यूपी का रण : काशी में सिंहासन का शक्ति संग्राम, तीनों लोक से न्यारी नगरी में क्या करवट लेगी सियासत


सार

सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी।
समनि सोक-संताप-पाप-रुज, सकल-सुमंगल-रासी॥
अर्थात इस कलियुग में काशी रूपी कामधेनु का प्रेम सहित जीवनभर सेवन करना चाहिए। यह शोक, संताप, पाप और रोग का नाश करने वाली तथा सब प्रकार के कल्याणों की खान है।
तुलसीदास ने यह पंक्तियां काशी और बाबा विश्वनाथ की महिमा बताने के लिए रची थीं। पर, अब चुनावी संग्राम छह चरण पार करते हुए अपने अंतिम पड़ाव धर्म, कर्म, संस्कृति, साहित्य, सियासत, कला, क्रांति, राग-विराग जैसे अनेक प्रकार की बहुरंगी छटा बिखेरने वाली तीनों लोक से न्यारी काशी की धरती पर पहुंच गया है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार त्रिकोण यंत्र पर स्थित शक्तिपीठ विंध्याचल धाम से काशी के बीच फैली भूमि पर 7 मार्च को निर्णायक संग्राम लड़ा जाना है, तो इस धरती पर चुनावी लड़ाई के कोणों के संयोग पर गोस्वामी तुलसीदास की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं। साथ ही ये पक्तियां जिज्ञासा जगाती हैं कि मोक्ष व शक्ति-सामर्थ्य की यह धरती इस बार किसको सिंहासन देती है, किसको राजसत्ता के मोहपाश में जकड़ती है और किसको मुक्त रखने का फैसला करती है।

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भगवान भूत भावन महादेव के त्रिशूल पर बसी काशी के इर्द-गिर्द बसे मिर्जापुर, गाजीपुर, सोनभद्र, चंदौली, भदोही, आजमगढ़, मऊ और जौनपुर में सातवें चरण का संग्राम होगा। जैसे काशी का निराला अंदाज है, वैसी ही इन जनपदों की भी निराली कथाएं हैं। ऐसा हो भी तो क्यों न? जिस बनारस में लस्सी पी नहीं जाती ‘भिड़ाई जाती है’, ‘आवा रजा लस्सी भिड़ाय लिहल जाए’, ‘भांग छनल कि नाहीं’ और एक-दूसरे का स्वागत ‘गुरू’ शब्द से किया जाता हो…। दिलचस्प यह भी है कि हिंदी जगत में गुरु में भले ही ऊ की मात्रा छोटी होती हो, लेकिन बनारसी ‘गुरू’ बड़ा ही होता है। दुनिया के लिए बाबा विश्वनाथ भले ही ईश्वर हों, लेकिन बनारस वालों के लिए तो वे आध्यात्मिक सखा ही हैं…। ऐसे सखा जिनसे बनारसी रोज चेतना के स्तर का खेल खेलते हैं…। ऐसे लोगों की मस्ती आसपास वालों पर कुछ तो असर डालेगी ही। जिस जमीन पर बड़े-बड़ों को ही नहीं बाबा यानी भगवान शिव तक को भी उलाहना देने से लोग बाज न आते हों…। चोट लग जाने पर बाबा से नाराज हो जाते हों…। मंदिर जाना बंद कर देते हों…। किसी ने पूछ लिया तो धड़ से जवाब देते हों, बाबा होइहें त अपने घरै क…। आजकल बतकही बंद चलत हव… । हम उनसे कह देहले हईं, ‘जब बुलइबा, तबै आइब।’ जहां के लोगों की नजर में मणिकर्णिका घाट पर चिता नहीं, माया की काया जलती है…। जिस जमीन का एक हिस्सा साहित्य के सर्जकों को जन्म देता हो, तो दूसरा सियासत के चेहरों को…। जिस धरती पर कहीं राष्ट्रवाद की धारा बहती हो, तो कहीं वामपंथ या समाजवाद की…। जहां सरोकारी और विशुद्ध सियासत के उदाहरण भी मिल जाते हों और राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ को भी समर्थन मिल जाता हो…। वहां के लोगों के दर्शन व दृष्टि की भविष्यवाणी करने का दम किसमें हो सकता है।

