Sri Lanka Crisis: सत्ता की मनमानी का फल भोग रहा है श्रीलंका, निहत्थी जनता ने निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंका


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दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में दर्ज हो गया कि पहली बार निहत्थी जनता ने सड़कों पर आकर, विधिवत एक निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंका, राष्ट्रपति भवन पर कब्जा किया और प्रधानमंत्री आवास को फूंक डाला। श्रीलंका की जनता ने पिछले मई में देश के सर्वशक्तिमान राजपक्षे परिवार के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को जान बचाकर भागने और नौसैनिक अड्डे पर शरण लेने को मजबूर कर दिया था। महिंदा की हैसियत अपने भाई, लगभग निवर्तमान हो चुके राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे से ज्यादा थी, क्योंकि उन्होंने ही राष्ट्रपति के नाते मई, 2009 में तमिल इलाकों को तहस-नहस करवाने के बाद लगभग ढाई दशक से चल रहे गृहयुद्ध को खत्म करवाया था। राजपक्षे परिवार ने तमिलों के पराभव को सिंहल बहुसंख्यकवाद के वर्चस्व की स्थापना के रूप में प्रस्तुत किया था। राजपक्षे परिवार की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के शीर्ष चार पदों पर परिवार के लोग ही थे; इसके अलावा नौकरशाही, सेना और अन्य पदों पर भी इसी खानदान के लोग काबिज थे। 

सत्ता के अहंकार ने राजपक्षे परिवार को जनता के गुस्से का एहसास नहीं होने दिया। महीनों से सड़कों पर उतरे लाखों लोगों की यह बुलंद आवाज भी नहीं सुनाई पड़ी- गोता गद्दी छोड़ दो, गोता अब घर जाओ। गोतबाया ने हिसाब लगाया कि दूसरे परिवार के रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बनाकर संकट पर काबू पाया जा सकता है। इस तरह सर्जरी के केस को पेनकिलर से ठीक करने की कोशिश होती रही। लेकिन रोजमर्रा का संकट बढ़ता रहा। पेट्रोल-डीजल, खाने-पीने की चीजों और दवाओं की कमी ने आम आदमी की दुश्वारियों को असहनीय बना दिया। अन्न संकट की वजह यह रही कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने रासायनिक खाद के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। पिछले सीजन में अनाज की पैदावार में भारी गिरावट आ गई। खत्म हो रही विदेशी मुद्रा से तेल आयात रुकने लगा। 

विदेशी कर्ज की अदायगी से हाथ खड़ा कर देने वाली सरकार ने प्रमाण दे दिया कि देश वस्तुतः दीवालिया हो चुका है। इन स्थितियों में भी भारत ने 3.5 खरब डॉलर की मदद दी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की टीम दस दिनों तक कोलंबो में रहने के बाद भी कोई भरोसा दिए बगैर लौट गई। प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने कहा कि इस साल घोर मंदी रहेगी और अन्न, ईंधन व दवाओं का जबर्दस्त अभाव बना रहेगा। सच यह है कि राजपक्षे परिवार ने कांटों और जहरीले कीटों से भरी जिस गहरी खाई में देश को धकेल दिया है, उससे निकलना आसान नहीं है। श्रीलंका घृणा की राजनीति का कुफल भोगने के अभिशाप का एक क्लासिक उदाहरण है। 1948 में आजाद होने के बाद ही सिंहल वर्चस्व की स्थापना का रास्ता तलाशा जाने लगा था। 1956 में करीब 15 प्रतिशत जनता की भाषा, तमिल के वजूद को नकारते हुए सिंहली को देश की एकमात्र भाषा का दर्जा देने का कानून बन गया। व्यापक दबाव में बाद में इसमें परिवर्तन किया गया। इसी एक भाषा नीति की वजह से बौद्ध भिक्षु सोमारामा थेरो ने 1959 में प्रधानमंत्री एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायके को उन्हीं के आवास पर गोली मार दी थी। सिंहल वर्चस्ववादी सरकार ने धीरे-धीरे साफ कर दिया कि श्रीलंका में तमिलों के लिए जगह नहीं है।

