Britain: ‘लोकतंत्र कैसे जीवित रहते हैं’, ब्रिटेन की सियासत पर रामचंद्र गुहा का आलेख


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वर्ष 2018 में हार्वर्ड के दो प्राध्यापकों ने एक किताब प्रकाशित करवाई जिसका नाम था, हाउ डेमोक्रेसीज डाई। अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप के आश्चर्यजनक आरोहण से प्रेरित होकर, पुस्तक ने तर्क दिया कि पुराने, स्थापित लोकतंत्रों को भी अपनी राजनीतिक व्यवस्था की निरंतरता को हल्के में नहीं लेना चाहिए। मतदाताओं की बुनियादी प्रवृत्तियों को भड़काने का कृत्य और संस्थानों की स्वतंत्रता के प्रति मामूली अवहेलना भी लोकतांत्रिक कामकाज को जल्दी कमजोर कर सकती है।

ब्रिटेन के हाल के घटनाक्रम से इस किताब के सीक्वल का खयाल आया, संभवतः जिसका नाम हाउ डेमोक्रेसीज सर्वाइव हो सकता है। इसके लिए हमें ब्रिटेन के हाल के घटनाक्रम को मुख्य केस की तरह लेना होगा, जहां आम चुनाव में अपनी कंजरवेटिव पार्टी को शानदार जीत दिलाने के महज ढाई साल बाद प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को इस्तीफा देना पड़ा।

ब्रिटेन के आम चुनावों में दो या उससे अधिक पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में होती हैं। शायद ही कभी यह राष्ट्रपति चुनाव जैसे होते हैं। फिर भी, दिसंबर, 2019 का चुनाव कंजरवेटिव पार्टी ने बोरिस जॉनसन के करिश्मे और उनकी लोकप्रियता के आधार पर जीता था। वह एक मजाकिया वक्ता हैं, जिनके उलझे हुए बाल और बेपरवाह पहनावे ने उन्हें आम ब्रिटिश मतदाताओं का प्रिय बना दिया। उनकी पार्टी को 1987 के बाद सर्वाधिक सीटें मिलीं और उसने 1979 के बाद सर्वाधिक मत प्रतिशत हासिल किया। मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी सिर्फ 202 सीटें ही जीत सकी और 1935 के बाद यह उसकी सबसे कम सीटें थीं। 

चुनावों में मिली सफलता ने बोरिस जॉनसन को उनकी अपनी ही पार्टी में प्रभुत्व की स्थिति में पहुंचा दिया था। पहली बार जीतकर आए टोरी सांसदों के बीच बोजो एक पंथ बन गए और इसने नेता को आलोचनाओं से ऊपर कर दिया। जॉनसन स्पष्ट रूप से ट्रंप की सफलता से प्रभावित थे और उनकी राजनीति कुछ हद तक भड़काने वाले अमेरिकी नेता से प्रेरित थी। उन्होंने जनता से सीधे अपील करने के लिए पार्टी की मशीनरी की अवहेलना की। उन्होंने सलाह के लिए अपने मंत्रियों के बजाय कुछ चुनींदा गैरनिर्वाचित सलाहकारों पर भरोसा किया। उन्होंने भव्यता से ब्रिटेन को फिर से महान बनाने की बात की। 

2019 के चुनावों में जब उन्होंने अपनी पार्टी को जीत दिलाई, तब बोरिस जॉनसन पचपन वर्ष के थे। तुलनात्मक रूप से देखें, तो वह नरेंद्र मोदी के भारत का प्रधानमंत्री बनने के समय उनकी जो उम्र थी, उससे आठ साल छोटे थे और डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के समय उनकी जो उम्र थी, उससे पंद्रह वर्ष छोटे थे।

दिसंबर 2019 में, जॉनसन शायद दो, यहां तक कि तीन, कार्यकाल का आनंद लेने के बारे में सोच रहे होंगे। वह युवा थे और उनकी पार्टी और मतदाता उनके नियंत्रण में थे। और मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। इसके बावजूद बोरिस जॉनसन को अपने आधे कार्यकाल के बाद ही प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, वह भी बदनामी के कारण। यह कैसे हुआ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि ब्रिटिश लोकतंत्र के अब भी काम कर रहे संस्थानों द्वारा उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया गया था।