हर तरह के रंग, कहीं सब ढंग से तो कहीं कुछ बेढंग
साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, गणित, कला, संगीत जैसे अनगिनत क्षेत्रों में शीर्ष स्थान बनाने वाली काशी को, अखाड़ों और लंगोट की पहचान भी विचित्र दिखाने के साथ ही विशिष्ट भी बनाती है। तभी तो पं. जवाहरलाल नेहरू को बनारस को पूर्व दिशा का शाश्वत नगर कहना पड़ा। इसीलिए ‘बनारस में सब गुरू, केहू नाहीं चेला’ कहावत चर्चा में चल पड़ी। ‘जिया रजा बनारस’ जैसे तीन शब्दों में आत्मीयता और मिठास जताने वाले शहर बनारस और इसके आसपास की धरती के बारे में कोई एक निष्कर्ष निकालना कठिन है। बनारस तेरे रंग हजार पुस्तक लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार स्व. कमल नयन कहा करते थे कि न गंगा की थाह का अंदाज लगाया सकता है और न बनारसियों की बात का।

  • जहां गंगा अपने आराध्य भगवान शिव के पद पखारने के लिए उत्तरवाहिनी हो जाती हों और जिस भूमि पर भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि जैसी विभूति की तपोस्थली हो…। संस्कृति-सभ्यता एवं सरोकारों का केंद्र जो बनारस देश के विभिन्न प्रांतों की आबादी को बसाकर लघु भारत बनाता है…। जो बनारस विदेशी नागरिकों को भी ज्ञान देकर वैश्विक नगरी का स्वरूप बनाता है, उसी के बगल में चंदौली, आजमगढ़ और मऊ जैसे इलाके बृजेश, अतुल सिंह, मुख्तार, धनंजय जैसे चेहरों के जरिये राजनीति के नए स्वरूप से परिचय कराते हैं । जो धरती भगवान बुद्ध के प्रथम उपदेश का केंद्र बनती है…। जहां गुरु नानक, विद्वान दाराशिकोह तक को आना पड़ता है…। जहां जन्म लेने वाली रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के छक्के छुड़ाकर बुंदेलखंड के स्वाभिमान का प्रतीक बन जाती हैं…। महाराजा छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक के लिए जिस नगरी के विद्वान बुलाए जाते हों…। जहां महात्मा गांधी भी 11 बार आए हों…। जो धरती मदन मोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय जैसे उत्कृष्ट संस्थान की स्थापना करके दुनिया को फक्कड़ लोगों के शहर माने जाने वाले बनारस के सामर्थ्य समझा देती हो…। जिस धरती ने भारत रत्न डॉ. भगवान दास जैसी विभूति को जन्म दिया हो, जिन्होंने आजादी के बाद कोई पद ग्रहण करने के बजाय शिक्षा व समाज की सेवा का मार्ग चुना। जिसने महात्मा गांधी की इच्छा पर महात्मा गांधी पीठ जैसे शिक्षण संस्थान की स्थापना करके दिखा दिया। जिसने महात्मा गांधी की राह पर स्वाधीनता संग्राम के अहिंसक मार्ग का भी समर्थन किया, तो चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को भी गले लगाने में कोई संकोच नहीं किया।
  • इस धरती पर भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद्र, धूमिल, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, नजीर बनारसी जैसे अनगिनत साहित्यकार हुए, तो स्वामी विशुद्धानंद, बिस्मिल्लाह खान, सितारा देवी, गिरजा देवी, पं. किशन महराजए पं. छन्नू लाल मिश्र जैसी गीत, संगीत, नृत्य, वादन की विभूतियां भी हुईं। तभी तो कहते हैं कि यह विविधताओं की धरती है। सारे रंगों और रसों को अपने में समेटे हुए है।

साहित्य व संगीत ही नहीं, सियासी रंग भी खूब भरे
साहित्य, संगीत के साथ सातवें चरण की जमीन पर सियासी रंग भी खूब बिखरे हैं। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता इसी भूमि के निवासी अशोक तिवारी बताते हैं, डॉ. संपूर्णानंद, टीएन सिंह पं. कमलापति त्रिपाठी और राजनाथ सिंह के रूप में इस धरती ने चार मुख्यमंत्री ही नहीं दिए, बल्कि लालबहादुर शास्त्री के रूप में प्रधानमंत्री भी दिया।

