सार
पीठ ने कहा, हाईकोर्ट इस बात पर विचार करने में विफल रहा कि आरोपी पर अपनी 19 साल की भतीजी से दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध का आरोप है। असल में यह आरोपी आदतन अपराधी है। उसके खिलाफ 20 से अधिक मुकदमे दर्ज हैं, लेकिन जमानत के आदेश में इसका जिक्र ही नहीं। पीठ ने कहा, हाईकोर्ट ने इस पर भी विचार नहीं किया कि अगर जमानत मिली तो वह परिवार का वरिष्ठ सदस्य होने के कारण पीड़ित को प्रभावित भी कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च अदालतों के मनमाने ढंग से जमानत देने के चलन पर नाराजगी जताते हुए मंगलवार को कहा, तर्क न्यायिक प्रणाली का जीवन रक्त है। बिना तर्क के जारी हो रहे जमानत आदेश समझ से परे हैं और यह प्रवृत्ति चिंतनीय है। शीर्ष अदालत ने इस
टिप्पणी के साथ ही भतीजी से दुष्कर्म के आरोपी को राजस्थान हाईकोर्ट से मिली जमानत रद्द कर दी।
सीजेआई एनवी रमण और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा, ऐसा चलन देखने को मिल रहा है जब जमानत के ऐसे आदेश पारित किए जा रहे हैं जिनमें अदालतें एक सामान्य अवलोकन करती हैं कि ‘तथ्यों और परिस्थितियों’ पर विचार किया गया है। कोई विशिष्ट कारण इंगित नहीं किया जाता है। हैरत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की प्रथा को अस्वीकार करने वाले कई फैसलों के बावजूद यह स्थिति बरकरार है।
पीठ सीकर की उस लड़की की अपील पर सुनवाई कर रही थी जिसमें राजस्थान हाईकोर्ट से उसके चाचा को मिली जमानत को चुनौती दी गई थी। हाईकोर्ट ने उसके चाचा को तीन से चार साल तक उसके साथ दुष्कर्म करने के मामले में जमानत दी थी। हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए पीठ ने कहा, हाईकोर्ट का आदेश समझ से परे है, इसमें दिमागी कसरत नहीं की गई।
आदतन अपराधी, 20 से अधिक मुकदमे लेकिन जमानत आदेश में जिक्र ही नहीं
पीठ ने कहा, हाईकोर्ट इस बात पर विचार करने में विफल रहा कि आरोपी पर अपनी 19 साल की भतीजी से दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध का आरोप है। असल में यह आरोपी आदतन अपराधी है। उसके खिलाफ 20 से अधिक मुकदमे दर्ज हैं, लेकिन जमानत के आदेश में इसका जिक्र ही नहीं। पीठ ने कहा, हाईकोर्ट ने इस पर भी विचार नहीं किया कि अगर जमानत मिली तो वह परिवार का वरिष्ठ सदस्य होने के कारण पीड़ित को प्रभावित भी कर सकता है। इसके अलावा तीन साल की कारावास की अवधि इस तरह के अपराध के लिए इतनी नहीं है कि हाईकोर्ट उसे जमानत दे दे।
अदालतों को नसीहत, हर फैसले में तर्क होना जरूरी
- पीठ ने अदालतों को नसीहत देते हुए कहा, तर्क हमारी न्याय प्रणाली का मौलिक सिद्धांत है। हर आदेश में तर्क का होना जरूरी है। बिना तर्क वाले आदेश में मनमानी की झलक रहती है। हमें इससे बचना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट बार बार इस तरह के आदेशों को खारिज करता रहा है। खासतौर से गंभीर अपराध के मामलों में विशेष सतर्कता दिखाई जानी चाहिए।
- जमानत देने का एक समान फार्मूला नहीं : सुप्रीम कोर्ट ने कहा, कोई एक समान फॉर्मूला नहीं है कि अदालत को जमानत देने की अपनी शक्ति का प्रयोग करते समय किन कारकों पर विचार करना चाहिए। हालांकि प्रथम दृष्टया अभियुक्त की संलिप्तता, प्रकृति और आरोप की गंभीरता, सजा की गंभीरता आदि कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं जिनपर हमेशा विचार किया जाता है।
हाईकोर्ट से मिली जमानत पर लगातार दूसरे दिन शीर्ष अदालत सख्त
सुप्रीम कोर्ट ने लगातार दूसरे दिन हाईकोर्ट से मिली जमानत पर सख्त टिप्पणी की है। सोमवार को लखीमपुर हिंसा मामले में मुख्य आरोपी को इलाहाबाद हाईकोर्ट से मिली जमानत पर भी सुप्रीम कोर्ट ने मनमानी और जल्दबाजी को लेकर चिंता जाहिर की थी। इसके बाद मंगलवार को राजस्थान हाईकोर्ट की जमानत पर भी सुप्रीम कोर्ट को अपनी नसीहत दोहरानी पड़ी।
