श्रीलंका में गहराता संकट: अब अपने भी छोड़ने लगे राजपक्षे का साथ, क्या संविधान संशोधन को वापस लेने से बचेगा राज


सार

अमर उजाला आपको बता रहा है कि आखिर 2015, फिर 2020 में वह क्या संविधान संशोधन थे, जिनसे बार-बार श्रीलंका में सत्ता के केंद्रीयकरण की तस्वीर बदलती चली गई। 

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श्रीलंका में आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। हालत यह है कि वहां सरकार को अब देश में तेल-गैस और खाद्य सामग्री जैसी बुनियादी जरूरतें पूरा करने के लिए पड़ोसी देशों से तुरंत और ज्यादा से ज्यादा मदद मांगनी पड़ रही है। संकट से उबरने के लिए श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के सामने भी हाथ फैला दिए हैं। वहीं, देश में राजपक्षे भाइयों का विरोध बढ़ता जा रहा है। सत्ताधारी पार्टी के 41 सांसद भी मंगलवार को विपक्ष के खेमे में चले गए।

दबाव के बीच ही मंगलवार को पहली बार राष्ट्रपति ने माना कि श्रीलंका के आर्थिक संकट में उनकी जिम्मेदारी भी है। उधर प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने विपक्ष को प्रस्ताव दिया कि वे संविधान में संशोधन करेंगे और 2015 में लागू हुए 19वें संशोधन को वापस ले आएंगे। जिसमें राष्ट्रपति की शक्तियां कम करने का प्रवधान है। ऐसे में अमर उजाला आपको बता रहा है कि आखिर 2015, फिर 2020 में वह क्या संविधान संशोधन थे, जिनसे बार-बार श्रीलंका में सत्ता के केंद्रीयकरण की तस्वीर बदलती चली गई। 
श्रीलंका की राजनीति में राजपक्षे परिवार का दबदबा है। इस दबदबे को बढ़ाने के लिए राजपक्षे परिवार ने कई बार कानून और संविधान में बदलाव की भी कोशिश की। 2010 में इस तरह का पहला प्रयास हुआ, जब महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रपति रहते हुए संविधान का 18वां संशोधन कराया। इस संशोधन का विरोध करने वाले विपक्ष ने 2015 में चुनाव जीतने के बाद ही संविधान में 19वां संशोधन कराया और 2010 में हुए बदलावों को निष्क्रिय कर दिया। राष्ट्रपति की ताकत बढ़ाने-घटाने का यह खेल यहीं खत्म नहीं हुआ। 2020 में एक बार फिर सत्ता में आने के साथ राजपक्षे ने संविधान में 20वां संशोधन कराया और राष्ट्रपति को 2010 के संशोधन से मिली ताकतों से भी ज्यादा ताकत सौंपने का काम किया। 
1. पहली बार: संविधान का 18वां संशोधन
8 सितंबर 2010 को राजपक्षे सरकार ने 18वां संविधान संशोधन किया। इसके जरिए श्रीलंका में राष्ट्रपति को सर्वेसर्वा बनाने की पहली कोशिश हुई। इस संसोधन के जरिए संसद और प्रधानमंत्री को सिर्फ मूक दर्शक बनाने की कोशिश हुई। इसके पास होने के बाद राष्ट्रपति पद के लिए कोई व्यक्ति जितनी बार चाहे चुनाव के लिए खड़ा हो सकता था और राष्ट्रपति बन सकता था। जबकि पहले कोई भी व्यक्ति सिर्फ दो बार ही राष्ट्रपति चुना जा सकता था। संसोधन में कहा गया कि श्रीलंका के सारे स्वतंत्र आयोग राष्ट्रपति के अंतर्गत रहेंगे। इसके अलावा राष्ट्रपति को कानूनी कार्रवाई से ऊपर रखने के अलावा उन्हें कई और ऐसी ताकतें दी गई थीं, जिनसे वे प्रधानमंत्री और संसद के फैसलों को भी पलट सकते थे।  
महिंदा राजपक्षे के इन्हीं फैसलों का विरोध करते हुए तब मैत्रीपाला सिरिसेना ने मोर्चा खोल दिया था। 2015 में सिरिसेना ने राष्ट्रपति बनने के बाद प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के साथ संविधान में फिर बदलाव कराने का फैसला किया। इसके बाद यूनाइटेड नेशनल फ्रंट की सरकार ने संविधान का 19वां संशोधन पास कराया, जिससे 18वें संशोधन को निष्क्रिय करने का काम किया गया। इसी के साथ श्रीलंका में एक बार फिर 1978 के आधारभूत संविधान के तहत राष्ट्रपति का कार्यकाल सिर्फ दो टर्म के लिए सीमित हो गया। इसके अलावा 19वें संशोधन के जरिए 35 साल से कम उम्र और दोहरी नागरिकता वालों के राष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने पर भी रोक लगा दी गई। 

