है। अनेक कारणों से वे सत्ता के बड़े दावेदार भले न बन पाए हों, लेकिन कोई राजनीतिक दल या सरकार उनकी उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों की सरकारों में इनके नेताओं को नेतृत्व देने की कोशिश हुई है, लेकिन इसके बाद भी त्रासदी है कि जनजातीय समुदाय राजनीतिक रूप से बड़े प्रभावशाली वर्ग के रूप में अभी तक अपनी जगह बनाने में नाकाम रहा है। 

आदिवासियों की मांगें
आदिवासियों के लिए लगातार काम कर रहीं प्रतिभा शिंदे बताती हैं कि आदिवासी समूह अपने समुदाय की अलग पहचान के लिए लगातार संघर्ष करते रहे हैं। वे अपने लिए अलग धार्मिक समुदाय के तौर पर गिने जाने की मांग भी करते रहे हैं। आदिवासी एकता परिषद प्रति वर्ष 14-15 जनवरी को ‘आदिवासी एकता सम्मेलन’ कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिनमें ये मांगे दुहराई जाती हैं। पहले उन्हें अन्य धर्म के अंतर्गत पहचान दी जाती थी।

उन्होंने बताया कि आदिवासी स्वयं को इन क्षेत्रों का मूल निवासी मानते हैं और स्वयं को आदिवासी या मूल निवासी के तौर पर ही पहचानना पसंद करते हैं, लेकिन भाजपा उन्हें वनवासी कहने की कोशिश करती है जिसे वे अपने लिए अपमानजनक मानते हैं। जानकारों का मानना है कि इन मुद्दों का हल खोजे बिना केवल प्रतिकात्मक राजनीति के सहारे भाजपा आदिवासी समुदाय में लंबे समय तक दबदबा बनाये नहीं रख सकी।

विस्तार

केंद्र सरकार ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर आदिवासी समुदाय के बीच एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। इससे देश के 11 करोड़ से ज्यादा आदिवासी समुदाय के लोगों के बीच पार्टी की पैठ मजबूत हो सकती है, लेकिन भाजपा की इसी दावेदारी के बीच कांग्रेस ने आदिवासियों के वनों पर अधिकार का मुद्दा उठा दिया है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि सरकार ने वनाधिकार कानून में परिवर्तन कर आदिवासी समुदाय के हितों को गंभीर चोट पहुंचाई है, जबकि मुर्मू को प्रतीक बनाकर वह खुद को इन्हीं वर्गों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करना चाहती है। इससे राष्ट्रपति चुनाव के बीच एक बड़ा विमर्श पैदा हो सकता है। 

क्या कहती हैं लोक संघर्ष मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रतिभा शिंदे? 

गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के आदिवासी समुदाय के लोगों के लिए काम करने वाली लोक संघर्ष मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रतिभा शिंदे ने अमर उजाला को बताया कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाये जाने से जनजातीय समुदाय के बीच एक सकारात्मक संदेश गया है, लेकिन इसी के साथ वे गड़े मुर्दे भी उखड़ सकते हैं जिन्हें सरकार अब तक छिपाए रखने में कामयाब रही थी। इसमें ओडिशा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्यों में हुई वे घटनाएं भी शामिल हैं जिनमें पुलिस ने गोलीबारी की और कई आदिवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी। विशाखापत्तनम में हुई घटना आदिवासियों के बीच आज भी बड़ा ज्वलंत मुद्दा है। 

शिंदे के मुताबिक, भाजपा मुर्मू की वह छवि भुनाना चाहती है जिसमें ओडिशा में रहते हुए उन्होंने आदिवासी समुदाय के लिए बड़ा काम किया था। उन्होंने आदिवासियों के कथित धर्मपरिवर्तन के खिलाफ ईसाई मिशनरियों बड़ा अभियान चलाया था। इस तरह भाजपा न केवल आदिवासियों को साधने में सफल हो सकती है, बल्कि ईसाई मिशनरियों के खिलाफ उसके आनुषंगिक संगठनों के कार्यों को इन इलाकों में मजबूती मिल सकती है। शिंदे का मानना है कि इसके साथ जनजातीय समुदाय की वह नाराजगी भी उभर कर सामने आ सकती है कि मुर्मू ने उस समय कोई हस्तक्षेप नहीं किया जब ओडिशा की खानों से आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा था और उन्हीं के जंगलों से उनका अधिकार छीना जा रहा था। आदिवासियों का मानना है कि द्रौपदी मुर्मू उस समय बड़ी शख्सियत बन चुकी थीं। 

2006 में बने वनाधिकार कानून में वन भूमि से संबंधित कोई भी निर्णय आदिवासी समुदाय की एक विशेष कमेटी लिया करती थी। उसकी सहमति के बिना जंगल भूमि पर कोई भी प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं हो सकता था, जबकि बदले कानून में आदिवासियों की भूमिका को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है। आदिवासी समुदाय के बीच यह एक बड़े असंतोष का कारण बना हुआ है। हालांकि, ये मुद्दे कितना राजनीतिक रंग पकड़ते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस इस मुद्दे को कितनी संजीदगी के साथ उठाती है। कांग्रेस ने इस मुद्दे पर भाजपा पर हमला बोलकर अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं, जबकि दूसरी तरफ द्रौपदी मुर्मू के सामने दावेदारी पेश कर रहे यशवंत सिन्हा इस मुद्दे पर खामोश हैं। 

