BJP Shivsena: मुर्मू को समर्थन मजबूरी, उद्धव-भाजपा की दोस्ती फिलहाल दूर की कौड़ी


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राष्ट्रपति चुनाव में राजग उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को शिवसेना के समर्थन के राजनीतिक निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं। इसे भाजपा और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बीच रिश्ता सुधरने की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। शिवसेना के कई सांसदों ने भी उद्धव को भाजपा से रिश्ते सुधारने की सलाह दी है लेकिन उद्धव महाराष्ट्र की राजनीति में जिस मोड़ पर खड़े हैं, उसमें इसकी संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती है।

दरअसल उद्धव के सामने फिलहाल फिर से राजग में शामिल होने या महा विकास आघाड़ी में रहकर भाजपा का विरोध जारी रखने का ही विकल्प है। हालांकि ये दोनों ही विकल्प उद्धव के लिए आसान सियासी राह बनाने में अक्षम हैं। शिवसेना का फिर से राजग में शामिल होने का अर्थ है कि उद्धव को विरोधी गुट खासकर एकनाथ शिंदे का नेतृत्व स्वीकार करना होगा। नई परिस्थिति में वह अपने पिता बाला साहेब ठाकरे के अनुरूप रिमोट के जरिए सरकार नहीं चला पाएंगे। इस स्थिति में शिवसेना में उनकी स्थिति लगातार कमजोर होती चली जाएगी। दूसरा विकल्प महा विकास आघाड़ी में बने रहकर भाजपा का विरोध जारी रखने का है। यह रास्ता भी आसान नहीं है। शिवसेना में टूट का मुख्य कारण भी उसका कभी धुर विरोधी रहे एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करना रहा है। इसी सवाल पर विधायक दल में टूट का सिलसिला निगमों, निकायों में शुरू हो गया है। पार्टी के संसदीय दल में भी टूट का खतरा मंडरा रहा है। इस टूट के कारण शिवसेना की हिंदुत्व की राजनीति को गहरा झटका लगा है।

एकला चलो की नीति भी कारगर नहीं
उद्धव के पास अकेले अपना रास्ता बनाने का भी विकल्प है। मगर पार्टी में टूट का सिलसिला जारी रहने के कारण उद्धव पहले की तरह मजबूत नहीं रह गए हैं। इस विकल्प को स्वीकारने पर सबसे पहले महा विकास आघाड़ी गठबंधन का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वैसे बीएमसी चुनाव से पहले इस गठबंधन का टूटना तय है। उद्धव के इस चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी को सीटें देने की उम्मीद कम है। अगर उद्धव गठबंधन करेंगे तो उनकी हिंदुत्व की राजनीति और कमजोर हो जाएगी। गठबंधन न करने की स्थिति में गठबंधन का टूटना तय है।

भाजपा को भी रास नहीं आएगा साथ
महाराष्ट्र में भाजपा की रणनीति शिवसेना को ठाकरे परिवार से मुक्त करने की है। उद्धव से हाथ मिलाने के फैसले के बाद पार्टी की इस रणनीति पर पानी फिर जाएगा। भाजपा अब राज्य की राजनीति में हमेशा के लिए बड़े भाई की भूमिका चाहती है। उद्धव को भंवर से निकालने के बाद उनके किसी भी समय फिर से मजबूत होने की आशंका बनी रहेगी। ऐसे में भविष्य में सत्ता के नेतृत्व के सवाल पर फिर से विवाद की संभावना भी बनी रहेगी।

बीएमसी चुनाव के बाद तस्वीर होगी साफ
शिवसेना और उद्धव का भविष्य क्या होगा, यह सितंबर में होने वाले बीएमसी चुनाव के नतीजे तय करेंगे। बीते ढाई दशक से बीएमसी में काबिज शिवसेना अगर सत्ता नहीं बचा पाई तो राज्य की राजनीति में उद्धव की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। पार्टी के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं का बहुमत एकनाथ शिंदे गुट के साथ चला जाएगा। इसके उलट अगर उद्धव बीएमसी में पार्टी की सत्ता बरकरार रखने में कामयाब हुए तो उनके विरोधी गुट और भाजपा की परेशानी बढ़ेगी।