धोखाधड़ी की राशि ब्याज समेत चुका देने से सजा कम नहीं हो जाती
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा, एक अपराधी सरकारी कर्मचारी की सजा कम करने की सहानुभूति सिर्फ इसलिए नहीं दिखाई जा सकती कि उसने धोखाधड़ी की राशि को ब्याज के साथ जमा कर दिया है। जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस वी नागरत्ना की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश के खिलाफ केंद्र की अपील को स्वीकार कर लिया जिसमें डाक सहायक एम दुरईसामी को सेवा से हटाने की सजा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति में बदलने के फैसले की पुष्टि की गई थी।
कर्मचारी पर खातों से 16.59 लाख रुपये की निकासी कर डाक विभाग के साथ धोखाधड़ी का आरोप था। जब धोखाधड़ी का पता चला तो उसने ब्याज समेत 18.09 लाख रुपये जमा कर दिए थे। पीठ ने कहा, विभाग की गुडविल, नाम और प्रसिद्धि और जनता के बीच इसकी विश्वसनीयता के कारण विभाग को हुए नुकसान का क्या होगा? अपराधी कर्मचारी के इस तरह के कदाचार से विभाग की प्रतिष्ठा खराब हुई।
पैतृक संपत्ति का बंटवारा सभी भागीदारों की सहमति से ही
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि संयुक्त परिवार की पैतृक संपत्ति का बंटवारा सभी भागीदारों की सहमति से ही किया जा सकता है। न्यायमूर्ति एसए नजीर व न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि अगर किसी सहभागी की सहमति नहीं ली जाती, और वह आपत्ति दर्ज करता है, तो बंटवारा निरर्थक हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह साफ है कि हिंदू पिता/संयुक्त हिंदू परिवार के मुखिया को अधिकार है कि वह पैतृक संपत्ति को ‘पवित्र उद्देश्य’ से चैरिटेबल ट्रस्ट या धार्मिक कार्य के लिए उपहार में दे सकता है।
विस्तार
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च अदालतों के मनमाने ढंग से जमानत देने के चलन पर नाराजगी जताते हुए मंगलवार को कहा, तर्क न्यायिक प्रणाली का जीवन रक्त है। बिना तर्क के जारी हो रहे जमानत आदेश समझ से परे हैं और यह प्रवृत्ति चिंतनीय है। शीर्ष अदालत ने इस
टिप्पणी के साथ ही भतीजी से दुष्कर्म के आरोपी को राजस्थान हाईकोर्ट से मिली जमानत रद्द कर दी।
सीजेआई एनवी रमण और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा, ऐसा चलन देखने को मिल रहा है जब जमानत के ऐसे आदेश पारित किए जा रहे हैं जिनमें अदालतें एक सामान्य अवलोकन करती हैं कि ‘तथ्यों और परिस्थितियों’ पर विचार किया गया है। कोई विशिष्ट कारण इंगित नहीं किया जाता है। हैरत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की प्रथा को अस्वीकार करने वाले कई फैसलों के बावजूद यह स्थिति बरकरार है।
पीठ सीकर की उस लड़की की अपील पर सुनवाई कर रही थी जिसमें राजस्थान हाईकोर्ट से उसके चाचा को मिली जमानत को चुनौती दी गई थी। हाईकोर्ट ने उसके चाचा को तीन से चार साल तक उसके साथ दुष्कर्म करने के मामले में जमानत दी थी। हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए पीठ ने कहा, हाईकोर्ट का आदेश समझ से परे है, इसमें दिमागी कसरत नहीं की गई।
आदतन अपराधी, 20 से अधिक मुकदमे लेकिन जमानत आदेश में जिक्र ही नहीं
पीठ ने कहा, हाईकोर्ट इस बात पर विचार करने में विफल रहा कि आरोपी पर अपनी 19 साल की भतीजी से दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध का आरोप है। असल में यह आरोपी आदतन अपराधी है। उसके खिलाफ 20 से अधिक मुकदमे दर्ज हैं, लेकिन जमानत के आदेश में इसका जिक्र ही नहीं। पीठ ने कहा, हाईकोर्ट ने इस पर भी विचार नहीं किया कि अगर जमानत मिली तो वह परिवार का वरिष्ठ सदस्य होने के कारण पीड़ित को प्रभावित भी कर सकता है। इसके अलावा तीन साल की कारावास की अवधि इस तरह के अपराध के लिए इतनी नहीं है कि हाईकोर्ट उसे जमानत दे दे।
Source link