दास्तान-गो : इंदिरा की बेटी गायत्री, जिससे इंदिरा (गांधी) को ही सबसे अधिक दिक्कत रही


दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…

————————————————————————————-

इंदिरा राजे की पांच संतानें हुईं. तीन बेटियां और दो बेटे. इनमें से चौथी हुईं गायत्री देवी. लंदन में जन्म हुआ. शुरुआती एक-दो सालों की पढ़ाई भी वहीं. फिर कूचबिहार लौटीं तो गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांति निकेतन के ‘पाठ-भवन’ (पाठ-शाला) भर्ती करा दी गईं. बताते हैं, यहीं गायत्री की मुलाकात एक और इंदिरा से हुई. इंदिरा प्रियदर्शिनी. उस वक़्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेता और आगे हिंदुस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहरलाल नेहरू की बेटी. मालूम नहीं, यहां गायत्री और इंदिरा के बीच क्या बात बिगड़ी, जो उम्र के अगले पायदानों पर उनके पहुंचने के बाद भी कभी बनी नहीं. बल्कि और बिगड़ती ही गई.

मुमकिन है, कोई सियासी अदावत रही हो. दो वज़हें हो सकती हैं उसकी. पहली- गायत्री देवी राजे-रजवाड़ों की वारिस थीं और अधिकांश रियासतें उस दौर में अंग्रेजी हुक़ूमत से मुनाफ़े ले रही थीं. कई तो हिंदुस्तान की आज़ादी के संघर्ष में बाधा भी बन रहीं थीं. कहते हैं, शायद इसी वजह से पंडित नेहरू हिंदुस्तान के अधिकांश राजे-रजवाड़ों के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे. और, दूसरी वज़ह गायत्री देवी के पिता का परिवार भी रहा हो, संभव है. दरअसल, कूचबिहार के महाराजा जीतेंद्रनारायण ‘ब्रह्म-समाज’ के समर्थक सदस्य हुआ करते थे. बल्कि सदस्य क्या, उनकी मां महारानी सुनीति देवी तो ‘ब्रह्म-समाज’ के दूसरे बड़े नेता केशब चंद्र सेन की बेटी ही थीं.

राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित और बाद में केशब चंद्र द्वारा अपने तरीके से बढ़ाया गया यह संगठन कई मसलों पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से मुख़्तलिफ़ रास्ता अख़्तियार करता था, यह भी सच है. सो, वज़ह कोई भी हो, इंदिरा प्रियदर्शिनी और गायत्री की दोस्ती न हुई कभी. ख़ूबसूरती और रुतबे में भी इंदिरा के मुकाबले गायत्री 20 ही बैठती थीं. लिहाज़ा, ये अदावत ऐसी बढ़ी कि आगे कुछ और किस्से कहानियों का सिरा बनती गई. इधर, गायत्री देवी राजकुमारी से महारानी हो चुकी थीं. उन्होंने राजपूताने की जयपुर रियासत के सवाई महाराजा मानसिंह सिंह से प्रेम-विवाह कर लिया था. मानसिंह उम्र में करीब 12 साल बड़े. दो रानियां पहले से थीं. फिर भी.

कहते हैं, मानसिंह पोलो मैच खेलने कूचबिहार आए थे. मां की तरह गायत्री देवी ख़ुद शौक़ीन ठहरीं. पोलो खेलती थीं. घुड़सवारी करतीं. निशानेबाज़ी, शिकार और फर्राटे से आलीशान गाड़ियां दौड़ाने में भी अव्वल. यानी मर्दों के कहे जाने वाले तमाम खेलों में उनको उन्हीं के मैदान मात दिया करतीं. सो, या क्या बड़ी बात कि मोहब्बत की बात आती तो मां से पीछे रह जातीं. बताते हैं कि जब इंदिरा राजे की सगाई माधोराव सिंधिया से तय पाई गई तो उन्होंने ख़ुद उन्हें टेलीग्राम भेजा था. लिखा था, ‘मैं आपसे शादी नहीं कर सकती.’ माधोराव ने इसका ज़वाब सयाजीराव गायकवाड़ को लिख भेजा. ख़ूब बवाल हुआ. लेकिन इंदिरा राजे आख़िर जीतेंद्रनारायण से शादी करके मानीं.

ऐसे ही, सालों बाद उनकी बेटी गायत्री ने भी ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐलान किया. पोलो मैच देखने पहुंची थी वह. उम्र महज 12 बरस. लेकिन पोलो खिलाड़ी महाराजा मानसिंह को मन हार बैठीं. घर में बताया. थोड़ा विरोध प्रतिरोध हुआ. मगर बात बन गई क्योंकि ‘मां-महाराज’ साथ में थीं. इसके बाद करीब सात-आठ बरस एक-दूसरे को समझने-समझाने का सिलसिला. फिर 1940 में ब्याह कर जयपुर आ गईं. इधर, आते ही नानी की तरह गायत्री ने शुरुआती सालों में ही सबसे पहले पर्दादारी किनारे की. फिर लड़कियों की पढ़ाई के बंदोबस्त किया. अगस्त 1943 में जयपुर में लड़कियों का एक स्कूल बढ़िया खुलवा दिया. गायत्री देवी स्कूल. आम लोगों की भी ख़ूब मदद की.

