वो भूली दास्तान: मश्क वाले चाचा!


किसी ने इन्हें आखरी बार मुंबई की मुहम्मद अली रोड पर देखा था. किसी ने इनको दिल्ली की जामा मस्जिद के पास देखा था. हैदराबाद में ये आखरी बार वहां के नुमाइश स्थल पर सत्तर के दशक में दिखाई दिए थे और कलकत्ता में भी इन्होंने सत्तर के दशक तक ही अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है.

इन्हें मराठी में “पखाली वाला” कहते हैं, उर्दू में ये “मशकवाला” हैं. बोलने में हम बेशक “हैं” कहें, लेकिन दर्शन के मामले में ये कब के “थे” हो चुके हैं. हैदराबाद से लेकर कलकत्ता, दिल्ली से लेकर बंबई तक, पुराने लोगों ने इसके दर्शन ज़रूर किए हैं, हमने तो बस इनका ज़िक्र ही सुना है. वो भी प्रेमचंद से, ईदगाह में.

जी, हमारी पीढ़ी के लिए आखरी बार इन साहब के दर्शन ईदगाह पढ़ते समय हुए थे.

ईदगाह का भिश्ती

याद है आपको, जब “रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई थी”? जब हामिद अपने दोस्तों के साथ ईदगाह गया था? जब वहां मेले से सब दोस्तों ने अपने लिए खेलने को खिलोने लिए थे और हामिद ने अपनी दादी के लिए चिमटा चुना था?

जी, बस वहीं से हामिद का चिमटा “अमर” हो गया. नूरे का सिपाही भी जिंदा रहा. मेहमूद का वकील भी वकालत करता रहा. बस नहीं बचा तो सिर्फ़ वक्त की मार से मार खाया हुआ बेचारे मोहसिन का “भिश्ती”.

पहली बार जब भिश्ती का ज़िक्र ईदगाह में पढ़ा था तो मां ने उसके बारे में बहुत कुछ बताया था. दरअसल मां उस भाग्यशाली पीढ़ी की थीं जिन्होंने अपने बचपन में न सिर्फ़ ईदगाह में “भिश्ती” को पढ़ा था बल्कि उन्हें रु ब रू अपनी आंखों से भी देखा था. मां के शहर की अंग्रेज़ी वाली “मॉल रोड इसी भिश्ती के पानी के छिड़काव से हिंदी वाली “ठंडी सड़क में तब्दील हो जाया करती थी.

बाद में “1942 ए लव स्टोरी” और “केसरी” जैसी पीरियड फिल्मों में इनके दर्शन हुए तो हमें मालूम चला कि ये अपने ज़माने में कैसे दिखते रहे होंगे. आज इनके दुर्लभ दर्शन एक मुराद की तरह हो गए हैं क्योंकि बताते हैं कि इनके दर्शन  बस अब अजमेर शरीफ़ की दरगाह पर ही होते हैं.

काम

ख़ैर एक वक्त था जब भवन निर्माण में तराई के लिए, बागों और बगीचों की सिंचाई के लिए, धूली धूसरित सड़कों पर छिड़काव के लिए, घरों की टंकियों में पानी भरवाई के लिए, अमीरों के घरों में खस के पर्दों को नम करने के लिए, इन मश्कों और मशक वालों का इस्तेमाल हुआ करता था. आम भाषा में इन्हें भिश्ती कहा जाता था. ये भिश्ती, ये मशक वाले, ढाका से लेकर कराची तक के तमाम रेलवे स्टेशनों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाते थे. अंग्रेज़ों के लिए कोतुहल का कारण थे. भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक दायरों में “हिंदू पानी” और “मुस्लिम पानी” को पिलाने का काम किया करते थे.

मशकों में हींग

लेकिन सिर्फ़ पानी ही नहीं, एक समय था अफ़गानिस्तान से इन्हीं मश्कों में भर कर आगरा की हींग मंडी में हींग आया करती थी. आगरा की हींग की इसी थोक मंडी में हींग को खाने लायक बनाया जाता था और फिर दूर दूर से व्यापारी इसे अपने स्थानीय बाज़ारों के लिए ले जाया करते थे. धीरे धीरे हींग की इसी मंडी में बची हुई खाली मशको से चमड़े के जूते बनाने का काम शुरू हो गया था. आने वाले समय में ये हींग की मंडी, आगरा से लगे शहर हाथरस में ट्रांसफर हो गई. और आगरा की हींग मंडी में आज भी जूते बना करते हैं.