मसलन प्रेस। राजनीति में आने से पहले जॉनसन— ट्रंप के उलट नहीं— सच छिपाने के लिए जाने जाते थे। वह जब लंदन के मेयर थे या जब विदेश मंत्री थे, तब उनकी बहकाने वाली प्रवृत्ति खास मायने नहीं रखती थी, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में वह स्वतंत्र मीडिया की कठोर निगरानी से नहीं बच सकते थे और उसने उन्हें कठघरे में खड़ा भी किया। इसीलिए जब प्रधानमंत्री ने जनता के लिए अपने ही द्वारा घोषित लॉकडाउन के दौरान अपने स्टाफ के साथ पार्टी की, तब उनके इस अतिक्रमण पर अखबारों और टेलीविजन ने व्यापक रूप से रिपोर्ट की थी।

कुछ कम अच्छी तरह से काम करने वाले लोकतंत्रों (जैसे हमारे लोकतंत्र) में प्रधानमंत्री के झूठ और धोखे की अखबारों, रेडियो और टेलीविजन द्वारा इतनी बारीकी से जांच नहीं की गई होगी। ब्रिटेन में जहां कुछ अखबार लेबर पार्टी की ओर झुकाव वाले और कुछ टोरी की ओर झुकाव वाले हैं, लेकिन सौभाग्य से उस देश में सत्तारूढ़ राजनेताओं से निर्देश लेने वाला कोई ‘गोदी मीडिया’ नहीं है।  

मुद्दे बड़े हों या छोटे, ब्रिटिश संसद में उन पर वास्तविक बहसें होती हैं। यह हमारी संसद से उलट है, जहां महत्वपूर्ण विधेयकों को कुछ मिनटों में ही पारित किया गया है और जहां कभी भी प्रधानमंत्री से विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का सीधा जवाब देने के लिए नहीं कहा जाता। दूसरी ओर, ब्रिटेन में प्रधानमंत्री से सवाल पूछने की परंपरा की वजह से लेबर नेता केर स्टार्मर ने बोरिस जॉनसन से लगातार सवाल किए, जिन्हें अपना बचाव का मौका भी दिया गया, हालांकि उनके जवाब न तो संतोषजनक थे और न ही आश्वस्त करने लायक थे।

लगातार दो चुनावी हार का नेतृत्व करने के बाद लेबर पार्टी का कॉर्बिन से छुटकारा पाना, और खुद को एक बार फिर प्रतिस्पर्धी बनाने की उसकी इच्छा, भारत में मुख्य विपक्षी दल की अपने हकदार और अक्षम ‘प्रथम परिवार’ से छुटकारा पाने की असमर्थता के उलट है। वोट हासिल करने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी सिद्ध रूप से विफल हैं (यहां तक कि वह अपनी पारिवारिक सीट से भी दोबारा नहीं जीत सके) और फिर भी ऐसा लगता है कि जैसे ही उनकी मां और करीब तीन साल से पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष फैसला लेंगी, वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर काबिज हो सकते हैं।

लेबर ने शायद देर से ही स्वीकार किया कि नेता के रूप में जेरेमी कॉर्बिन के होने से केवल रूढ़िवादियों को लाभ हुआ, वहीं कांग्रेस स्पष्ट रूप से यह कभी नहीं स्वीकार करेगी कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए उसका सबसे बड़ा उपहार हैं। (इस लेख को लिखे जाते समय यह खबर आई है कि राहुल गांधी फिर छुट्टियां मनाने यूरोप गए हैं, यह सबूत है कि वह भाजपा के सबसे विश्वसनीय राजनीतिक सहयोगी हैं)

ब्रिटेन में प्रेस में आए प्रधानमंत्री के कदाचार के खुलासे के बाद जब संसद में बहस हुई, तब बोरिस जॉनसन को आधिकारिक जांच करवानी पड़ी। ब्रिटिश पुलिस और सिविल सेवा ने यह जांच अनुकरणीय दक्षता से की और सत्तारूढ़ राजनेताओं के कुकर्मों को दर्ज करने से पीछे नहीं हटे। एक बार फिर, भारत से इसकी तुलना सोचने को मजबूर करती है। मोदी सरकार ने महत्वपूर्ण विधेयकों को संसदीय समिति को नहीं भेजा, शासन में खामियों की आधिकारिक जांच की तो बात ही छोड़ दीजिए। अगर उन्होंने ऐसा किया भी, तो मोदी के नेतृत्व में भारतीय सिविल सेवा इतनी डरपोक और जोखिम-रहित है कि कभी भी ऐसी कोई बात दर्ज नहीं की जा सकती, जो प्रधानमंत्री को खराब रोशनी में दिखाए।