  • पं. मदनमोहन मालवीय के रूप में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी वाराणसी से मिला, तो कांग्रेस की एक और राष्ट्रीय अध्यक्ष एनी बेसेंट ने भी वाराणसी को भी अपना ठिकाना बनाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की अपने उत्तराधिकारी की तलाश भी इसी शहर ने पूरी की। यहां के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने तथा बाद में शिक्षक नियुक्त हुए गुरु गोलवलकर को मालवीय जी से मांगकर संघ का सरसंघचालक नियुक्त किया गया। सियासत में समाजवादी और वामपंथी रुझान का रंग भी बनारस सहित इस पूरे इलाके में खूब चटख रहा।
सियासत की बहुरंगी छटा
सात चरण के चुनावी संग्राम की जमीन सियासत की बहुरंगी छटा बिखेरती रही है। सनातन संस्कृति के सरोकारों वाले काशी ने ऊदल, रुस्तम सैटिन, सत्यनारायण सिंह जैसे वामपंथियों को भी समर्थन दिया, तो पूर्वांचल की दरिद्रता और दुश्वारियों का लोकसभा में उल्लेख कर इतिहास बना देने वाले विश्वनाथ गहमरी जैसे सांसद की जमीन गाजीपुर में वामपंथ का झंडा खूब फहराया। बड़ा चर्चित किसान आंदोलन चलाने वाली स्वामी सहजानंद को इस धरती ने जन्म दिया और सियासत में सरजू पांडेय, विश्वनाथ शास्त्री जैसे लोग निकले, तो साहित्य में राही मासूम रजा जैसे कलमकार। राजनीति में अक्सर सुर्खियां बटोरने वाले आजमगढ़ की धरती पर समाजवादी व वामपंथी धारा ऐसी बही कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले मुलायम को भी भा गई। यह दुर्भाग्य ही है कि इस धरती को आतंकवाद से जोड़ा गया, जबकि राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, कैफी आजमी जैसे साहित्यकारों और झारखंडे राय, जयप्रताप सिंह जैसे कामरेडों ने इस धरती को समृद्ध किया। इस धरती पर दबदबा बनाना भाजपा के लिए काफी मुश्किलों भरा रहा है। पर, अयोध्या आंदोलन के बाद कांग्रेसियों, समाजवादियों और वामपंथी चरित्र की इस धरती पर भी धीरे-धीरे भगवा रंग गाढ़ा होने लगा।

विकास पर विरासत का नया प्रयोग कसौटी पर
ऐसे में इस धरती का रण इसलिए भी दिलचस्पी बढ़ा रहा है, क्योंकि इस बार राष्ट्रवाद के शस्त्रों को नए तरीके से सान देकर विरासत और विकास के समीकरण से सनातन संस्कृति के सरोकारों को परवान चढ़ाने वाली यह जमीन प्रयोगशाला के रूप में इस बार कसौटी पर है। कारण, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र काशी भी अयोध्या की तरह बीते पांच साल में मोदी व योगी सरकार के सनातन संस्कृति के सरोकारों के संदेशों को प्रसारित करने का केंद्र बनकर उभरा है। बीते वर्ष दिसंबर में काशी विश्वनाथ धाम के प्रथम चरण के लोकार्पण के साथ प्रधानमंत्री मोदी की गंगा डुबकी, विंध्यधाम कॉरिडोर के निर्माण पर चल रहे काम और सनातन संस्कृति एवं विरासत से जुड़े इस इलाके के अन्य स्थलों के सजाने-संवारने के काम ने इस धरती पर भी हिंदुत्व के वैचारिक अधिष्ठान के एजेंडे को प्रासंगिक बना दिया है। इसलिए अब जब चुनावी संग्राम का अंतिम चरण का निर्णायक लोकतांत्रिक युद्ध काशी और आसपास की धरती पर ही होने जा रहा है, तो विरासत के आधार पर हुए विकास के मॉडल को कसौटी पर कसा जाना तय माना जा रहा है।

