अमर उजाला 'हिंदी हैं हम' शब्द श्रृंखला में आज का शब्द है- गठन, जिसका अर्थ है- निर्माण, संस्थापना, रचना, बनावट, गठे होने की अवस्था या भाव। प्रस्तुत है रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित उर्वशी से चुनिंदा अंश
सहजन्या
कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?
सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर।
रम्भा-
सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है
जहाँ प्रेम की मादकता मॅ भी यातना निहित है
नहीं पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है
जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है।
और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नहीं सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान में यौवन गल जाता है
ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है।
रुक जाती है राह स्वप्न-जग में आने-जाने की,
फूलों में उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की।
मेघों में कामना नहीं उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणों में फिर नही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है।
रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रहते हैं,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते हैं।
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?
सहजन्या
उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी ,
सचमुच ही, कर रही नरक में जाने की तैयारी।
तू ने भी रम्भे ! निर्घिन क्या बातें बतलाई है!
अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़ती दिखलाई है।
गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?
यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?
जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?
किरणमयी यह परी करेगी यह विरूपता धारण?
वह भी और नहीं कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?
रम्भा-
हाँ, अब परियां भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,
और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को
जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,
प्रथम ग्रास में ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;
धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,
छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,
पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,
और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को।
इसी देव की बाहों में झुलसेंगी अब परियाँ भी
यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी.
पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी में हलराएँगी
मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी.
पहनेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,
नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली।
मेनका-
पर, रम्भे ! क्या कभी बात यह मन में आती है,
माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शांति कैसी मन में जगती है!
रूपमती भी सखी ! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
जो गोदी में लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो
[एक अप्सरा गुनगुनाती हुई उड़ती आ रही है]
रम्भा-
अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?
रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?
तुम्हें नहीं लगता क्या, जैसे इसे कहीं देखा है?
सहजन्या
दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है।
सब
अरी चित्रलेखे ! हम सब है यहाँ कुसुम के वन में;
जल्दी आ, सब लोग चलें उड़ होकर साथ गगन में.
भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई।
चित्रलेखा-
रुको, रुको क्षण भर सहचरियां! आई, मैं यह आई
खेल रही हो यहीं अभी तक तारों की छाया में?
स्वर्ग भूल ही गया तुम्हें भी मिट्टी की माया में?
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