विक्रमसिंघे और सिरिसेना की ओर से कराए गए इस संसोधन का सीधा निशाना राजपक्षे परिवार ही बना। नए संशोधन के तहत महिंदा राजपक्षे पहले दो बार राष्ट्रपति बन जाने की वजह से तीसरी बार यानी अगले राष्ट्रपति चुनाव में खड़े भी नहीं हो सकते थे, वहीं उनके भाई गोतबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति चुनाव में खड़े होने के लिए अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़नी पड़ती (2019 में गोतबाया ने अमेरिकी नागरिकता छोड़ दी)। इसके अलावा महिंदा के बेटे नमल राजपक्षे, जो कि 2020 में भी 35 साल के न हो पाते, वह इस संशोधन का तीसरा निशाना थे। 
2020 में सत्ता में आने के बाद राष्ट्रपति गोतबाया और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने संविधान का 20वां संशोधन पास कराया। इसके जरिए 19वें संविधान संशोधन से हुए सारे बदलावों को रद्द किया गया और राष्ट्रपति को एक बार फिर सारी ताकतें दी गईं। हालांकि, राष्ट्रपति के कार्यकाल को पांच साल रखने और किसी के अधिकतम दो बार ही इस पद पर रहने की सीमा को बरकरार रखा गया। 

20वें संविधान संशोधन के जरिए राष्ट्रपति को जो अतिरिक्त ताकतें दी गईं, उनमें स्वतंत्र संस्थानों में नियुक्तियों पर आखिरी मुहर से लेकर सरकार के किसी भी फैसले को अंतिम मान्यता देने तक के अधिकार शामिल हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति के किसी भी फैसले को ‘आधारभूत अधिकार आवेदन’ के जरिए चुनौती देने के नागरिकों के हक को भी छीन लिया गया। यानी राष्ट्रपति को असीमित ताकतें दी गईं। इस संशोधन के जरिए राष्ट्रपति से वह प्रोटोकॉल भी हटा लिया गया, जिसमें उन्हें कैबिनेट में किसी मंत्री की नियुक्ति या उन्हें हटाने के लिए प्रधानमंत्री की सलाह लेना अनिवार्य था। खुद प्रधानमंत्री की नियुक्ति और निलंबन के लिए भी राष्ट्रपति की संसद से सलाह-मशविरा करने की जरूरत को भी हटा दिया गया। कुल मिलाकर राष्ट्रपति को संसद से भी ज्यादा ताकतें दी गईं।
श्रीलंका में मौजूदा आर्थिक संकट की नींव 2020 में संविधान के 20वें संशोधन के साथ ही लिखी जा चुकी थी। दरअसल, इस संशोधन से राष्ट्रपति को असीमित ताकतें भी दी गईं और किसी फैसले के प्रति उनकी जवाबदेही भी तय नहीं हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि श्रीलंका के आर्थिक हालात लगातार बिगड़ते गए। इस संकट में राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे का वह फैसला सबसे ज्यादा जिम्मेदार बताया जाता है, जिसमें उन्होंने पूरे देश में ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने का फैसला किया था और किसानों को इनऑर्गेनिक फर्टिलाइजर तक मुहैया कराना बंद करा दिया था। इन अंधाधुंध और बेरोकटोक फैसलों की वजह से ही श्रीलंका में खाद्य संकट तक पैदा हो चुका है। खुद गोतबाया ने सोमवार को यह माना कि उनका फैसला गलत था। हालांकि, अब तक उन्होंने इस्तीफा देने की बात नहीं कही है। 