वर्षों से रह रहे तमिलों को नागरिकता देने के बजाय भारत को लाखों तमिलों को अपनाने के लिए बाध्य किया गया। 1964 के शास्त्री-सिरिमावो समझौते के बाद भी तमिल समस्या हल नहीं हुई, जिसकी परिणति अंततः 26 साल के गृहयुद्ध में हुई। सिंहली नेता समझ नहीं पाए कि जब दिमागों में नफरत भरी जाती है और समाज का सैन्यीकरण होने लगता है, तो उसका दुष्परिणाम एक वर्ग तक सीमित नहीं रहता। पिछली शताब्दी के आठवें दशक में उग्र सिंहली संगठन, जनता विमुक्ति पेरामुना रोहण विजयवीर के नेतृत्व में सत्ता हथियाने से बस थोड़ी दूर रह गया था। यह छोटे स्तर का गृहयुद्ध था।

सिंहली नेताओं ने एक और घातक चूक की। अरमान और औकात के बीच नाभिनाल के संबंध की बिल्कुल अनदेखी करते हुए वे भू-राजनीतिक खेल में कूद पड़े। विदेश में पढ़े सिंहली नेता भू-राजनीति के इस बुनियादी सिद्धांत को भूल गए कि जिनकी जेबें और बखार लबालब न भरे हों, उन्हें इस खतरनाक खेल से दूर रहना चाहिए। भारत को चिढ़ाने के लिए, सामरिक महत्व के त्रिंकोमाली बंदरगाह पर वॉयस ऑफ अमेरिका का स्टेशन बनाने की अनुमति अमेरिका को दे दी। वहां चीन ही नहीं, पाकिस्तान का भी प्रभाव बढ़ने लगा। तमिल इलाकों में रसद पहुंचने का मार्ग बाधित कर दिया गया। इंदिरा गांधी जैसी कड़क प्रधानमंत्री भला यह सब कैसे बर्दाश्त करती! भारतीय लड़ाकू विमानों ने बहुत नीचे की उड़ान भरकर तमिल इलाकों में रसद गिरानी शुरू कर दी। श्रीलंका की संकीर्ण नीतियों के कारण 1987 का राजीव-जयवर्धने समझौता भी विफल हो गया, जबकि इससे ऐतिहासिक समाधान निकल सकता था।

कंगाली से उबरने के लिए समावेशी, सर्वग्राही लोकतांत्रिक मार्ग पर चलना श्रीलंका के लिए जरूरी है। बीस फीसदी आबादी (15 फीसदी तमिल और पांच फीसदी मुसलमान) के अस्तित्व को नकार कर आंतरिक शांति असंभव है। और उसके बिना आर्थिक खुशहाली भी नामुमकिन। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के व्यापक आर्थिक हस्तक्षेप से ही कई वर्ष बाद श्रीलंका आर्थिक संकट से उबर सकता है। लेकिन जनता को इस सहायता की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। महंगाई बेलगाम होती जाएगी, खाने-पीने की चीजों की किल्लत बनी रहेगी, पेट्रोल-डीजल का अभाव बना रहेगा, नए-नए करों से आमदनी और घट जाएगी, कल्याणकारी योजनाओं पर अंकुश लग जाएगा। संक्षेप में, जनता को उन सभी यंत्रणाओं से गुजरना पड़ेगा, जो अनेक लातिन अमेरिकी और दक्षिण कोरिया व इंडोनेशिया जैसे देशों की जनता ने अतीत में भोगी हैं।

समान नागरिकता के आधार पर कारगर सामाजिक-सांविधानिक सुधारों की अनुपस्थिति में मुसीबत फिर भी बनी रहेगी। संसद अध्यक्ष सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले लें और निकट भविष्य में चुनाव हो जाए, तो वह एक मामूली शुरुआत होगी। तमिल जनता नए संविधान की मांग कर रही है। ये सब हो जाने पर भी सिंहल नेताओं को दिलों से धार्मिक-नस्ली नफरत निकाल देने की अपरिहार्य शर्त पूरी करनी पड़ेगी। अन्यथा इतिहास की पुनरावृत्ति तो क्रूरतापूर्ण होती ही है।
 