विस्तार

राष्ट्रपति चुनाव में राजग उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को शिवसेना के समर्थन के राजनीतिक निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं। इसे भाजपा और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बीच रिश्ता सुधरने की शुरुआत के रूप में देखा जा रहा है। शिवसेना के कई सांसदों ने भी उद्धव को भाजपा से रिश्ते सुधारने की सलाह दी है लेकिन उद्धव महाराष्ट्र की राजनीति में जिस मोड़ पर खड़े हैं, उसमें इसकी संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती है।

दरअसल उद्धव के सामने फिलहाल फिर से राजग में शामिल होने या महा विकास आघाड़ी में रहकर भाजपा का विरोध जारी रखने का ही विकल्प है। हालांकि ये दोनों ही विकल्प उद्धव के लिए आसान सियासी राह बनाने में अक्षम हैं। शिवसेना का फिर से राजग में शामिल होने का अर्थ है कि उद्धव को विरोधी गुट खासकर एकनाथ शिंदे का नेतृत्व स्वीकार करना होगा। नई परिस्थिति में वह अपने पिता बाला साहेब ठाकरे के अनुरूप रिमोट के जरिए सरकार नहीं चला पाएंगे। इस स्थिति में शिवसेना में उनकी स्थिति लगातार कमजोर होती चली जाएगी। दूसरा विकल्प महा विकास आघाड़ी में बने रहकर भाजपा का विरोध जारी रखने का है। यह रास्ता भी आसान नहीं है। शिवसेना में टूट का मुख्य कारण भी उसका कभी धुर विरोधी रहे एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करना रहा है। इसी सवाल पर विधायक दल में टूट का सिलसिला निगमों, निकायों में शुरू हो गया है। पार्टी के संसदीय दल में भी टूट का खतरा मंडरा रहा है। इस टूट के कारण शिवसेना की हिंदुत्व की राजनीति को गहरा झटका लगा है।

एकला चलो की नीति भी कारगर नहीं

उद्धव के पास अकेले अपना रास्ता बनाने का भी विकल्प है। मगर पार्टी में टूट का सिलसिला जारी रहने के कारण उद्धव पहले की तरह मजबूत नहीं रह गए हैं। इस विकल्प को स्वीकारने पर सबसे पहले महा विकास आघाड़ी गठबंधन का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वैसे बीएमसी चुनाव से पहले इस गठबंधन का टूटना तय है। उद्धव के इस चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी को सीटें देने की उम्मीद कम है। अगर उद्धव गठबंधन करेंगे तो उनकी हिंदुत्व की राजनीति और कमजोर हो जाएगी। गठबंधन न करने की स्थिति में गठबंधन का टूटना तय है।

भाजपा को भी रास नहीं आएगा साथ

महाराष्ट्र में भाजपा की रणनीति शिवसेना को ठाकरे परिवार से मुक्त करने की है। उद्धव से हाथ मिलाने के फैसले के बाद पार्टी की इस रणनीति पर पानी फिर जाएगा। भाजपा अब राज्य की राजनीति में हमेशा के लिए बड़े भाई की भूमिका चाहती है। उद्धव को भंवर से निकालने के बाद उनके किसी भी समय फिर से मजबूत होने की आशंका बनी रहेगी। ऐसे में भविष्य में सत्ता के नेतृत्व के सवाल पर फिर से विवाद की संभावना भी बनी रहेगी।

बीएमसी चुनाव के बाद तस्वीर होगी साफ

शिवसेना और उद्धव का भविष्य क्या होगा, यह सितंबर में होने वाले बीएमसी चुनाव के नतीजे तय करेंगे। बीते ढाई दशक से बीएमसी में काबिज शिवसेना अगर सत्ता नहीं बचा पाई तो राज्य की राजनीति में उद्धव की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। पार्टी के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं का बहुमत एकनाथ शिंदे गुट के साथ चला जाएगा। इसके उलट अगर उद्धव बीएमसी में पार्टी की सत्ता बरकरार रखने में कामयाब हुए तो उनके विरोधी गुट और भाजपा की परेशानी बढ़ेगी।



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