राजपक्षे परिवार लगातार नए-नए हथकंडों से अपनी सरकार और राष्ट्रपति पद बचाने की कोशिश में है। हालांकि, विपक्ष गोतबाया और महिंदा दोनों ही राजपक्षे भाइयों के इस्तीफे की मांग पर अड़ा है। ऐसे में उन कदमों के बारे में भी जानना जरूरी है, जिनकी वजह से सरकार को 19वें संविधान संशोधन में लौटने तक की नौबत आ गई है। 
ब्रिटेन से 1948 में आजादी मिलने के बाद अपने सबसे बुरे आर्थिक संकट से गुजर रहे श्रीलंका में पिछले महीने से ही खाने, ईंधन और अन्य जरूरी चीजों की भारी कमी हो गई। इसके बाद पीएम राजपक्षे के पूरे मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया था। बिगड़ते हालात के बीच नमल राजपक्षे और चामल राजपक्षे भी इस्तीफा देने वाले 26 मंत्रियों में शामिल रहे थे। माना जा रहा था कि महिंदा राजपक्षे नए कैबिनेट का गठन कर अपने खिलाफ जारी विरोध प्रदर्शनों को दबाना चाहते थे। 
श्रीलंका के राष्ट्रपति ने आपातकाल का एलान करने के साथ ही विपक्ष को न्योता दिया था कि देश के सभी राजनीतिक दलों को समाधान खोजने के लिए ‘एकता सरकार’ में शामिल होना चाहिए। राष्ट्रपति राजपक्षे ने विपक्ष से एक साथ काम करने का आह्वान किया। राष्ट्रपति के मुताबिक, देश की स्थिति संभालने के लिए सभी पार्टियों को एक साथ आकर एक सामूहिक सरकार बनाकर काम करने की जरूरत है। हालांकि, विपक्ष ने राष्ट्रपति के एकता मंत्रिमंडल में शामिल होने के निमंत्रण को बेवकूफी भरा बताते हुए उसे खारिज कर दिया था और फिर से गोतबाया और महिंदा के इस्तीफे की मांग उठाई।
श्रीलंका में राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे ने सोमवार को नए कैबिनेट के गठन का एलान किया। इसमें राजपक्षे परिवार के किसी सदस्य को मंत्रीपद नहीं सौंपा गया। सिर्फ महिंदा राजपक्षे ही प्रधानमंत्री पद पर काबिज रहे। अपने इस कदम के जरिए राजपक्षे सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह समावेशी सरकार बनाने के लिए तैयार है। 
दूसरी तरफ राजपक्षे भाइयों ने विदेशी मदद के जरिए श्रीलंका के हालात सुधारने का वादा किया है। जहां भारत पहले से ही श्रीलंका को आर्थिक मदद पहुंचा रहा है, वहीं अब श्रीलंका के नेता अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी संपर्क में हैं। माना जा रहा है कि आईएमएफ श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए बेलआउट पैकेज का एलान कर सकता है। कर्ज उतारने की एक और कोशिश में श्रीलंका ने बांग्लादेश से संपर्क साधा है। अब तक इस देश का कर्ज देने का कोई रिकॉर्ड तो नहीं रहा, लेकिन अच्छे आर्थिक विकास के चलते श्रीलंका ने बांग्लादेश से मदद मांगी है। 

और अब चौथा कदम: 19वें संशोधन की तरफ वापस लौटाने का एलान।

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श्रीलंका में आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। हालत यह है कि वहां सरकार को अब देश में तेल-गैस और खाद्य सामग्री जैसी बुनियादी जरूरतें पूरा करने के लिए पड़ोसी देशों से तुरंत और ज्यादा से ज्यादा मदद मांगनी पड़ रही है। संकट से उबरने के लिए श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के सामने भी हाथ फैला दिए हैं। वहीं, देश में राजपक्षे भाइयों का विरोध बढ़ता जा रहा है। सत्ताधारी पार्टी के 41 सांसद भी मंगलवार को विपक्ष के खेमे में चले गए।

दबाव के बीच ही मंगलवार को पहली बार राष्ट्रपति ने माना कि श्रीलंका के आर्थिक संकट में उनकी जिम्मेदारी भी है। उधर प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने विपक्ष को प्रस्ताव दिया कि वे संविधान में संशोधन करेंगे और 2015 में लागू हुए 19वें संशोधन को वापस ले आएंगे। जिसमें राष्ट्रपति की शक्तियां कम करने का प्रवधान है। ऐसे में अमर उजाला आपको बता रहा है कि आखिर 2015, फिर 2020 में वह क्या संविधान संशोधन थे, जिनसे बार-बार श्रीलंका में सत्ता के केंद्रीयकरण की तस्वीर बदलती चली गई। 



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