लाउडस्पीकर, सियासत और गांधी जी: कभी बापू ने सुझाया था हिंदू-मुसलमानों को यह रास्ता


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इन दिनों ध्वनिविस्तारक यंत्रों की आवाज़ों पर सियासत हो रही है। मस्जिदों की अजान और मंदिरों के भक्ति गीत निशाना बन रहे हैं। एक दूसरे को चेतावनियांं दी जा रही हैं। एक पक्ष कहता है कि अगर दूसरे पक्ष ने अपने ध्वनिविस्तारक यंत्र से धार्मिक सुर निकाले तो वह दोगुने वेग से अपने मज़हबी  सुर निकालेगा।

क्या किसी ने कभी सोचा था कि इस लोकतांत्रिक देश में भी कभी इन मसलों पर बहस छिड़ेगी और आम आदमी की पढ़ाई,शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और नागरिक अधिकार कहीं हाशिए पर चले जाएंगे। भारत की स्वतंत्रता के समय केवल सत्रह-अठारह फ़ीसदी आबादी साक्षर थी। महिलाओं में यह प्रतिशत तो और भी कम था, तब हिन्दुस्तान का समाज इतना असहिष्णु नहीं था। आज सत्तर -अस्सी फ़ीसदी जनसंख्या पढ़ी-लिखी बताई जाती है और संसार में भारत के प्रोफेशनल्स अपने ज्ञान का डंका बजा रहे हैं तो हम एक दूसरे के आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति के प्रति सहिष्णुता नहीं दिखा रहे हैं। यह कैसा आधुनिक होता भारत है और हम कैसे जागरूक समाज की रचना करते जा रहे हैं ?

तर्क की कसौटी पर रखना हो तो कहा जा सकता है कि विश्व के अनेक देश इन दिनों अनुदारवादी रास्ते पर चल पड़े हैं। एक समुदाय दूसरे के अस्तित्व को नकारने पर आमादा है। राष्ट्रवाद के नाम पर विभिन्न देशों में अपनी अपनी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं, लेकिन यह तस्वीर दूसरा पहलू भी पेश करती है। नई पीढ़ी की नींव अगर इस बुनियाद पर रखी जा रही है तो क्या वह संसार को एक भयावह ख़तरे का सन्देश नहीं दे रही है।

क्या इन दिनों किसी बौद्धिक विमर्श में इन बिंदुओं पर कोई मंथन होता दिख रहा है? फ़िलहाल तो भारतीय समाज में ऐसी कोई गंभीर पहल नहीं दिखाई दे रही है। अपने आध्यात्मिक दर्शन के लिए विख्यात भारत में अब संप्रदायों के आधार पर नफ़रत,उन्माद और हिंसा का प्रसार हो रहा हो तो यक़ीनन उससे हिन्दुस्तान की छवि कोई बहुत उज्जवल नहीं होती। 

एक दौर में केंद्र में थी ये सियासत 

मस्जिदों की अजान और उनके सामने हिन्दुओं के भक्तिगीत पर बवाल कोई नया नहीं है। सौ साल पहले के भारत में भी यह होता था और उससे पहले भी। लेकिन तब इसे सियासत से जोड़कर नहीं देखा जाता था और न ही उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिलता था। उन दिनों यह विशुद्ध सामाजिक मुद्दा था।

महात्मा गांधी ने अपनी एक प्रार्थना सभा में दोनों संप्रदायों से कहा था-
 

गांधी वांग्मय के भाग 24 में पृष्ठ 156 पर गांधी जी कहते हैं- 

यह विवेकहीन और अमैत्रीपूर्ण कृत्य है। मित्रता तो यह मानकर ही आगे चलती है कि उस मित्र की भावनाओं का ध्यान रखा जाएगा ।फिर भी मुसलमानों को हिंदुओं के बाजे ज़ोर जबरदस्ती से रोकने की कोशिश नहीं करना चाहिए। मारपीट की धमकी या मारपीट के डर से किसी काम को न करना अपने आत्म सम्मान और धार्मिक विश्वास को तिलांजलि देने जैसा है, पर जो आदमी स्वयं किसी धमकी से नहीं डरता,वह अपना व्यवहार भी ऐसा रखेगा ,जिससे किसी को चिढ़ने का मौका न आए और संभव हुआ तो वह ऐसा अवसर आने ही नहीं देगा ।
 

आज़ादी के क़रीब दो महीने बाद तेईस अक्टूबर को अपनी प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी कहते हैं-