इस जांच और संसद में चल रही बहस के बीच बोरिस जॉनसन ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार करने के लिए खुद को ऐसे अंतरराष्ट्रीय राजनेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की, जो दुनिया में ब्रिटेन की छवि चमका रहा है। उन्होंने यूक्रेन पर रूसी हमले की आड़ लेकर कीव की यात्राएं कीं, ताकि दावा कर सकें कि वह उत्पीड़ित लोगों के साथ हैं। वह एक व्यापार सौदे के सिलसिले में भारत भी आए, जिसे उस व्यक्ति के साथ अंजाम देना था, जिन्होंने कहा कि वह जॉनसन को अपना खास दोस्त मानते हैं।

बोरिस जॉनसन ने कंजरवेटिव पार्टी के इर्द-गिर्द उसी तरह से अपने छवि निर्माण की कोशिश की, जैसे ट्रंप और रिपब्लिकन तथा मोदी और भाजपा हैं। लेकिन उनके उलट वह नाकाम हो गए। कुछ हद तक ऐसा इसलिए है, क्योंकि संशयी ब्रिटिश नायक पूजा नहीं करते, यहां तक कि उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विंस्टन चर्चिल तक को खारिज कर दिया था। व्यापक रूप से इसलिए भी, क्योंकि कंजरवेटिव पार्टी के सांसद यह बताना चाहते थे कि जॉनसन उनकी पार्टी के नेता या प्रधानमंत्री के रूप में अक्षम हैं। एक बार फिर, भारत के साथ यह एकदम उलटा है। भाजपा के 300 से अधिक सांसदों में से किसी एक में भी यह साहस या स्वतंत्रता है कि वह पार्टी की बैठक में प्रधानमंत्री की यहां तक कि नोटबंदी और कोविड के पहले लॉकडाउन जैसी घातक नीतियों को लेकर हल्की-सी भी आलोचना कर सके? बोरिस जॉनसन का पतन ब्रिटिश लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति आभार जताने जैसा है।

 

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वर्ष 2018 में हार्वर्ड के दो प्राध्यापकों ने एक किताब प्रकाशित करवाई जिसका नाम था, हाउ डेमोक्रेसीज डाई। अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप के आश्चर्यजनक आरोहण से प्रेरित होकर, पुस्तक ने तर्क दिया कि पुराने, स्थापित लोकतंत्रों को भी अपनी राजनीतिक व्यवस्था की निरंतरता को हल्के में नहीं लेना चाहिए। मतदाताओं की बुनियादी प्रवृत्तियों को भड़काने का कृत्य और संस्थानों की स्वतंत्रता के प्रति मामूली अवहेलना भी लोकतांत्रिक कामकाज को जल्दी कमजोर कर सकती है।

ब्रिटेन के हाल के घटनाक्रम से इस किताब के सीक्वल का खयाल आया, संभवतः जिसका नाम हाउ डेमोक्रेसीज सर्वाइव हो सकता है। इसके लिए हमें ब्रिटेन के हाल के घटनाक्रम को मुख्य केस की तरह लेना होगा, जहां आम चुनाव में अपनी कंजरवेटिव पार्टी को शानदार जीत दिलाने के महज ढाई साल बाद प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को इस्तीफा देना पड़ा।

ब्रिटेन के आम चुनावों में दो या उससे अधिक पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में होती हैं। शायद ही कभी यह राष्ट्रपति चुनाव जैसे होते हैं। फिर भी, दिसंबर, 2019 का चुनाव कंजरवेटिव पार्टी ने बोरिस जॉनसन के करिश्मे और उनकी लोकप्रियता के आधार पर जीता था। वह एक मजाकिया वक्ता हैं, जिनके उलझे हुए बाल और बेपरवाह पहनावे ने उन्हें आम ब्रिटिश मतदाताओं का प्रिय बना दिया। उनकी पार्टी को 1987 के बाद सर्वाधिक सीटें मिलीं और उसने 1979 के बाद सर्वाधिक मत प्रतिशत हासिल किया। मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी सिर्फ 202 सीटें ही जीत सकी और 1935 के बाद यह उसकी सबसे कम सीटें थीं। 

