FILM REVIEW: ‘Silverton Siege’ खत्म होने पर हर गला रुंधा ही होगा


FILM REVIEW ‘Silverton Siege’: दक्षिण अफ्रीका का इतिहास किसी भी सामान्य सी बुद्धि वाले व्यक्ति की विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है. कुछ घटनाएं तो इतनी दुखद, दुर्दांत और चौंका देने वाली हैं कि इनके बारे में खोजते-खोजते हमें मानव नस्ल पर भरोसा करने का कभी मन ही नहीं करेगा. दक्षिण अफ्रीका प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ देश कहा जाना चाहिए. बहुत पहले ही इस इलाके को व्यावसायिक लाभ के लिए लूटने का एक सिलसिलेवार और योजनाबद्ध कार्यक्रम आरम्भ कर दिया गया था. वहां के स्थानीय निवासी इस लूट का विरोध न कर सकें इसलिए उन पर रंगभेद जैसी सबसे घृणित बीमारी लाद दी गयी थी. एक समय ऐसा भी आ गया था कि सरकार से लेकर खेल की टीमों तक में एक भी अश्वेत व्यक्ति नहीं होता था.

जो प्रतिभाशाली थे उन्हें भी गरीबी की मार और असमानता के दुरूह रास्तों से गुजारना पड़ता था और तब भी वे मंजिल तक नहीं पहुंच पाते थे. इसका विरोध करने वाले और महात्मा गांधी से प्रभावित नेल्सन मंडेला को 1963 से 1990 तक करीब 27 सालों तक जेल में बंद रखा गया था. नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज फिल्म “सिल्वरटन सीज”, 1980 में घटी एक सत्य घटना पर आधारित है, जो अपने हर दृश्य में अश्वेतों और श्वेतों के बीच के हर किस्म के फासले को बड़े ही दुखद तरीके से दिखाती है और एक ऐसा संदेश देती है, जिसमें हम सभी से कहा जाता है कि इंसान को इंसान समझ लीजिए, उसे रंग-जाति-धर्म या किसी और आधार पर बांटना बंद कीजिये. फिल्म अद्भुत है.

नेल्सन मंडेला की पार्टी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की सशस्त्र शाखा “एमके” का उद्देश्य था कि रंगभेद और उपनिवेशवाद से पीड़ित दक्षिण अफ्रीका में सशस्त्र कार्यक्रमों से इतनी अराजकता फैला दी जाए कि देश किसी भी तरह से राज करने लायक न रहे और धीरे-धीरे मूल निवासियों को देश की सत्ता मिल सके. इन सशस्त्र कार्यकर्मों में कभी पावर प्लांट नष्ट करना तो कभी बैंक लूट लेना जैसे कार्यक्रम शामिल थे. 1980 में एमके के सिपाही कैल्विन खुमालो (थाबो रमेट्सी), टेरा (नोक्सोलो डलामिनी) और अल्डो (स्टेफान एरामस) अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर तेल संशोधन की इकाई तहस नहस करने के इरादे लेकर चलते हैं, लेकिन एक साथी की धोखाधड़ी की वजह से उनका प्लान चौपट हो जाता है और पुलिस उनके पीछे पड़ जाती है.

गोलीबारी होती है, दोनों तरफ के लोग मारे जाते हैं लेकिन खुमालो, तेरा और अल्डो भाग कर एक बैंक में घुस जाते हैं और वहां मौजूद सभी व्यक्तियों को बंधक बना लेते हैं. खुमालो को ये अंदेशा हो जाता है कि वो बच के निकल नहीं पाएंगे तो वो इस होस्टेज सिचुएशन को बड़ी चतुराई से “नेल्सन मंडेला को जेल से रिहा करो” वाले आंदोलन में बदलने में कामयाब हो जाता है. मीडिया का हो-हल्ला और पुलिस अफसर जोहान लैंगेरमन (अरनॉल्ड वोस्लू) की बिना खून खराबे के मामला निपटाने की ज़िद की वजह से कई तरह की अड़चने आती रहती हैं लेकिन आखिर में आर्मी की एक यूनिट बंदूकें लेकर बैंक में घुस जाती हैं.

फिल्म 1980 की घटना पर आधारित है. निर्देशक मंडला दुबे और प्रोडक्शन डिज़ाइनर शैंटेल कार्टर ने फिल्म के एक एक दृश्य में विश्वसनीयता डाली है. न केवल उस समय के कपडे बल्कि उस काल के बैंक की डिज़ाइन, कार्स और बंदूकों का फिल्म में समावेश कर के समयकाल को ज़िंदा कर दिया है. बंधकों के साथ होने वाली घटनाएं काफी बार देखी जा चुकी हैं. फ़ोन के ज़रिये संपर्क, बंधकों के लिए खाना लाना, हेलीकॉप्टर से भागने की नाकामयाब कोशिश, एक दगाबाज़ साथी और फिर कफ़न सर पर बांध कर शहीद होने की तैयारी; ऐसे कई दृश्य हैं जो फिल्म को थोड़ा कमज़ोर करते हैं फिर भी खुमालो का एक होस्टेज सिचुएशन को एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदलने का प्रयास सफल होते हुए देखना बहुत सुखद रहा. खास कर जब ये आंदोलन नेल्सन मंडेला को जेल से रिहा करने के लिए था.

अभिनय सभी का अव्वल दर्जे का है. एक दो सीन थोड़े नकली से लगते हैं. जैसे मिनिस्टर की बेटी का बैंक कर्मचारी होना और जब उसकी रिहाई की बात मान ली जाती है तो उसका रिहा होने से इंकार करना और बल्कि नेल्सन मॉडेला को रिहा करो के नारे लगाना. बैंक के अंदर एक अमेरिकी अश्वेत बॉक्सिंग प्रमोटर का होना और उसका तुरंत अश्वेतों से सहानुभूति दिखाना भी नकली लगता है. बैंक में बंधक बनाने का प्लान कहीं से कहीं तक नेल्सन मंडेला को रिहा कराने के लिए नहीं था बस समय की मांग देखते हुए खुमालो का मौके का इस्तेमाल करना कमाल लगता है.

रशीद लेनी का संगीत अच्छा है. उस समय काल के कलाकारों के गाने फिल्म में शामिल किये गए हैं जो कि फिल्म को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं और पटकथा को थोड़ा रोचक मोड़ देते हैं. शॉन हार्ले ली की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है हालांकि शॉट्स में कोई नवीनता नज़र नहीं आती और यही आलम है एडिटर रिचर्ड स्टारके की एडिटिंग का. फिल्म को कसा हुआ रखने में तो कामयाब हुए हैं लेकिन घटनाओं में तारतम्य बिठाने की वजह से कोई अनूठापन नहीं आया. लेखक सबेलो मागीदी की यह पहली फिल्म है और ये उल्लेख करना ज़रूरी है क्योंकि पटकथा में असली किस्से को सिर्फ आधार बनाया गया है और इसे डॉक्यू-ड्रामा नहीं बनाया गया. फिल्म मज़ेदार है. कुछ टिपिकल दृश्यों को छोड़ दें तो फिल्म अच्छी लगेगी.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Film review, Hollywood

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