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दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में दर्ज हो गया कि पहली बार निहत्थी जनता ने सड़कों पर आकर, विधिवत एक निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंका, राष्ट्रपति भवन पर कब्जा किया और प्रधानमंत्री आवास को फूंक डाला। श्रीलंका की जनता ने पिछले मई में देश के सर्वशक्तिमान राजपक्षे परिवार के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को जान बचाकर भागने और नौसैनिक अड्डे पर शरण लेने को मजबूर कर दिया था। महिंदा की हैसियत अपने भाई, लगभग निवर्तमान हो चुके राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे से ज्यादा थी, क्योंकि उन्होंने ही राष्ट्रपति के नाते मई, 2009 में तमिल इलाकों को तहस-नहस करवाने के बाद लगभग ढाई दशक से चल रहे गृहयुद्ध को खत्म करवाया था। राजपक्षे परिवार ने तमिलों के पराभव को सिंहल बहुसंख्यकवाद के वर्चस्व की स्थापना के रूप में प्रस्तुत किया था। राजपक्षे परिवार की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के शीर्ष चार पदों पर परिवार के लोग ही थे; इसके अलावा नौकरशाही, सेना और अन्य पदों पर भी इसी खानदान के लोग काबिज थे। 

सत्ता के अहंकार ने राजपक्षे परिवार को जनता के गुस्से का एहसास नहीं होने दिया। महीनों से सड़कों पर उतरे लाखों लोगों की यह बुलंद आवाज भी नहीं सुनाई पड़ी- गोता गद्दी छोड़ दो, गोता अब घर जाओ। गोतबाया ने हिसाब लगाया कि दूसरे परिवार के रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बनाकर संकट पर काबू पाया जा सकता है। इस तरह सर्जरी के केस को पेनकिलर से ठीक करने की कोशिश होती रही। लेकिन रोजमर्रा का संकट बढ़ता रहा। पेट्रोल-डीजल, खाने-पीने की चीजों और दवाओं की कमी ने आम आदमी की दुश्वारियों को असहनीय बना दिया। अन्न संकट की वजह यह रही कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने रासायनिक खाद के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। पिछले सीजन में अनाज की पैदावार में भारी गिरावट आ गई। खत्म हो रही विदेशी मुद्रा से तेल आयात रुकने लगा। 

विदेशी कर्ज की अदायगी से हाथ खड़ा कर देने वाली सरकार ने प्रमाण दे दिया कि देश वस्तुतः दीवालिया हो चुका है। इन स्थितियों में भी भारत ने 3.5 खरब डॉलर की मदद दी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की टीम दस दिनों तक कोलंबो में रहने के बाद भी कोई भरोसा दिए बगैर लौट गई। प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने कहा कि इस साल घोर मंदी रहेगी और अन्न, ईंधन व दवाओं का जबर्दस्त अभाव बना रहेगा। सच यह है कि राजपक्षे परिवार ने कांटों और जहरीले कीटों से भरी जिस गहरी खाई में देश को धकेल दिया है, उससे निकलना आसान नहीं है। श्रीलंका घृणा की राजनीति का कुफल भोगने के अभिशाप का एक क्लासिक उदाहरण है। 1948 में आजाद होने के बाद ही सिंहल वर्चस्व की स्थापना का रास्ता तलाशा जाने लगा था। 1956 में करीब 15 प्रतिशत जनता की भाषा, तमिल के वजूद को नकारते हुए सिंहली को देश की एकमात्र भाषा का दर्जा देने का कानून बन गया। व्यापक दबाव में बाद में इसमें परिवर्तन किया गया। इसी एक भाषा नीति की वजह से बौद्ध भिक्षु सोमारामा थेरो ने 1959 में प्रधानमंत्री एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायके को उन्हीं के आवास पर गोली मार दी थी। सिंहल वर्चस्ववादी सरकार ने धीरे-धीरे साफ कर दिया कि श्रीलंका में तमिलों के लिए जगह नहीं है।