इसलिए यह मैदान ज्यादा प्रासंगिक

  • इस मॉडल के राजनीतिक महत्व को ठीक से समझा जा सकता है। नब्बे के दशक में अयोध्या आंदोलन के समय एक नारा लगता था-अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि निर्माण का मार्ग न्यायपालिका ने प्रशस्त कर दिया है। काशी में विश्वनाथ धाम को भव्य रूप दे दिया गया है। इसी के साथ सौ वर्षों बाद अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति की वापसी के उत्सव के सहारे, आध्यात्मिक परिपथ के साथ विरासत परिपथ के निर्माण के साथ मोदी ने कॉरिडोर के लोकार्पण के समय अपनी बातों से सनातन संस्कृति के सरोकारों को निरंतर सहेजने, संवारने का संदेश देने की भी कोशिश की है। ऐसे में जाति एवं धर्म के जटिल समीकरणों वाली इस धरती के चुनावी संग्राम पर लोगों की दिलचस्पी इसलिए भी स्वाभाविक है, क्योंकि तीनों लोकों से न्यारी काशी और उसके इर्द-गिर्द की धरती चुनाव में अप्रत्याशित नतीजे भी देती रही है।
  • अंतिम और निर्णायक चरण में विधानसभा की जिन 54 सीटों के लिए संग्राम होने जा रहा है, उसमें 2017 में भाजपा ने 29, अपना दल की 4 सीटें एवं उस समय गठबंधन में शामिल ओमप्रकाश राजभर की पार्टी की 3 सीटों को मिलाकर 36 जीती थी। 2012 में भाजपा का आजमगढ़ की 10, मऊ की 4, मिर्जापुर की 5, सोनभद्र की 4,भदोही की 3, गाजीपुर की 7 और चंदौली की 4 सीटों पर खाता तक नहीं खुल पाया था। भाजपा को इन 54 सीटों में से सिर्फ 4 मिली थी, जबकि 2012 में सपा को 34 पर जीत मिली थीे। ऐसे में जब पिछली बार भाजपा के रथ पर सवार ओमप्रकाश राजभर इस जमीन पर अखिलेश के साथ भाजपा का रथ रोकने की चुनौती देते हुए खड़े हैं। रमाकांत यादव भी साइकिल पर सवार हो चुके हैं। राजभर को पार्टी से चुनाव लड़ रहे पुत्र व भतीजे के जरिये मुख्तार परिवार भी अखिलेश के पाले में ही हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तक अखिलेश के समर्थन में काशी के रण में आ चुकी हैं। उधर, प्रियंका गांधी भी भाई राहुल के साथ पुरानी जमीन पर पार्टी की जड़ों को खाद-पानी देकर उसे हरा बनाने की कोशिश कर रही हैं। प्रियंका हों या अखिलेश, सभी की तरफ से हिंदुत्व के प्रतीकों पर श्रद्धा के संदेश देने की कोशिश हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ धाम में पूजा-अर्चना की तो अखिलेश यादव ने महामृत्युंजय मंदिर में पूजा करके विजय का आशीर्वाद मांगा। ऐसे में 10 मार्च को घोषित होने वाले नतीजों को लेकर यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यहां से निकलने वाले फैसले किसको क्या स्वाद चखाते हैं।

‘काशी’ ‘शाश्वत नगर’ है इसकी ‘अद्भुत’ ‘राय’।
‘सुबह-शाम’ की ‘बैठकी’ ‘फुटपाथों’ की ‘चाय’।।

विस्तार

भगवान भूत भावन महादेव के त्रिशूल पर बसी काशी के इर्द-गिर्द बसे मिर्जापुर, गाजीपुर, सोनभद्र, चंदौली, भदोही, आजमगढ़, मऊ और जौनपुर में सातवें चरण का संग्राम होगा। जैसे काशी का निराला अंदाज है, वैसी ही इन जनपदों की भी निराली कथाएं हैं। ऐसा हो भी तो क्यों न? जिस बनारस में लस्सी पी नहीं जाती ‘भिड़ाई जाती है’, ‘आवा रजा लस्सी भिड़ाय लिहल जाए’, ‘भांग छनल कि नाहीं’ और एक-दूसरे का स्वागत ‘गुरू’ शब्द से किया जाता हो…। दिलचस्प यह भी है कि हिंदी जगत में गुरु में भले ही ऊ की मात्रा छोटी होती हो, लेकिन बनारसी ‘गुरू’ बड़ा ही होता है। दुनिया के लिए बाबा विश्वनाथ भले ही ईश्वर हों, लेकिन बनारस वालों के लिए तो वे आध्यात्मिक सखा ही हैं…। ऐसे सखा जिनसे बनारसी रोज चेतना के स्तर का खेल खेलते हैं…। ऐसे लोगों की मस्ती आसपास वालों पर कुछ तो असर डालेगी ही। जिस जमीन पर बड़े-बड़ों को ही नहीं बाबा यानी भगवान शिव तक को भी उलाहना देने से लोग बाज न आते हों…। चोट लग जाने पर बाबा से नाराज हो जाते हों…। मंदिर जाना बंद कर देते हों…। किसी ने पूछ लिया तो धड़ से जवाब देते हों, बाबा होइहें त अपने घरै क…। आजकल बतकही बंद चलत हव… । हम उनसे कह देहले हईं, ‘जब बुलइबा, तबै आइब।’ जहां के लोगों की नजर में मणिकर्णिका घाट पर चिता नहीं, माया की काया जलती है…। जिस जमीन का एक हिस्सा साहित्य के सर्जकों को जन्म देता हो, तो दूसरा सियासत के चेहरों को…। जिस धरती पर कहीं राष्ट्रवाद की धारा बहती हो, तो कहीं वामपंथ या समाजवाद की…। जहां सरोकारी और विशुद्ध सियासत के उदाहरण भी मिल जाते हों और राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ को भी समर्थन मिल जाता हो…। वहां के लोगों के दर्शन व दृष्टि की भविष्यवाणी करने का दम किसमें हो सकता है।

