Toolsidas Junior Review: नाम की स्पेलिंग गड़बड़ है तो फिल्म कैसे अच्छी होगी


Review: एक और स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म? देखने की हिम्मत है? वही पुरानी कहानी. चैंपियन बनने की. पहले हारो, फिर सीखो, फिर जीतते जाओ और फाइनल में आ कर प्रतिद्वंद्वी को उसी की चालों से हरा दो या फिर भूले हुए गुर फिर से याद करो और जीत जाओ. हर स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म ऐसी ही होती है. आश्चर्य की बात है कि सच्ची घटनाओं से प्रेरित हो कर बनी फिल्म में भी ऐसा ही कुछ होता है. नेटफ्लिक्स पर हाल ही में एक फिल्म रिलीज हुई- तूलसीदास जूनियर. फिल्म का नाम तूलसीदास क्यों है, तुलसीदास क्यों नहीं इसका जवाब या तो हिंदी भाषा के हत्यारे जानते हैं या फिर न्यूमरोलॉजिस्ट. इस फिल्म का नाम हिंदी में नहीं लिखा गया है सिर्फ इसकी अंग्रेजी की स्पेलिंग देख कर ये अंदाज़ा लगाया है कि ये तुलसी नहीं तूलसी ही है. जैसा नाम गड़बड़ है वैसी ही फिल्म भी गड़बड़ है. फिल्म के अंत में पता चलता है कि फिल्म के लेखक निर्देशक (मृदुल महेंद्र) ने निजी जीवन में हुई घटनाओं से प्रभावित हो कर फिल्म लिखी है तो बची हुई उम्मीद भी खत्म हो जाती है. वैसे मृदुल द्वारा निर्देशित ये दूसरी फिल्म है, पहली मिस्ड कॉल थी जो 2005 में रिलीज हुई थी और कांन्स फिल्म फेस्टिवल में भेजी गयी थी. मृदुल महेंद्र का नाम पहली फिल्म के समय मृदुल तुलसीदास ही था. तूलसीदास जूनियर परिवार के साथ फिल्म देखी जा सकती है इसलिए छुट्टी के दिन दोपहर को देख डालिये, किसी मास्टर पीस की उम्मीद मत रखियेगा.

राजीव कपूर कोलकाता के एक क्लब में स्नूकर का फाइनल 5 सालों से हारते आ रहे हैं क्योंकि फाइनल में 15 मिनिट के ब्रेक के दौरान उनके चिर-परिचित प्रतिद्वंद्वी दलीप ताहिल उन्हें शराब पिला देते हैं. राजीव ये बात भली भांति जानते हैं कि शराब उनकी कमज़ोरी है लेकिन वो फिर भी पीते हैं और कई बार क्लब से उन्हें उनकी पत्नी को लेने आना पड़ता है या बच्चों को. राजीव के दो बेटे हैं. बड़ा बेटा गोटी जो तिकडमी है और पैसा कमाना चाहता है जिसके लिए वो शर्त, जुआ, घोड़े पर दांव जैसा कुछ भी करने को तैयार रहता है. छोटा बेटा मिडी जो अपने पिता को हारते देख कर दुखी है. अपने पिता की लगातार हार का बदला लेने के लिए वो कोलकाता के एक बदनाम इलाके में स्नूकर क्लब में जा पहुंचता है जहां पूर्व नेशनल चैंपियन संजय दत्त उसे अपने ही स्टाइल से स्नूकर सिखाता है. साल भर तक कड़ी मेहनत कर के, तमाम बाधाओं को लांघ कर वो अपने पिता के क्लब में स्नूकर टूर्नामेंट में भाग लेता है. सेमीफइनल में अपने पिता को हराता है और फाइनल में दलीप ताहिल को. अंत भला तो सब भला.

फिल्म की कहानी सत्य घटनाओं से प्रेरित है. मृदुल की निजी ज़िन्दगी से. अपनी ही ज़िन्दगी पर फिल्म बनाननी हो तो थोड़ा बहुत झोल चलता है. खुद को बुरा या कमज़ोर कैसे दिखा सकते हैं. अपने पिता को पी कर हारता हुआ तो दिखा सकते हैं लेकिन चलते चलते सड़क पर गिरता हुआ नहीं दिखा सकते. पिता के शराब पीने की आदत की वजह से मां की ज़िन्दगी नर्क हो जाती है वो भी नहीं दिखा सकते. बड़ा भाई तिकडमी है और पैसे कमाने की स्कीम बनाता रहता है लेकिन सही गलत का चयन कौन करे. अच्छी अच्छी बातें दिखाने के लिए फिल्म है, बुरी बुरी बातें छिपा के रखने के लिए फिल्म नहीं हो सकती. हो सकता है कि मृदुल की ज़िन्दगी की घटनाएं ऐसी ही हुई हों लेकिन फिल्म में ‘सिनेमेटिक लिबर्टी’ लेना जरूरी है ताकि भावनाओं को उनके उच्चतम स्तर तक ले जाय जाये और दर्शकों को कहानी से जोड़ा जा सके. तूलसीदास की विडम्बना है कि दर्शक इसे फिल्म की तरह देखते हैं और भूल जाते हैं, क्योंकि याद रखने के लिए बहुत कम बातें हैं.

