अंतिम वायसराय का प्रस्थान : भारत-पाकिस्तान विभाजन और ब्रिटिश हितों की वजह से यूं उलझती गई कश्मीर की कहानी


ख़बर सुनें

चौहत्तर साल पहले 21 जून, 1948 को लार्ड माउंटबेटन के पालम एयरपोर्ट से इंग्लैंड रवाना होने के साथ हमारी गुलामी का वह आखिरी चिराग भी बुझ गया, जिसे हमारे नेताओं ने खुद बड़े जतन से जला रखा था। वे रोके क्यों गए थे? यह सवाल आश्चर्यचकित करता है। विश्व इतिहास में शायद ही ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हो जब गुलाम शोषितों के नेताओं ने स्वयं साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि शासक को आजाद होने के बाद भी अपने यहां राज्याध्यक्ष की हैसियत में रोक लिया हो। 

क्या इसलिए कि हमारे अपने नेता विभाजन की विभीषिका, उसके परिणामों के सामने नर्वस या अक्षम हो रहे थे? यदि ऐसा था, तो हमारे नेताओं ने क्या जान स्टैची और रुडयार्ड किपलिंग का वह कथन सत्य साबित नहीं कर दिया कि भारतीयों में स्वशासन की क्षमता ही नहीं है? जिस देश का राज्याध्यक्ष औपनिवेशक काल से चला आ रहा हो उसकी आजादी का अर्थ क्या बना? सही मायनों में देखें, तो हम औपनिवेशक शासक की विदाई के बाद 21 जून, 1948 को आजाद हुए।

माउंटबेटन का पहला दायित्व प्रत्येक दशा में ब्रिटिश हित की रक्षा करना ही था। जब संविधान नहीं था, तो 15 अगस्त को गवर्नर जनरल माउंटबेटन व प्रधानमंत्री नेहरू का शपथ ग्रहण ब्रिटिश महारानी के प्रति स्वामिभक्त सेवक के रूप में ही हुआ। अब आजादी के बाद भारतीय क्षेत्र में ब्रिटिश हित क्या थे? सोवियत यूनियन का विस्तार एक बड़ी जियो-पॉलिटिकल समस्या था। अफगानिस्तान एक बफर की हैसियत में था। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पाकिस्तान का निर्माण ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रयोगशाला में ही हुआ। 

1940 में लाहौर प्रस्ताव पढ़ा गया और 14 अगस्त 1947 को बतौर इस्लामी देश पाकिस्तान आजाद भी हो गया। वरना सात वर्षों में नए देश नहीं बना करते। ब्रिटेन के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि इस नए देश की कहीं भ्रूणहत्या न हो जाए। इसीलिए पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी व सरहदी सूबे में कांग्रेसी सरकारें बर्खास्त की गईं। कनिंघम को बुला कर गवर्नर बनाया गया। भारत-पाकिस्तान की सीमा का निर्धारण होना था। रेडक्लिफ अपने काम में लगे थे। कश्मीर का एजेंडा अभी लंबित था। 

कश्मीर यात्रा में माउंटबेटन ने महाराजा हरी सिंह से कहा था कि यदि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प देता है, तो भारत के नेताओं को आपत्ति न होगी। हरी सिंह की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं। पाकिस्तान का इस्लाम के अलावा कोई वैचारिक आधार था ही नहीं अतः वह कम्युनिस्ट विस्तार के विरुद्ध एक स्वाभाविक मोहरा था। इस दृष्टि से कश्मीर विशेषकर गिलगित-बाल्टिस्तान का पाकिस्तान में जाना ब्रिटिश हित के अनुकूल था।

जब रेडक्लिफ एवार्ड ने गुरुदासपुर को भारत में शामिल किया, तो यह स्पष्ट हो गया कि माउंटबेटन ने नेहरू के प्रभाव में आकर कश्मीर के लिए यह सड़क मार्ग भारत को उपलब्ध करा दिया है। यदि यह गुरुदासपुर कॉरिडोर भारत को न मिलता, तो भारत के लिए कश्मीर के लिए कोई अभियान भी चलाना संभव न था। बलोचिस्तान की तरह कश्मीर भी पाकिस्तान का अंग हो जाता। लेकिन इस तरह कश्मीर विवाद की भूमिका लिख गई। 23 अक्तूबर, 1947 को हुए कबायली आक्रमण के समय भारत पाकिस्तान दोनों में ब्रिटिश सेनाध्यक्ष थे। 