हर तरह के रंग, कहीं सब ढंग से तो कहीं कुछ बेढंग

साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, गणित, कला, संगीत जैसे अनगिनत क्षेत्रों में शीर्ष स्थान बनाने वाली काशी को, अखाड़ों और लंगोट की पहचान भी विचित्र दिखाने के साथ ही विशिष्ट भी बनाती है। तभी तो पं. जवाहरलाल नेहरू को बनारस को पूर्व दिशा का शाश्वत नगर कहना पड़ा। इसीलिए ‘बनारस में सब गुरू, केहू नाहीं चेला’ कहावत चर्चा में चल पड़ी। ‘जिया रजा बनारस’ जैसे तीन शब्दों में आत्मीयता और मिठास जताने वाले शहर बनारस और इसके आसपास की धरती के बारे में कोई एक निष्कर्ष निकालना कठिन है। बनारस तेरे रंग हजार पुस्तक लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार स्व. कमल नयन कहा करते थे कि न गंगा की थाह का अंदाज लगाया सकता है और न बनारसियों की बात का।

  • जहां गंगा अपने आराध्य भगवान शिव के पद पखारने के लिए उत्तरवाहिनी हो जाती हों और जिस भूमि पर भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि जैसी विभूति की तपोस्थली हो…। संस्कृति-सभ्यता एवं सरोकारों का केंद्र जो बनारस देश के विभिन्न प्रांतों की आबादी को बसाकर लघु भारत बनाता है…। जो बनारस विदेशी नागरिकों को भी ज्ञान देकर वैश्विक नगरी का स्वरूप बनाता है, उसी के बगल में चंदौली, आजमगढ़ और मऊ जैसे इलाके बृजेश, अतुल सिंह, मुख्तार, धनंजय जैसे चेहरों के जरिये राजनीति के नए स्वरूप से परिचय कराते हैं । जो धरती भगवान बुद्ध के प्रथम उपदेश का केंद्र बनती है…। जहां गुरु नानक, विद्वान दाराशिकोह तक को आना पड़ता है…। जहां जन्म लेने वाली रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के छक्के छुड़ाकर बुंदेलखंड के स्वाभिमान का प्रतीक बन जाती हैं…। महाराजा छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक के लिए जिस नगरी के विद्वान बुलाए जाते हों…। जहां महात्मा गांधी भी 11 बार आए हों…। जो धरती मदन मोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय जैसे उत्कृष्ट संस्थान की स्थापना करके दुनिया को फक्कड़ लोगों के शहर माने जाने वाले बनारस के सामर्थ्य समझा देती हो…। जिस धरती ने भारत रत्न डॉ. भगवान दास जैसी विभूति को जन्म दिया हो, जिन्होंने आजादी के बाद कोई पद ग्रहण करने के बजाय शिक्षा व समाज की सेवा का मार्ग चुना। जिसने महात्मा गांधी की इच्छा पर महात्मा गांधी पीठ जैसे शिक्षण संस्थान की स्थापना करके दिखा दिया। जिसने महात्मा गांधी की राह पर स्वाधीनता संग्राम के अहिंसक मार्ग का भी समर्थन किया, तो चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों को भी गले लगाने में कोई संकोच नहीं किया।
  • इस धरती पर भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद्र, धूमिल, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, नजीर बनारसी जैसे अनगिनत साहित्यकार हुए, तो स्वामी विशुद्धानंद, बिस्मिल्लाह खान, सितारा देवी, गिरजा देवी, पं. किशन महराजए पं. छन्नू लाल मिश्र जैसी गीत, संगीत, नृत्य, वादन की विभूतियां भी हुईं। तभी तो कहते हैं कि यह विविधताओं की धरती है। सारे रंगों और रसों को अपने में समेटे हुए है।