आज के भारत में जिस तरह सांप्रदायिक उन्माद और नफ़रत का ज्वार अपना विकराल आकार ले चुका है,वह चिंता में डालता है।दरअसल यह उस जिन्न की तरह है,जो किसी बोतल में बंद था और बाहर आ चुका है।यह ग़ुस्सैल जिन्न अब विध्वंस पर आमादा है। कोई नहीं जानता कि इसे वापस बोतल में कैसे बंद किया जाएगा। मगर किसी भी क़ीमत पर भारत में इसे नियंत्रित करना ज़रूरी है।यदि ऐसा नहीं होता तो ,तो इस निष्कर्ष पर पहुँचने से कौन इनकार करेगा कि आस्तिक भारतीय समाज ईश्वर से ही विद्रोह कर बैठा है।
 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

इन दिनों ध्वनिविस्तारक यंत्रों की आवाज़ों पर सियासत हो रही है। मस्जिदों की अजान और मंदिरों के भक्ति गीत निशाना बन रहे हैं। एक दूसरे को चेतावनियांं दी जा रही हैं। एक पक्ष कहता है कि अगर दूसरे पक्ष ने अपने ध्वनिविस्तारक यंत्र से धार्मिक सुर निकाले तो वह दोगुने वेग से अपने मज़हबी  सुर निकालेगा।

क्या किसी ने कभी सोचा था कि इस लोकतांत्रिक देश में भी कभी इन मसलों पर बहस छिड़ेगी और आम आदमी की पढ़ाई,शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और नागरिक अधिकार कहीं हाशिए पर चले जाएंगे। भारत की स्वतंत्रता के समय केवल सत्रह-अठारह फ़ीसदी आबादी साक्षर थी। महिलाओं में यह प्रतिशत तो और भी कम था, तब हिन्दुस्तान का समाज इतना असहिष्णु नहीं था। आज सत्तर -अस्सी फ़ीसदी जनसंख्या पढ़ी-लिखी बताई जाती है और संसार में भारत के प्रोफेशनल्स अपने ज्ञान का डंका बजा रहे हैं तो हम एक दूसरे के आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति के प्रति सहिष्णुता नहीं दिखा रहे हैं। यह कैसा आधुनिक होता भारत है और हम कैसे जागरूक समाज की रचना करते जा रहे हैं ?

तर्क की कसौटी पर रखना हो तो कहा जा सकता है कि विश्व के अनेक देश इन दिनों अनुदारवादी रास्ते पर चल पड़े हैं। एक समुदाय दूसरे के अस्तित्व को नकारने पर आमादा है। राष्ट्रवाद के नाम पर विभिन्न देशों में अपनी अपनी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं, लेकिन यह तस्वीर दूसरा पहलू भी पेश करती है। नई पीढ़ी की नींव अगर इस बुनियाद पर रखी जा रही है तो क्या वह संसार को एक भयावह ख़तरे का सन्देश नहीं दे रही है।

क्या इन दिनों किसी बौद्धिक विमर्श में इन बिंदुओं पर कोई मंथन होता दिख रहा है? फ़िलहाल तो भारतीय समाज में ऐसी कोई गंभीर पहल नहीं दिखाई दे रही है। अपने आध्यात्मिक दर्शन के लिए विख्यात भारत में अब संप्रदायों के आधार पर नफ़रत,उन्माद और हिंसा का प्रसार हो रहा हो तो यक़ीनन उससे हिन्दुस्तान की छवि कोई बहुत उज्जवल नहीं होती। 


एक दौर में केंद्र में थी ये सियासत 

मस्जिदों की अजान और उनके सामने हिन्दुओं के भक्तिगीत पर बवाल कोई नया नहीं है। सौ साल पहले के भारत में भी यह होता था और उससे पहले भी। लेकिन तब इसे सियासत से जोड़कर नहीं देखा जाता था और न ही उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिलता था। उन दिनों यह विशुद्ध सामाजिक मुद्दा था।

महात्मा गांधी ने अपनी एक प्रार्थना सभा में दोनों संप्रदायों से कहा था-

 

मुसलमानों को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे हिन्दुओं को मस्जिदों के सामने से बाजा बजाते हुए या आरती करते हुए निकलने से जबरदस्ती रोक सकते हैं। उन्हें हिन्दुओं को अपना दोस्त बनाना चाहिए और विश्वास रखना चाहिए कि हिन्दू भाई अपने मुसलमान भाइयों की भावनाओं का ख़्याल ज़रूर रखेंगे। दूसरी तरफ हिन्दुओं को भी समझना चाहिए कि मुसलमान भाइयों के पीछे पड़े रहने से कुछ भी नहीं बनेगा।गांधी जी ने अपने सम्पूर्ण लेखन में इस मुद्दे को बार बार उठाया।



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