सोची समझी है चुप्पी

राजनीतिक विषयों के टिप्पणीकार धीरेंद्र कुमार कहते हैं कि आदिवासी समुदाय के विषयों पर राजनीतिक दलों की चुप्पी सोची-समझी राजनीतिक रणनीति है। यदि वे मुर्मू की देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर दावेदारी का विरोध करते हैं तो वे जनजातीय समुदाय के बीच खलनायक के तौर पर देखे जा सकते हैं। इसका उन्हें राजनीतिक नुकसान हो सकता है। भाजपा कह सकती है कि वह आदिवासी समुदाय की महिला को सम्मान देना चाहती है जबकि विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं। 

वनाधिकार कानून में परिवर्तन कर आदिवासियों के अधिकारों को चोट पहुंचाने की बात भी विपक्षी दलों के लिए उल्टी पड़ सकती है क्योंकि यह पन्ना खोलते ही कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों की यह सच्चाई सामने आ सकती है कि उनके शासन काल में भी आदिवासी समुदाय के हितों को गंभीर चोट पहुंचाई गई थी। यही कारण है कि राष्ट्रपति चुनाव के पूरे परिदृश्य से यह चर्चा गायब है। यशवंत सिन्हा के पश्चिम बंगाल के जनप्रतिनिधियों के बीच समर्थन के लिए न बुलाए जाने की अटकलों को इन्हीं आधारों पर समझा जा सकता है। 

कितना है जनजातियों का राजनीतिक असर

चुनावी बहस के बीच यह देखना आवश्यक है कि आखिर जनजातीय समुदाय भाजपा के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में आदिवासियों की जनसंख्या 10 करोड़ से कुछ ज्यादा थी। कई राज्यों में अकेले आदिवासियों की जनसंख्या सरकार बनाने-बिगाड़ने में सक्षम है। जनगणना के अनुसार त्रिपुरा में आदिवासियों की संख्या 31.8 प्रतिशत है। इसके अलावा सिक्किम में 33.8 प्रतिशत, मणिपुर में 35.1 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 30.6 प्रतिशत, झारखंड में 26.2 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 22 प्रतिशत और ओडिशा में 22.8 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में इनकी आबादी लगभग 10.5 प्रतिशत है और ये लगभग 15 जिलों में ज्यादा प्रभावी हैं।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी के लगभग 15 प्रतिशत है। राज्य के नौ जिलों में आदिवासी ज्यादा प्रभावी हैं। उनके लिए राज्य की 26 सीटें आरक्षित की गई हैं। दक्षिण गुजरात में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है और 26 आरक्षित सीटों में से 17 इसी एरिया से आती हैं। हालांकि, आदिवासी समुदाय राज्य की 40 के करीब विधानसभा सीटों पर अपना दबदबा रखते हैं। आदिवासियों में भील, गोंड, संथाल, मीणा उरांव, मुंडा और बोडो आदिवासी जातियों का दबदबा है तो अनेक उपजातीय जनजातियां भी इनका समूह बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

रोजगार और बेहतर जीवन की आशा में कई राज्यों से आदिवासियों का पलायन भी हुआ है जिसके कारण कई राज्यों-क्षेत्रों में उनकी आबादी के अनुपात में बदलाव हुआ है, लेकिन इसके बाद भी ज्यादातर राज्यों में उनका राजनीतिक कद बरकरार है। अनेक कारणों से वे सत्ता के बड़े दावेदार भले न बन पाए हों, लेकिन कोई राजनीतिक दल या सरकार उनकी उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों की सरकारों में इनके नेताओं को नेतृत्व देने की कोशिश हुई है, लेकिन इसके बाद भी त्रासदी है कि जनजातीय समुदाय राजनीतिक रूप से बड़े प्रभावशाली वर्ग के रूप में अभी तक अपनी जगह बनाने में नाकाम रहा है। 

आदिवासियों की मांगें

आदिवासियों के लिए लगातार काम कर रहीं प्रतिभा शिंदे बताती हैं कि आदिवासी समूह अपने समुदाय की अलग पहचान के लिए लगातार संघर्ष करते रहे हैं। वे अपने लिए अलग धार्मिक समुदाय के तौर पर गिने जाने की मांग भी करते रहे हैं। आदिवासी एकता परिषद प्रति वर्ष 14-15 जनवरी को ‘आदिवासी एकता सम्मेलन’ कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिनमें ये मांगे दुहराई जाती हैं। पहले उन्हें अन्य धर्म के अंतर्गत पहचान दी जाती थी।

उन्होंने बताया कि आदिवासी स्वयं को इन क्षेत्रों का मूल निवासी मानते हैं और स्वयं को आदिवासी या मूल निवासी के तौर पर ही पहचानना पसंद करते हैं, लेकिन भाजपा उन्हें वनवासी कहने की कोशिश करती है जिसे वे अपने लिए अपमानजनक मानते हैं। जानकारों का मानना है कि इन मुद्दों का हल खोजे बिना केवल प्रतिकात्मक राजनीति के सहारे भाजपा आदिवासी समुदाय में लंबे समय तक दबदबा बनाये नहीं रख सकी।



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