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डिजिटल दुनिया की वर्चुअल जिंदगी में जी रहे बच्चों को अभिभावकों के दखल से उबारा जा सकता है। देश के मनोरोग विशेषज्ञों का कहना है कि जो बच्चे दिन में चार से छह घंटे तक ऑनलाइन रह रहे हैं, उनमें समय पर लक्षण पहचानना जरूरी है। अभिभावकों को उन पर अधिक प्रयोग करने की जरूरत नहीं है। कई बार इससे बच्चों की परेशानी बढ़ी है।
नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. नंद कुमार ने बताया, सोशल मीडिया की वजह से बच्चों और किशोरों की शारीरिक गतिविधि कम हुई है। ये एक ही स्थान पर रहकर पूरा दिन बिता देते हैं। इससे उनमें मोटापा, मधुमेह जैसी दूसरी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है। इसलिए अभिभावकों को सबसे पहले रोजाना कम से कम आधे घंटे साइकिलिंग, रनिंग, जंपिंग इत्यादि व्यायाम कराना चाहिए।
अभिभावकों को विशेषज्ञों की सलाह, लक्षण पहचानना जरूरी
- लखनऊ स्थित केजीएमयू के एक अध्ययन के अनुसार, छह में से एक सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाला किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त होता है।
- सोशल मीडिया के लती को अवसाद, चिंता के अलावा उच्च रक्तचाप, एनीमिया, मोटापा, मधुमेह जैसे रोग हो सकते हैं।
बच्चों के लिए खुद उदाहरण बनें
बंगलूरू स्थित निम्हांस के डॉ. दिनकरन का कहना है, अभिभावकों को खुद उदाहरण बन बच्चों को प्रेरित करना होगा। परिवार के साथ रहने पर ही वे एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे।
तेजी से फैला इंटरनेट
2015 में ग्रामीण क्षेत्रों में नौ फीसदी आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल कर रही थी जो 2018 में 25 फीसदी तक पहुंच गई। वहीं 2019 में 26 करोड़ उपभोक्ता पार हुए। 58% इंटरनेट यूजर गाना, 53 फीसदी ऑनलाइन टीवी देखना भी पसंद करते हैं।
इंटरनेट की समझ विकसित करें
सोशल मीडिया की लत और उससे जुड़े मनोविकारों से छुटकारा पाने के लिए विशेषज्ञों की सलाह है कि अभिभावकों को जागरूक होने के साथ साथ इंटरनेट की समझ भी विकसित करनी चाहिए। उन्हें पता हो कि बच्चा किस तरह इसका इस्तेमाल कर रहा है। बच्चों और किशोरों में व्यवहारिक बदलाव के शुरुआती लक्षणों के बारे में स्वयं को शिक्षित करें।
सप्ताह भर सोशल मीडिया से दूर रहना असरदार
- इंग्लैंड की बाथ यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों ने पता लगाया है कि जो लोग सोशल मीडिया पर घंटों समय व्यतीत करते हैं और उन्हें अवसाद, एंजाइटी या तनाव की परेशानी थी। सप्ताह भर वह सोशल मीडिया से दूर रहे तो उनको फायदा हुआ।
- इस पर एम्स के डॉक्टर भी काफी हद तक सहमत हैं। डॉ. यतन पाल सिंह बल्हारा का कहना है कि हर केस में यह नियम लागू नहीं हो सकता है क्योंकि सभी की स्थितियां अलग-अलग होती हैं।