संजय दत्त ज़िन्दगी भर टपोरी भाषा ही बोलते रहेंगे ऐसी कसम खा ली है लगता है. कोलकाता के एक कोने में एक पुराने से स्नूकर क्लब में खेलने वाला पूर्व नेशनल चैंपियन, ऐसी भाषा में कैसे बोल सकता है ये सोचने का विषय है. संजय को अपनी ही फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में दिलीप प्रभावलकर के गांधी के किरदार को याद करना चाहिए था. जिस तरह से वो संजय को गांधीगिरी सिखाते हैं, उसी से प्रेरणा लेकर संजय को कोच का किरदार निभाना चाहिए था. राजीव कपूर को बहुत दिनों बाद परदे पर देख कर अच्छा लगना चाहिए था, लेकिन लगा नहीं. 32 साल का वक्फा गुज़र गया बड़े परदे पर उन्हें आये. काम न करने की वजह निजी होगी लेकिन उनके शराब पीने के किस्से सार्वजानिक हैं. राजीव ने भूमिका में शराबी पिता का किरदार निभाया है जो इस लत का इस कदर गुलाम है कि मैच के दरम्यान 15 मिनट के ब्रेक में भी शराब पी लेता है अपने प्रतिद्वंद्वी के हाथों, ये जानते हुए भी कि शराब पी कर वो धुत्त हो जाते हैं, ब्रेक के बाद उन्हें आहे फिर बचा हुआ मैच खेलना है, पिछली चार बार भी ये प्रतिद्वंद्वी ही जीता है और इस बार अपने बेटे के लिए राजीव उसे हराना भी चाहते हैं. इतनी सब बातों के बावजूद राजीव शराब पी लेते हैं. दुर्भाग्य से ये फिल्म राजीव की अंतिम फिल्म बन गयी क्योंकि इस फिल्म की शूटिंग के बाद पिछले साल उनका दिल की धड़कन रुकने से देहांत हो गया था. तूलसीदास जूनियर की भूमिका वरुण बुद्धदेव नाम के अभिनेता ने की है. आरआरआर में वो राम चरण के बचपन का रोल कर चुके हैं और आने वाली फिल्म पृथ्वीराज में वे अक्षय कुमार के बचपन का रोल यानि पृथ्वीराज का रोल कर रहे हैं. वरुण ने अच्छा काम किया है, हालांकि भावों के प्रदर्शन के मामले में उनका हाथ तंग है. सबसे बढ़िया किरदार गोटी यानि बड़े भाई (चिन्मय चन्द्रांशु) के हाथ लगा है. इस किरदार को लिखने अपर थोड़ी मेहनत की जाती तो इसमें कई यादगार लम्हे बन सकते थे. दलीप ताहिल का काम ठीक है. अपनी पहली फिल्म ‘मिस्ड कॉल’ में मृदुल ने अंकुर विकल को बतौर मुख्य किरदार लिया था और शायद उसी प्रेम की वजह से अंकुर को दो सीन का एक रोल तूलसीदास जूनियर में भी दिया गया है.

फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जो याद रह जाए, हां फिल्म साफ़ सुथरी है,. कोई अश्लीलता नहीं है, कोई हिंसा नहीं है, कोई नाच गाना भी नहीं है. कोई संवाद भी ऐसा नहीं है जो देखने वालों को असहज कर दे. अपने पिता को शराब के नशे में धुत्त देख कर भी तूलसीदास का अपने पिता का अपमान न करना, बहुत अच्छा और सहज रहा. फिल्म परिवार के लिए बनायीं है इसलिए बच्चों के साथ देखिये. फिल्म यादगार तो नहीं बनेगी मगर हां साफ सुथरी और थोड़ा सन्देश देने का प्रयास करती हुई फिल्म भी दर्शक मांगती है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Film review, Sanjay dutt

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