2019 में हारे थे निरहुआ, फिर कैसे मिल गया टिकट?
दिनेश लाल यादव निरहुआ 2019 में भाजपा के टिकट पर सपा के अखिलेश यादव के खिलाफ चुनाव लड़े थे। हालांकि, अखिलेश ने एकतरफा जीत हासिल करते हुए निरहुआ से करीब दोगुने वोट हासिल कर लिए थे। इस जीत के बाद भाजपा का मनोबल जरूर टूटा, लेकिन निरहुआ का इस क्षेत्र से संपर्क बिल्कुल नहीं। इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में भी निरहुआ जोर-शोर से पार्टी के प्रचार में जुटे रहे। जहां आजमगढ़ में उनके गाने लगातार बजते रहे तो वहीं कई मौकों पर वे खुद क्षेत्र में प्रचार करते नजर आए। उनकी इस मेहनत के बावजूद भाजपा को क्षेत्र की पांचों सीटों पर हार मिली, लेकिन पार्टी कैडर ने उनकी इस मेहनत और उनके रोड शो में जुटी भीड़ को देखते हुए उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगा लिया था।
क्या योगी आदित्यनाथ से करीबी निरहुआ के काम आई?
निरहुआ को दूसरी बार आजमगढ़ सीट से टिकट मिलने के पीछे उनकी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से करीबी को भी एक वजह बताया जा रहा है। 2019 के चुनाव के बाद से ही भाजपा लगातार पूर्वी यूपी में निरहुआ को चुनाव प्रचार में इस्तेमाल कर रही है। खुद निरहुआ ने इस साल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले योगी को सीएम बनाने के समर्थन में वीडियो जारी कर चुके थे। इसमें निरहुआ ने आदित्यनाथ को न सिर्फ 2022 बल्कि 2027 में भी सीएम बनाने का आह्वान किया। आजमगढ़ लोकसभा सीट पर निरहुआ का नाम घोषित होने के बाद योगी पिछले हफ्ते ही उनके प्रचार कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे। जहां निरहुआ लगातार चुनाव में योगी की विधानसभा चुनाव में जीत का मुद्दा उठाते रहे, वहीं योगी आदित्यनाथ ने हिंदुत्व कार्ड खेलते हुए आजमगढ़ का नाम बदलकर आर्यमगढ़ करने के संकेत तक दे दिए।
निरहुआ की लोकप्रियता कितनी हावी रही?
निरहुआ के खड़े होने से कैसे फिट बैठे जातीय समीकरण?
आजमगढ़ के जातिगत समीकरणों को देखा जाए तो इस सीट पर सबसे ज्यादा चार लाख यादव वोटर हैं। वहीं तीन लाख मुस्लिम और 2.75 लाख दलित वोटर हैं। 2019 में जब निरहुआ को अखिलेश यादव के खिलाफ चुनाव लड़ाया गया, उस दौरान समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) दोनों ही साथ लड़ रही थीं। बताया जाता है कि इस सीट पर अखिलेश की बंपर जीत का मुख्य कारण मुस्लिम और दलित वोटों का साथ आ जाना था। हालांकि, इस बार के चुनाव में बसपा के अलग से लड़ने की वजह से तस्वीर बिल्कुल अलग रही। बसपा ने इस बार दलित वोटों के साथ मुस्लिम वोटों को साधने के लिए शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को टिकट दिया। यानी धर्मेंद्र यादव के लिए तय मुस्लिम वोटों को पहले ही बसपा ने काट दिया। दूसरी तरफ निरहुआ की लोकप्रियता और उनका यादव होना भी धर्मेंद्र के लिए मुसीबत बढ़ाने वाला साबित हुआ। यादव वोटों के बिखरने से निरहुआ के लिए यह चुनाव आसान हो गया, जबकि कड़ी टक्कर देने के बावजूद धर्मेंद्र यादव को हार मिली।