वर्षों से रह रहे तमिलों को नागरिकता देने के बजाय भारत को लाखों तमिलों को अपनाने के लिए बाध्य किया गया। 1964 के शास्त्री-सिरिमावो समझौते के बाद भी तमिल समस्या हल नहीं हुई, जिसकी परिणति अंततः 26 साल के गृहयुद्ध में हुई। सिंहली नेता समझ नहीं पाए कि जब दिमागों में नफरत भरी जाती है और समाज का सैन्यीकरण होने लगता है, तो उसका दुष्परिणाम एक वर्ग तक सीमित नहीं रहता। पिछली शताब्दी के आठवें दशक में उग्र सिंहली संगठन, जनता विमुक्ति पेरामुना रोहण विजयवीर के नेतृत्व में सत्ता हथियाने से बस थोड़ी दूर रह गया था। यह छोटे स्तर का गृहयुद्ध था।

सिंहली नेताओं ने एक और घातक चूक की। अरमान और औकात के बीच नाभिनाल के संबंध की बिल्कुल अनदेखी करते हुए वे भू-राजनीतिक खेल में कूद पड़े। विदेश में पढ़े सिंहली नेता भू-राजनीति के इस बुनियादी सिद्धांत को भूल गए कि जिनकी जेबें और बखार लबालब न भरे हों, उन्हें इस खतरनाक खेल से दूर रहना चाहिए। भारत को चिढ़ाने के लिए, सामरिक महत्व के त्रिंकोमाली बंदरगाह पर वॉयस ऑफ अमेरिका का स्टेशन बनाने की अनुमति अमेरिका को दे दी। वहां चीन ही नहीं, पाकिस्तान का भी प्रभाव बढ़ने लगा। तमिल इलाकों में रसद पहुंचने का मार्ग बाधित कर दिया गया। इंदिरा गांधी जैसी कड़क प्रधानमंत्री भला यह सब कैसे बर्दाश्त करती! भारतीय लड़ाकू विमानों ने बहुत नीचे की उड़ान भरकर तमिल इलाकों में रसद गिरानी शुरू कर दी। श्रीलंका की संकीर्ण नीतियों के कारण 1987 का राजीव-जयवर्धने समझौता भी विफल हो गया, जबकि इससे ऐतिहासिक समाधान निकल सकता था।

कंगाली से उबरने के लिए समावेशी, सर्वग्राही लोकतांत्रिक मार्ग पर चलना श्रीलंका के लिए जरूरी है। बीस फीसदी आबादी (15 फीसदी तमिल और पांच फीसदी मुसलमान) के अस्तित्व को नकार कर आंतरिक शांति असंभव है। और उसके बिना आर्थिक खुशहाली भी नामुमकिन। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के व्यापक आर्थिक हस्तक्षेप से ही कई वर्ष बाद श्रीलंका आर्थिक संकट से उबर सकता है। लेकिन जनता को इस सहायता की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। महंगाई बेलगाम होती जाएगी, खाने-पीने की चीजों की किल्लत बनी रहेगी, पेट्रोल-डीजल का अभाव बना रहेगा, नए-नए करों से आमदनी और घट जाएगी, कल्याणकारी योजनाओं पर अंकुश लग जाएगा। संक्षेप में, जनता को उन सभी यंत्रणाओं से गुजरना पड़ेगा, जो अनेक लातिन अमेरिकी और दक्षिण कोरिया व इंडोनेशिया जैसे देशों की जनता ने अतीत में भोगी हैं।

समान नागरिकता के आधार पर कारगर सामाजिक-सांविधानिक सुधारों की अनुपस्थिति में मुसीबत फिर भी बनी रहेगी। संसद अध्यक्ष सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले लें और निकट भविष्य में चुनाव हो जाए, तो वह एक मामूली शुरुआत होगी। तमिल जनता नए संविधान की मांग कर रही है। ये सब हो जाने पर भी सिंहल नेताओं को दिलों से धार्मिक-नस्ली नफरत निकाल देने की अपरिहार्य शर्त पूरी करनी पड़ेगी। अन्यथा इतिहास की पुनरावृत्ति तो क्रूरतापूर्ण होती ही है।

 



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