अमर उजाला विश्लेषण: गर्म है प्रशांत किशोर का बाजार, ‘कंपनी’ बन रहे सियासी दलों को रास आ रहे लैपटॉप वाले ‘मैनेजर’


सार

राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. राघव शरण शर्मा कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र तब खड़ा हुआ था, जब देश अंग्रेजों से लड़ रहा था। कई बदलाव देखे गए। अनेक क्रांतिकारियों को विचार से बाहर से कर दिया गया। विचार में कौन आ गए, एओ हृयूम जैसे लोग आ गए। वायसराय का दखल होने लगा। आज असल लोकतंत्र है ही कहां?

प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर
– फोटो : PTI (File Photo)

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विस्तार

दशकों से चली आ रही राजनीति अब करवट ले रही है। नए राजनीतिक परिवेश में बहुत कुछ बदल रहा है। जन आंदोलनों से प्रेरित राजनीति अब खत्म हो चली है। ‘दल और नेता’ उपयोगी ‘ब्रांड’ की तरह पेश किए जा रहे हैं। सियासत में कंपनियों के तौर पर प्रचलन में आ रहे राजनीतिक दलों को लैपटॉप वाले ‘प्रशांत किशोर’ खासे रास आने लगे हैं। मौजूदा परिवेश की नई सियासत, जहां राजनीति का अर्थ सत्ता के लिए चुनाव का तात्कालिक प्रबंध हो गया है, वहां उम्मीदवारों को वोटरों के सामने राजनीतिक सौदागरी करने वाली कंपनियों के प्रतिनिधियों की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। आखिर क्यों गर्म है ‘प्रशांत किशोर’ का बाजार। देश में दशकों तक सत्ता भोगने वाली कांग्रेस पार्टी से लेकर अनेक क्षेत्रीय दलों पर पीके का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। राजनीतिक दल चाहते हैं कि ये ‘मैनेजर’ उनके साथ काम करें।

तब जमीन से जुड़े सवाल होते थे, नेतृत्व भी सूझबूझ वाला था…     

देश के दो वरिष्ठ राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. राघव शरण शर्मा और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. आनंद कुमार ने प्रशांत किशोर को लेकर अमर उजाला डॉट कॉम के साथ विशेष बातचीत की है। डॉ. कुमार ने कहा, भारत के राजनीतिक दलों के इतिहास को देखें तो उनमें जन आंदोलनों की बड़ी भूमिका रही है। तब जमीन से जुड़े सवाल होते थे और वैसी ही सूझबूझ से पार्टी कार्यकर्ता, नेतृत्व करते थे। 1990 में कुछ ऐसा हुआ कि राजनीतिक व आर्थिक प्रबंध का गठजोड़ हो गया। राजनीति की लगाम आर्थिक हितों वाले लोगों के हाथ में चली गई। कंपनी की तरह वोट बैंक का सौदा करने वाले लोग आ गए। आज सत्ता की सौदागरी करने वालों में कोई भी दल अछूता नहीं बचा है। यही, नए परिवेश की राजनीति है, जहां राजनीति का अर्थ सत्ता के लिए चुनाव का तात्कालिक प्रबंध करना रहा है। दलों को वोटरों के सामने एक उपयोगी ब्रांड की तरह पेश किया जाता है। विभिन्न दलों के उम्मीदवारों को सौदागरी करने वाली कंपनियों के प्रतिनिधि के तौर पर जनता के सम्मुख खड़ा कर रहे हैं। सियासत की सौदागरी कर रही कंपनियां, वोटरों को तात्कालिक नगद भुगतान कर देती हैं।

