मेरा भुगता हुआ दुख-दर्द और डर ही मेरा सिनेमा है – ‘झुंड’ के डायरेक्‍टर नागराज मुंजले की दो टूक


मराठी फिल्म ‘सैराट’ (Sairat Movie) से घर-घर मशहूर हुए लेखक-निर्देशक नागराज पोपटराव मंजुले (Nagraj Manjule) को बतौर डायरेक्‍टर इतनी प्रतिष्ठा मिली कि बॉलिवुड में करण जौहर जैसे फिल्मकार ने उनकी फिल्म की रीमेक ‘धड़क’ बना डाली। दिलचस्प बात यह है कि ऑनर किलिंग पर आधारित ‘सैराट’ को हिंदी ही नहीं और भी कई भाषाओं के दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। अब नागराज मंजुले ‘झुंड’ (Jhund Movie) लेकर आए हैं, जिसमें झुग्गी-झोपड़ी के जरायमपेशा बच्चों के फुटबॉल प्लेयर बनने की कहानी है। ‘नवभारत टाइम्‍स’ से खास बातचीत में नागराज मुंजले ने अपनी फिल्म, अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan), फिल्‍म के कास्ट सिस्टम और प्यार की बेसिक इंस्टिंक्ट पर बात की है।

इससे पहले फुटबॉल पर ‘हिप हिप हुर्रे’ और ‘दे दनादन’ जैसी फिल्में बनी हैं, ‘झुंड’ उन फिल्मों से कितनी अलहदा है?
– कितनी अलग है फिल्म ये तो आप ही लोग देखने के बाद बता सकेंगे, मगर मैं इतना जरूर काग सकता हूं कि ये सिर्फ फुटबॉल पर आधारित फिल्म नहीं है बल्कि ये ह्यूमन स्टोरी है। फुटबॉल खेलने वालों की कहानी है, ये उनके इमोशन, दुख-दर्द और समस्याओं को दर्शाती है। हम सिर्फ इसे फुटबॉल की फिल्म नहीं कह सकते। झुंड का परसेप्शन यहां उन्हीं मायनों में लाया गया है कि ऐसा झुंड, जो थोड़ा बिगड़ैल है, खतरनाक है, बागी है और हो सकता है, ये आप लोगों को नुकसान पहुंचाए। मगर इनकी जर्नी ही फिल्म की कहानी है।

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आप खुद एक विशेष जाति वर्ग से आते हैं, तो आपको अपने परिवेश के कारण कितना सहना पड़ा और आपके सिनेमा पर उसका कितना प्रतिबिंब रहा है?
– मैं तो सिनेमा में ये सारे कड़वे अनुभवों के बाद ही आया हूं। आप अगर मेरी पहली फिल्म ‘फैंड्री’ के बारे में जानते हों, जहां एक दलित लड़का अपर कास्ट की लड़की से प्यार कर बैठता है। कास्ट डिस्क्रिमिनेशन पर आधारित ‘फैंड्री’ एक तरह से मेरी आपबीती ही है। ‘सैराट’ में भी वह नजर आता है। मैंने हमेशा कहा है कि आप जो जिंदगी जी कर आते हैं, सामाज के किस हिस्से से आते है, आपकी परवरिश और आपका भुगता हुआ आपके साथ चलता है और वह आपके रहन-सहन ही नहीं आपकी कला में भी दिखता है। इसके बावजूद दिलचस्प बात यह है कि हम इंसान हैं और इंसानों की जाति नहीं होती, इसे हमने बांटा है। जितना हो सके हम खुद को तोड़ते जाते हैं। आप अगर एक देश में हैं, तो दूसरे को कहेंगे कि आप दूसरे राज्य से हैं, राज्य में रहोगे, तो दूसरे गांव से डिस्क्रिमिनेशन करोगे, एक गांव में रहोगे तो फिर दूसरे घर से और एक घर में रहोगे, तब भी भेदभाव से परे नहीं हो पाओगे। वहां भी आप महिला-पुरुष के बीच अंतर करोगे। ये इंसानी फितरत है। मेरा अपना अनुभव फिल्मों में साफ परिलक्षित होता है, मगर मैं यही कहना चाहता हूं कि इन तमाम भेदभावों से परे हम आखिरकार इंसान हैं।


‘सैराट’ में आपने रिंकू राजगुरु और आकाश थोसर जैसे न्यू कमर के साथ काम किया था, मगर ‘झुंड’ में आपको महानायक अमिताभ बच्चन का साथ मिला?
– मैं तो कहता हूं कि उनके साथ काम करना ख्वाब से परे बात है और यह ख्वाब ‘झुंड’ में पूरा हुआ। मैंने तो कभी सोचा नहीं था कि मैं निर्देशक बनूंगा, मगर फिर बना और अब बिग बी के साथ काम करने का मौका मिला। मैं बचपन से ही उनका बहुत बड़ा फैन रहा हूं। उनकी फिल्में देखकर बड़ा हुआ हूं। उनकी ‘याराना’, ‘दीवार’, ‘सत्ते पे सत्ता’, ‘मैं आजाद हूं’, ‘खुदा गवाह’ जैसी फिल्मों का मुझ पर बहुत असर रहा है और जब मैं उनके साथ काम करने लगा, तो मुझे यकीन नहीं हो रहा था। मुझे इस सचाई को महसूस करने में थोड़ा वक्त लगा। मैं तो यही कहूंगा कि मेरी कहानी का क्लाइमेक्स यही होगा कि मैंने बच्चन साहब को डायरेक्ट किया है। यहां मेरी जिंदगी की फिल्म खत्म हो सकती है।