 बीस्ट एंड मैन इन इंडियाऔरगंगादीन“…रूडयार्ड किपलिंग के पिता जॉन लॉकवुड किपलिंग ने एक किताब लिखी थी, “बीस्ट एंड मैन इन इंडिया”. इस किताब में किपलिंग सीनियर, हिंदुस्तान में पाए जाने वाले पक्षियों और जानवरों के यहां के मूल निवासियों के साथ संबंधों के बारे में लिखते हैं. इसी किताब में वो भिश्ती और बकरी के संबंधों का भी ज़िक्र करते हैं.

रूडयार्ड किपलिंग भी अपनी कालजई कविता “गंगादीन” में एक भिश्ती की जिंदगी की रूपरेखा खींचते हैं. युद्ध के मैदान में, खून से लथपथ ज़ख्मी रणबांकुरों और प्यासी रूहों को पानी पिलाने वाले उस भिश्ती के बारे में जूनियर किपलिंग कहते हैं… यानि हे गंगादीन, “तुम मुझसे कहीं बेहतर इंसान हो”.

किपलिंग सही कहते हैं. जो पानी के दो घूंट पिला कर प्यास बुझाता है, वही असली इंसान कहलाता है. बिहिश्त का प्रयाय बन जाता है. भिश्ती शब्द फारसी शब्द बिहिश्त से बना है, जिसका अर्थ जन्नत/स्वर्ग होता है. पुराने जमाने में कहा जाता था कि लोगों की प्यास बुझाने वाला बिहिश्त अर्थात स्वर्ग में जायेगा और इसलिए इनका नाम भिश्ती पड़ गया.

ऐतिहासिक भिश्ती

भारतीय इतिहास के पन्नो में दो भिश्ती अपना नाम लिखवा चुके हैं. पहला, पानीपत की तीसरी लड़ाई में ज़ख्मी महादजी सिंधिया की जिंदगी बचाने वाला भिश्ती, राणे खान. और दूसरा, मुगल बादशाह हुमायूं को गंगा की लहरों में डूबने से बचाने वाला, निज़ाम. एक बार शेरशाह सूरी से जान बचा के भागते वक्त हुमायूं, गंगा में डूबने लगता है. तब निज़ाम नाम का एक भिश्ती अपनी मश्क फुला कर बहती हुई गंगा में छलांग लगा देता है और हुमायूं को बाहर निकाल मुगलिया चिराग को बुझने से बचाता है.

जानने योग्य तथ्य

…दरअसल मश्क, बकरी की खाल से ही बनती है.…सदियों से मश्क, पानी ढोने के काम आती है.

…कई पुरानी सभ्यताओं वाले मुल्कों की मधुशालाओं में छोटी छोटी मश्कों से, ग्राहकों को मदिरा परोसी जाती है.

…कई समाजों में इन मश्कों में खाद्य पद्यार्थ/अनाज सहेज  कर के रखा जाता है.

चलते चलते

एक समय भिश्ती लोग नगर पालिका में सफाई कर्मचारी होते थे. ये वो ज़माना था जब साधन कम थे, शहर साफ थे. अब विकसित साधन हैं, पर शहर साफ़ नहीं हैं.

इसी भिश्ती को अविभाजित पंजाब में “मश्क वाले चाचा” कह कर इज़्ज़त दी जाती थी, उसे परिवार का सदस्य माना जाता था. बाहर गली में जब आवाज़ लगती थी,

मशक वाला आयापानी मशक भर लाया !” ये आवाज़ सुन के लगता था घर का कोई अपना आया है, कोई “अपना” आवाज़ दे रहा है. बस, आज उसी अपने को,  आवाज़ देने की बारी बावरे मन की थी … धन्यवाद.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)





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