चुनावों में मिली सफलता ने बोरिस जॉनसन को उनकी अपनी ही पार्टी में प्रभुत्व की स्थिति में पहुंचा दिया था। पहली बार जीतकर आए टोरी सांसदों के बीच बोजो एक पंथ बन गए और इसने नेता को आलोचनाओं से ऊपर कर दिया। जॉनसन स्पष्ट रूप से ट्रंप की सफलता से प्रभावित थे और उनकी राजनीति कुछ हद तक भड़काने वाले अमेरिकी नेता से प्रेरित थी। उन्होंने जनता से सीधे अपील करने के लिए पार्टी की मशीनरी की अवहेलना की। उन्होंने सलाह के लिए अपने मंत्रियों के बजाय कुछ चुनींदा गैरनिर्वाचित सलाहकारों पर भरोसा किया। उन्होंने भव्यता से ब्रिटेन को फिर से महान बनाने की बात की। 

2019 के चुनावों में जब उन्होंने अपनी पार्टी को जीत दिलाई, तब बोरिस जॉनसन पचपन वर्ष के थे। तुलनात्मक रूप से देखें, तो वह नरेंद्र मोदी के भारत का प्रधानमंत्री बनने के समय उनकी जो उम्र थी, उससे आठ साल छोटे थे और डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के समय उनकी जो उम्र थी, उससे पंद्रह वर्ष छोटे थे।

दिसंबर 2019 में, जॉनसन शायद दो, यहां तक कि तीन, कार्यकाल का आनंद लेने के बारे में सोच रहे होंगे। वह युवा थे और उनकी पार्टी और मतदाता उनके नियंत्रण में थे। और मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। इसके बावजूद बोरिस जॉनसन को अपने आधे कार्यकाल के बाद ही प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, वह भी बदनामी के कारण। यह कैसे हुआ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि ब्रिटिश लोकतंत्र के अब भी काम कर रहे संस्थानों द्वारा उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया गया था।

मसलन प्रेस। राजनीति में आने से पहले जॉनसन— ट्रंप के उलट नहीं— सच छिपाने के लिए जाने जाते थे। वह जब लंदन के मेयर थे या जब विदेश मंत्री थे, तब उनकी बहकाने वाली प्रवृत्ति खास मायने नहीं रखती थी, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में वह स्वतंत्र मीडिया की कठोर निगरानी से नहीं बच सकते थे और उसने उन्हें कठघरे में खड़ा भी किया। इसीलिए जब प्रधानमंत्री ने जनता के लिए अपने ही द्वारा घोषित लॉकडाउन के दौरान अपने स्टाफ के साथ पार्टी की, तब उनके इस अतिक्रमण पर अखबारों और टेलीविजन ने व्यापक रूप से रिपोर्ट की थी।

कुछ कम अच्छी तरह से काम करने वाले लोकतंत्रों (जैसे हमारे लोकतंत्र) में प्रधानमंत्री के झूठ और धोखे की अखबारों, रेडियो और टेलीविजन द्वारा इतनी बारीकी से जांच नहीं की गई होगी। ब्रिटेन में जहां कुछ अखबार लेबर पार्टी की ओर झुकाव वाले और कुछ टोरी की ओर झुकाव वाले हैं, लेकिन सौभाग्य से उस देश में सत्तारूढ़ राजनेताओं से निर्देश लेने वाला कोई ‘गोदी मीडिया’ नहीं है।  

मुद्दे बड़े हों या छोटे, ब्रिटिश संसद में उन पर वास्तविक बहसें होती हैं। यह हमारी संसद से उलट है, जहां महत्वपूर्ण विधेयकों को कुछ मिनटों में ही पारित किया गया है और जहां कभी भी प्रधानमंत्री से विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का सीधा जवाब देने के लिए नहीं कहा जाता। दूसरी ओर, ब्रिटेन में प्रधानमंत्री से सवाल पूछने की परंपरा की वजह से लेबर नेता केर स्टार्मर ने बोरिस जॉनसन से लगातार सवाल किए, जिन्हें अपना बचाव का मौका भी दिया गया, हालांकि उनके जवाब न तो संतोषजनक थे और न ही आश्वस्त करने लायक थे।