साहित्य व संगीत ही नहीं, सियासी रंग भी खूब भरे

साहित्य, संगीत के साथ सातवें चरण की जमीन पर सियासी रंग भी खूब बिखरे हैं। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता इसी भूमि के निवासी अशोक तिवारी बताते हैं, डॉ. संपूर्णानंद, टीएन सिंह पं. कमलापति त्रिपाठी और राजनाथ सिंह के रूप में इस धरती ने चार मुख्यमंत्री ही नहीं दिए, बल्कि लालबहादुर शास्त्री के रूप में प्रधानमंत्री भी दिया।

  • पं. मदनमोहन मालवीय के रूप में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी वाराणसी से मिला, तो कांग्रेस की एक और राष्ट्रीय अध्यक्ष एनी बेसेंट ने भी वाराणसी को भी अपना ठिकाना बनाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की अपने उत्तराधिकारी की तलाश भी इसी शहर ने पूरी की। यहां के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने तथा बाद में शिक्षक नियुक्त हुए गुरु गोलवलकर को मालवीय जी से मांगकर संघ का सरसंघचालक नियुक्त किया गया। सियासत में समाजवादी और वामपंथी रुझान का रंग भी बनारस सहित इस पूरे इलाके में खूब चटख रहा।

सियासत की बहुरंगी छटा

सात चरण के चुनावी संग्राम की जमीन सियासत की बहुरंगी छटा बिखेरती रही है। सनातन संस्कृति के सरोकारों वाले काशी ने ऊदल, रुस्तम सैटिन, सत्यनारायण सिंह जैसे वामपंथियों को भी समर्थन दिया, तो पूर्वांचल की दरिद्रता और दुश्वारियों का लोकसभा में उल्लेख कर इतिहास बना देने वाले विश्वनाथ गहमरी जैसे सांसद की जमीन गाजीपुर में वामपंथ का झंडा खूब फहराया। बड़ा चर्चित किसान आंदोलन चलाने वाली स्वामी सहजानंद को इस धरती ने जन्म दिया और सियासत में सरजू पांडेय, विश्वनाथ शास्त्री जैसे लोग निकले, तो साहित्य में राही मासूम रजा जैसे कलमकार। राजनीति में अक्सर सुर्खियां बटोरने वाले आजमगढ़ की धरती पर समाजवादी व वामपंथी धारा ऐसी बही कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहने वाले मुलायम को भी भा गई। यह दुर्भाग्य ही है कि इस धरती को आतंकवाद से जोड़ा गया, जबकि राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, कैफी आजमी जैसे साहित्यकारों और झारखंडे राय, जयप्रताप सिंह जैसे कामरेडों ने इस धरती को समृद्ध किया। इस धरती पर दबदबा बनाना भाजपा के लिए काफी मुश्किलों भरा रहा है। पर, अयोध्या आंदोलन के बाद कांग्रेसियों, समाजवादियों और वामपंथी चरित्र की इस धरती पर भी धीरे-धीरे भगवा रंग गाढ़ा होने लगा।