नतीज़ा, सवाई मानसिंह की दो रानियों की बनिस्बत तीसरी- गायत्री देवी लोगों की निग़ाह में तेजी से ऊपर उठ गईं. ख़ूबसूरती, रहन-सहन, पहनावे वग़ैरह से चर्चित तो वे पहले भी थीं ही. इसी बीच, 1947 में देश आज़ाद हुआ और 1949 के साल में जयपुर रियासत ख़त्म होकर हिंदुस्तान का हिस्सा हो गई. हालांकि रजवाड़ी के रुतबे अभी बने हुए थे. लोगों से जुड़े मसलों के साथ जुड़कर गायत्री देवी भी लगातार रुतबा बढ़ा रही थीं. इस तरह क़रीब 10-12 गुज़रे. अब तक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग ‘स्वतंत्र पार्टी’ बना चुके थे. पंडित नेहरू की नीतियों से असहज हुए थे राजाजी और उनके साथी नेता. ये बात है साल 1959 की.

इसके बाद 1962 में लोकसभा के चुनावों के लिए वे लोकप्रिय चेहरे ढूंढ रहे थे. ऐसे, जो कांग्रेस की नीतियों की पुरज़ोर ख़िलाफ़त कर सकें. इस तलाश में उनकी निग़ाह गायत्री देवी पर आन पड़ी. मानसिंह की तरफ़ से भी रानी को हरी झंडी मिल गई और गायत्री देवी उस साल जयपुर लोकसभा सीट से चुनाव में उतर गईं. पहली ही बार में दुनियाभर में सबसे ज़्यादा अंतर से चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बना डाला. यही कोई 1,92,909 वोट से. इसके महज आठ महीने बाद ही चीन ने जब हिंदुस्तान पर हमला कर हिंदुस्तानी फौजों को हराया तो पंडित नेहरू संसद में बुरी तरह घिर गए. उस वक्त गायत्री देवी थीं, जो संसद में बहस के दौरान पंडित नेहरू से सीधे जा भिड़ीं.

कहा जाता है कि गायत्री देवी ने पंडित नेहरू से ये तक दिया, ‘आपको अगर किसी चीज के बारे में कुछ भी पता होता तो आज हम इस मुसीबत में न होते.’ ज़वाब में पंडित नेहरू ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘मैं एक औरत से बहस में नहीं उलझना चाहता.’ कहते हैं, इस एक घटना ने इंदिरा के मन में एक और गांठ बांध दी थी गायत्री देवी के लिए. यह गांठ तब चुभी, जब इंदिरा देश की प्रधानमंत्री बनीं. इस बीच, गायत्री देवी 1967 और 1971 में भी लगातार लोकसभा चुनाव जीत चुकी थीं. इसके बाद सियासत से किनारा कर लिया. क्योंकि इंदिरा गांधी अब ताक़तवर प्रधानमंत्री की तरह स्थापित हो चुकी थीं. उन्होंने रियासतों की तमाम सुविधाएं ख़त्म कर दी थीं.

ट्विटर पर कमल शेखावत के पेज से ली गई राजमाता गायत्री देवी की तस्वीर.

ट्विटर पर कमल शेखावत के पेज से ली गई राजमाता गायत्री देवी की तस्वीर.

इतने से पर उनका मन नहीं भरा शायद. यह फरवरी 1975 की बात है. आपातकाल लगाने के क़रीब चार महीने पहले का वाक़या. आयकर विभाग के अफ़सरों ने उस रोज गायत्री देवी के महलों, ठिकानों पर दबिश दी थी. कोई बताता है, ‘इसके लिए जयपुर-दिल्ली के बीच रास्ते बंद करा दिए गए थे. यही कोई 60 ट्रकों से सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात दिल्ली भिजवाए गए. फिर वहां से विदेश.’ जबकि इंदिरा गांधी ने तब कहा, ‘जयपुर के किलों, महलों से कोई दबा ख़ज़ाना नहीं मिला है.’ और, गायत्री देवी? वे कहती थीं, ‘मोतीडूंगरी के किले से कुछ सोना मिला था. हमारे पास एक-एक सिक्के का हिसाब था.’ हो सकता है इसलिए 30 साल बाद सही, जीत गायत्री देवी की हुई हो.

यही कोई आठ करोड़ रुपए का सोना था, ऐसा कहते हैं. इसके मालिकाने के लिए अदालत में मुकदमा चला और सरकार को हार का मुंह देखना पड़ा. सवाई मानसिंह क़रीब पांच बरस 1970 में ही दुनिया छोड़ चुके थे. तब गायत्री देवी ने अकेले सत्ता-शक्ति से लोहा लिया था. हालांकि, इंदिरा ने इसके बाद जब इमरजेंसी लगाई तो महारानी गायत्री को जेल में भी डलवा दिया. पांच महीने रहीं वहां. बताते तो ये भी है कि वहीं, जेल में उन्हें कोई बीमारी लग गई थी. ये बीमारी बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ी कि गायत्री देवी को दुनिया से दूर ले गई. साल 2009 के जुलाई महीने की 29 तारीख थी वह. अलबत्ता, महारानी जब तक रही, कोई ‘तानाशाह’ उनका रुतबा कम न सका!
——
पिछली कड़ी में पढ़िए
* नाम-गायत्री देवी, पहचान? सिर्फ़ इतनी नहीं कि दुनिया की ख़ूबसूरत रानी हुईं!

Tags: Hindi news, News18 Hindi Originals



Source link

Enable Notifications OK No thanks