लगातार दो चुनावी हार का नेतृत्व करने के बाद लेबर पार्टी का कॉर्बिन से छुटकारा पाना, और खुद को एक बार फिर प्रतिस्पर्धी बनाने की उसकी इच्छा, भारत में मुख्य विपक्षी दल की अपने हकदार और अक्षम ‘प्रथम परिवार’ से छुटकारा पाने की असमर्थता के उलट है। वोट हासिल करने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी सिद्ध रूप से विफल हैं (यहां तक कि वह अपनी पारिवारिक सीट से भी दोबारा नहीं जीत सके) और फिर भी ऐसा लगता है कि जैसे ही उनकी मां और करीब तीन साल से पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष फैसला लेंगी, वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर काबिज हो सकते हैं।

लेबर ने शायद देर से ही स्वीकार किया कि नेता के रूप में जेरेमी कॉर्बिन के होने से केवल रूढ़िवादियों को लाभ हुआ, वहीं कांग्रेस स्पष्ट रूप से यह कभी नहीं स्वीकार करेगी कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए उसका सबसे बड़ा उपहार हैं। (इस लेख को लिखे जाते समय यह खबर आई है कि राहुल गांधी फिर छुट्टियां मनाने यूरोप गए हैं, यह सबूत है कि वह भाजपा के सबसे विश्वसनीय राजनीतिक सहयोगी हैं)

ब्रिटेन में प्रेस में आए प्रधानमंत्री के कदाचार के खुलासे के बाद जब संसद में बहस हुई, तब बोरिस जॉनसन को आधिकारिक जांच करवानी पड़ी। ब्रिटिश पुलिस और सिविल सेवा ने यह जांच अनुकरणीय दक्षता से की और सत्तारूढ़ राजनेताओं के कुकर्मों को दर्ज करने से पीछे नहीं हटे। एक बार फिर, भारत से इसकी तुलना सोचने को मजबूर करती है। मोदी सरकार ने महत्वपूर्ण विधेयकों को संसदीय समिति को नहीं भेजा, शासन में खामियों की आधिकारिक जांच की तो बात ही छोड़ दीजिए। अगर उन्होंने ऐसा किया भी, तो मोदी के नेतृत्व में भारतीय सिविल सेवा इतनी डरपोक और जोखिम-रहित है कि कभी भी ऐसी कोई बात दर्ज नहीं की जा सकती, जो प्रधानमंत्री को खराब रोशनी में दिखाए।

इस जांच और संसद में चल रही बहस के बीच बोरिस जॉनसन ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार करने के लिए खुद को ऐसे अंतरराष्ट्रीय राजनेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की, जो दुनिया में ब्रिटेन की छवि चमका रहा है। उन्होंने यूक्रेन पर रूसी हमले की आड़ लेकर कीव की यात्राएं कीं, ताकि दावा कर सकें कि वह उत्पीड़ित लोगों के साथ हैं। वह एक व्यापार सौदे के सिलसिले में भारत भी आए, जिसे उस व्यक्ति के साथ अंजाम देना था, जिन्होंने कहा कि वह जॉनसन को अपना खास दोस्त मानते हैं।

बोरिस जॉनसन ने कंजरवेटिव पार्टी के इर्द-गिर्द उसी तरह से अपने छवि निर्माण की कोशिश की, जैसे ट्रंप और रिपब्लिकन तथा मोदी और भाजपा हैं। लेकिन उनके उलट वह नाकाम हो गए। कुछ हद तक ऐसा इसलिए है, क्योंकि संशयी ब्रिटिश नायक पूजा नहीं करते, यहां तक कि उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विंस्टन चर्चिल तक को खारिज कर दिया था। व्यापक रूप से इसलिए भी, क्योंकि कंजरवेटिव पार्टी के सांसद यह बताना चाहते थे कि जॉनसन उनकी पार्टी के नेता या प्रधानमंत्री के रूप में अक्षम हैं। एक बार फिर, भारत के साथ यह एकदम उलटा है। भाजपा के 300 से अधिक सांसदों में से किसी एक में भी यह साहस या स्वतंत्रता है कि वह पार्टी की बैठक में प्रधानमंत्री की यहां तक कि नोटबंदी और कोविड के पहले लॉकडाउन जैसी घातक नीतियों को लेकर हल्की-सी भी आलोचना कर सके? बोरिस जॉनसन का पतन ब्रिटिश लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति आभार जताने जैसा है।

 



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