विकास पर विरासत का नया प्रयोग कसौटी पर

ऐसे में इस धरती का रण इसलिए भी दिलचस्पी बढ़ा रहा है, क्योंकि इस बार राष्ट्रवाद के शस्त्रों को नए तरीके से सान देकर विरासत और विकास के समीकरण से सनातन संस्कृति के सरोकारों को परवान चढ़ाने वाली यह जमीन प्रयोगशाला के रूप में इस बार कसौटी पर है। कारण, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र काशी भी अयोध्या की तरह बीते पांच साल में मोदी व योगी सरकार के सनातन संस्कृति के सरोकारों के संदेशों को प्रसारित करने का केंद्र बनकर उभरा है। बीते वर्ष दिसंबर में काशी विश्वनाथ धाम के प्रथम चरण के लोकार्पण के साथ प्रधानमंत्री मोदी की गंगा डुबकी, विंध्यधाम कॉरिडोर के निर्माण पर चल रहे काम और सनातन संस्कृति एवं विरासत से जुड़े इस इलाके के अन्य स्थलों के सजाने-संवारने के काम ने इस धरती पर भी हिंदुत्व के वैचारिक अधिष्ठान के एजेंडे को प्रासंगिक बना दिया है। इसलिए अब जब चुनावी संग्राम का अंतिम चरण का निर्णायक लोकतांत्रिक युद्ध काशी और आसपास की धरती पर ही होने जा रहा है, तो विरासत के आधार पर हुए विकास के मॉडल को कसौटी पर कसा जाना तय माना जा रहा है।

इसलिए यह मैदान ज्यादा प्रासंगिक

  • इस मॉडल के राजनीतिक महत्व को ठीक से समझा जा सकता है। नब्बे के दशक में अयोध्या आंदोलन के समय एक नारा लगता था-अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि निर्माण का मार्ग न्यायपालिका ने प्रशस्त कर दिया है। काशी में विश्वनाथ धाम को भव्य रूप दे दिया गया है। इसी के साथ सौ वर्षों बाद अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति की वापसी के उत्सव के सहारे, आध्यात्मिक परिपथ के साथ विरासत परिपथ के निर्माण के साथ मोदी ने कॉरिडोर के लोकार्पण के समय अपनी बातों से सनातन संस्कृति के सरोकारों को निरंतर सहेजने, संवारने का संदेश देने की भी कोशिश की है। ऐसे में जाति एवं धर्म के जटिल समीकरणों वाली इस धरती के चुनावी संग्राम पर लोगों की दिलचस्पी इसलिए भी स्वाभाविक है, क्योंकि तीनों लोकों से न्यारी काशी और उसके इर्द-गिर्द की धरती चुनाव में अप्रत्याशित नतीजे भी देती रही है।
  • अंतिम और निर्णायक चरण में विधानसभा की जिन 54 सीटों के लिए संग्राम होने जा रहा है, उसमें 2017 में भाजपा ने 29, अपना दल की 4 सीटें एवं उस समय गठबंधन में शामिल ओमप्रकाश राजभर की पार्टी की 3 सीटों को मिलाकर 36 जीती थी। 2012 में भाजपा का आजमगढ़ की 10, मऊ की 4, मिर्जापुर की 5, सोनभद्र की 4,भदोही की 3, गाजीपुर की 7 और चंदौली की 4 सीटों पर खाता तक नहीं खुल पाया था। भाजपा को इन 54 सीटों में से सिर्फ 4 मिली थी, जबकि 2012 में सपा को 34 पर जीत मिली थीे। ऐसे में जब पिछली बार भाजपा के रथ पर सवार ओमप्रकाश राजभर इस जमीन पर अखिलेश के साथ भाजपा का रथ रोकने की चुनौती देते हुए खड़े हैं। रमाकांत यादव भी साइकिल पर सवार हो चुके हैं। राजभर को पार्टी से चुनाव लड़ रहे पुत्र व भतीजे के जरिये मुख्तार परिवार भी अखिलेश के पाले में ही हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तक अखिलेश के समर्थन में काशी के रण में आ चुकी हैं। उधर, प्रियंका गांधी भी भाई राहुल के साथ पुरानी जमीन पर पार्टी की जड़ों को खाद-पानी देकर उसे हरा बनाने की कोशिश कर रही हैं। प्रियंका हों या अखिलेश, सभी की तरफ से हिंदुत्व के प्रतीकों पर श्रद्धा के संदेश देने की कोशिश हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ धाम में पूजा-अर्चना की तो अखिलेश यादव ने महामृत्युंजय मंदिर में पूजा करके विजय का आशीर्वाद मांगा। ऐसे में 10 मार्च को घोषित होने वाले नतीजों को लेकर यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यहां से निकलने वाले फैसले किसको क्या स्वाद चखाते हैं।


‘काशी’ ‘शाश्वत नगर’ है इसकी ‘अद्भुत’ ‘राय’।

‘सुबह-शाम’ की ‘बैठकी’ ‘फुटपाथों’ की ‘चाय’।।



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