दल बदल गए, चुनाव और मतदान का अर्थ बदल गया  

बतौर प्रो. आनंद कुमार, देश के राजनीतिक सिस्टम में दल बदल गए हैं। चुनाव और मतदान का अर्थ बदल गया है। हालांकि संपन्न पूंजीवादी देशों की बात करें तो वहां पर ऐसा रूपांतरण दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही देखा जा रहा है। नतीजा, आज यूएस राष्ट्रपति का चुनाव सबसे महंगा हो चला है, ऐसी खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं। जर्मनी व फ्रांस जैसे देशों में भी वोटरों को कई महंगे तरीकों से लुभाया जाता है। अब जनहित की बजाए ‘अस्मिता’ की राजनीति हो गई है। इसी वजह से भारत में भी चुनाव महंगे हो चले हैं। अस्मिता की राजनीति की आग में हर दल भरपूर घी डाल रहा है। अब गांधी जैसे नैतिक नायक नहीं रहे तो दूसरी ओर नेहरू, सुभाष, पटेल व मौलाना जैसे दूरदर्शी सेनापति की जरुरत भी नहीं बची। राजनीति के बाजार में अब लोहिया, नेहरू व वाजपेयी को कौन पूछेगा। नेतृत्व संकट व दिशा संकट का हल तलाशने के बीच ‘प्रशांत किशोर’ जैसे लोगों का बाजार गर्म हो रहा है।

लोकतंत्र तो बचा ही नहीं है, कौन हुआ विचार से बाहर

राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. राघव शरण शर्मा कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र तब खड़ा हुआ था, जब देश अंग्रेजों से लड़ रहा था। कई बदलाव देखे गए। अनेक क्रांतिकारियों को विचार से बाहर से कर दिया गया। विचार में कौन आ गए, एओ हृयूम जैसे लोग आ गए। वायसराय का दखल होने लगा। आज असल लोकतंत्र है ही कहां। प्रशांत किशोर जैसे लोग शहरी मध्यम वर्ग के बलबूते चर्चा में हैं। जब सुभाष बोस जैसे लोग विचारों से बाहर कर दिए गए तो लोकतंत्र की कल्पना कैसे करेंगे। गांव के आदिवासी और गरीब की चिंता किसी को नहीं है। प्रशांत किशोर, शहरी लोगों के दम पर अपना सिक्का चमका रहे हैं। राजनीतिक दल भी गांव वालों के पीछे नहीं जा रहे। जातिवाद का घोर बोलबाला है। लोहिया, जयप्रकाश और आरएसएस किसी ने लोकतंत्र को नहीं माना। कभी हिंदू-मुस्लिम की लड़ाई है तो कभी जाट, हरिजन व यादव आ जाते हैं। अति पिछड़ी जातियों का इस्तेमाल करना सियासतदान जानते हैं।

कांग्रेस में पहले हाईकमान था, अब तो व्यक्तिवाद है

कांग्रेस पार्टी को लेकर डॉ. राघव शरण शर्मा कहते हैं कि इस पार्टी में पहले हाईकमान था। कुछ सुनवाई हो जाती थी। वर्किेंग कमेटी का रोल भी खत्म हो चला है। अब तो नाम के लिए बैठक होती है। कांग्रेस में मनमानी तो पहले भी होती थी, लेकिन एक तरीका होता था। अब तो वह भी गायब हो चला है। आज तो व्यक्तिवाद का बोलबाला है। न पार्टी है न नेता हैं। जनता ऊब चुकी है। कहीं पर हिंदू भाग रहे हैं तो कहीं से मुस्लिम दौड़ रहे हैं। ऊटपटांग बयानबाजी हो रही है। कांग्रेस में मजबूत केंद्रीय नेतृत्व की कमी है। राजनीति समझने वाले नेता भी कहां रहे। इतना तो ध्यान रखें कि प्रशांत किशोर के लैपटॉप से बाहर जनता भी है। प्रशांत किशोर भले ही लैपटॉप के अंदर हैं, जनता के मुद्दे भी हैं। बजरंग बली तो इंदिरा भी बोली थीं, लेकिन जनता ने गरीबी पर वोट दिया था। प्रशांत किशोर का बाजार गर्म रहेगा। राजनीतिक दल भी तो एक कंपनी बन गए हैं। ऐसे में मुद्दे उठाने वाले निष्ठावान और मेहनतकश कार्यकर्ताओं का अभाव हो चला है। ये सब परिस्थितियां लैपटॉप वाले प्रशांत किशोर को मौका देती रहेंगी।



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