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अमिताभ बच्चन आपके लिए किस तरह के अदाकार साबित हुए?
– मैं तो सेट पर उन्हें देख कर अचंभित था। फिल्म में जो बच्चे और किशोर हैं, वे तो उनके साथ बहुत अच्छे तरीके से घुलमिल गए। बच्चन सर ने जरा भी अहसास नहीं होने दिया कि वे इतने बड़े मेगा स्टार हैं। वे सेट पर बच्चों को गाइड भी करते और सिखाते भी थे। उनके साथ काम करके बहुत मजा आया। सर इस फिल्म में नहीं होते, तोफिल्म इस तरह का आकार न लेती या तो बनती ही नहीं।


झुंड ‘स्लम सॉकर’ नामक एनजीओ के फाउंडर विजय बरसे पर आधारित है, जिन्होंने स्लम एरिया में रहने वाले और पढ़ाई-लिखाई से दूर अपराध की ओर बढ़ रहे बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित किया था। आपने फिल्म बनाते हुए कितनी सिनेमैटिक लिबर्टी ली?
– ये सच है कि हमारी फिल्म की प्रेरणा विजय बरसे ही हैं। उनके और स्लम के बच्चों के बीच की रिलेशनशिप को फिल्म में लिया गया है, मगर कई बार आपको जीवन की वास्तविकता को सिनेमा में ढालने के लिए कल्पनाओं की जरूरत पड़ती है। आप जिसे लिबर्टी कहते हैं, वो हमें स्टोरी टेलिंग के लिए लेनी पड़ती है। मैं अनरियलिस्टिक लिबर्टी नहीं लेता, मगर कहानी को अपने तरीके से कहता हूं। एक ही कहानी को अलग-अलग लोग अलग तरीके से अपने अनुभवों और एक्सप्रेशन के आधार पर कह सकते हैं। मेरी ‘झुंड’ में रियल लोगों का एक्सप्रेशन मेरी कल्पना के माध्यम से परदे पर आया है।

‘सैराट’ से निर्देशक के रूप में आपने कितनी प्रतिष्ठा पाई?
– क्या कहूं? ‘सैराट’ को हर कोई जानता है। उससे पहले तक मराठी फिल्मों के निर्देशक को कोई जानता नहीं था, मगर मेरा नाम पूरे महाराष्ट्र और देश में जाना जाने लगा। महाराष्ट्र में तो तकरीबन हर किसी ने ये फिल्म देखी है। मैं कहीं भी जाता हूं, लोग मुझसे प्यार करते हैं, मेरा सम्मान करते हैं और यह देख कर मुझे बहुत खुशी होती है। एक फिल्म मेकर के रूप में संतुष्टि होती है कि मेरी दूसरी ही फिल्म ने मुझे ऐसी पहचान दिलाई।

‘सैराट’ अमीर-गरीब, जात-पात से परे होने वाले प्रेम पर आधारित थी। प्यार को लेकर आप क्या सोचते हैं? क्या आप ऐसे प्यार में पड़े हैं, जहां आपने कुछ देखा-भाला न हो?
– मेरी कहानी कुछ अलग नहीं होगी। प्यार तो उसी यूनिवर्सल अपील पर चलता है। लैला-मजनू से लेकर हीर-रांझा तक प्यार की कहानी एक-सी है। प्यार की बेसिक इंस्टिंक्ट यही होती है कि आप जाति-धर्म देख कर प्यार नहीं करते। यह प्यार की बेसिक इंस्टिंक्ट ही है यह आपको प्यार करने की अद्भुत ऊर्जा देता है, मगर समाज उसे हर कदम पर दबाता है। मेरा कहना है कि प्यार होने एक बहुत ही स्वाभाविक बात है, प्यार न होना बहुत खतरनाक चीज है। मैंने ऐसे प्यार में रहा हूं या नहीं ये बेइमानी है, हां अगर मैंने प्यार किया ही नहीं तो फिर ये खतरनाक बात है। प्यार होना बहुत सहज और स्वाभाविक है। मैं तो बहुत बार प्यार में पड़ा हूं। बचपन में एक फेसिनेशन होता है, वो अलग प्यार होता है। प्यार में ये भी जरूरी नहीं कि आप अपने दिल की बात सामने वाले से कह सको। प्यार की एक मौत ऐसी भी होती है कि सामाजिक डर के कारण आप अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाते। मेरे साथ ऐसा हुआ था कि मैं इतनी स्वाभाविक बात भी नहीं बोल पाया।



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