प्रत्येक घटना की जानकारी माउंटबेटन को हो रही थी। नेहरू जी भ्रम अनिर्णय के शिकार थे। वह तो सरदार का दखल था कि विलय हस्ताक्षरित हुआ व सेनाएं श्रीनगर में 27 को उतरने लगीं तब कश्मीर घाटी बच सकी। घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि कश्मीर घाटी का भारत में रह जाना एक चमत्कार से कम नहीं है। यह ब्रिटिश एजेंडे के विपरीत रहा होगा। फिर भी माउंटबेटन ने सुनिश्चित किया कि घाटी में उड़ी से आगे उत्तर में स्कर्दू की ओर भारतीय सेना न बढ़े।

यह युद्ध ऐसी शतरंज थी, जिसमें दोनों ओर से ब्रिटिश सेनाध्यक्ष फ्रेंडली मैच खेल रहे थे। उनका उद्देश्य अपनी-अपनी सेनाओं को इच्छित सीमाओं तक सीमित करने का था। गिलगित एजेंसी जुलाई 1947 में महाराजा के पास वापस आती है। कबायली आक्रमण से भारत-पाकिस्तान युद्ध 26 अक्तूबर, 1947 को प्रारंभ हो जाता है। एक नवंबर, 1947 को गिलगित में महाराजा की सेना में कार्यरत मेजर ब्राउन जो मूलतः ब्रिटिश एजेंट था, विद्रोह कर पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर देता है। आश्चर्य यह है कि गिलगित भारत का भाग हो चुका है, लेकिन भारत का ब्रिटिश सेनाध्यक्ष व माउंटबेटन कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करते। 

न ही स्कर्दू को आजाद कराते हैं। वह इलाका बिना किसी प्रतिरोध के पाकिस्तान को चला जाता है। जम्मू में युद्ध चल रहा है। जवान शहीद हो रहे हैं। इधर हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी उस युद्ध के दौरान पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा पाकिस्तान का रोक दिया गया पानी फिर से चालू कराते हैं। लगता है कि माउंटबेटन का भारत में रुकना कश्मीर विभाजन के एक एजेंडे के तहत था। माउंटबेटन न रहे होते, तो देश में ब्रिटिश सेनाध्यक्ष के स्थान पर जनरल करियप्पा या जनरल नाथू सिंह होते। सेना पूरी शक्ति से युद्ध करती। पाकिस्तान के कश्मीर ख्वाब का अंत हो जाता।

विस्तार

चौहत्तर साल पहले 21 जून, 1948 को लार्ड माउंटबेटन के पालम एयरपोर्ट से इंग्लैंड रवाना होने के साथ हमारी गुलामी का वह आखिरी चिराग भी बुझ गया, जिसे हमारे नेताओं ने खुद बड़े जतन से जला रखा था। वे रोके क्यों गए थे? यह सवाल आश्चर्यचकित करता है। विश्व इतिहास में शायद ही ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हो जब गुलाम शोषितों के नेताओं ने स्वयं साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि शासक को आजाद होने के बाद भी अपने यहां राज्याध्यक्ष की हैसियत में रोक लिया हो। 

क्या इसलिए कि हमारे अपने नेता विभाजन की विभीषिका, उसके परिणामों के सामने नर्वस या अक्षम हो रहे थे? यदि ऐसा था, तो हमारे नेताओं ने क्या जान स्टैची और रुडयार्ड किपलिंग का वह कथन सत्य साबित नहीं कर दिया कि भारतीयों में स्वशासन की क्षमता ही नहीं है? जिस देश का राज्याध्यक्ष औपनिवेशक काल से चला आ रहा हो उसकी आजादी का अर्थ क्या बना? सही मायनों में देखें, तो हम औपनिवेशक शासक की विदाई के बाद 21 जून, 1948 को आजाद हुए।

माउंटबेटन का पहला दायित्व प्रत्येक दशा में ब्रिटिश हित की रक्षा करना ही था। जब संविधान नहीं था, तो 15 अगस्त को गवर्नर जनरल माउंटबेटन व प्रधानमंत्री नेहरू का शपथ ग्रहण ब्रिटिश महारानी के प्रति स्वामिभक्त सेवक के रूप में ही हुआ। अब आजादी के बाद भारतीय क्षेत्र में ब्रिटिश हित क्या थे? सोवियत यूनियन का विस्तार एक बड़ी जियो-पॉलिटिकल समस्या था। अफगानिस्तान एक बफर की हैसियत में था। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पाकिस्तान का निर्माण ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रयोगशाला में ही हुआ। 

1940 में लाहौर प्रस्ताव पढ़ा गया और 14 अगस्त 1947 को बतौर इस्लामी देश पाकिस्तान आजाद भी हो गया। वरना सात वर्षों में नए देश नहीं बना करते। ब्रिटेन के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि इस नए देश की कहीं भ्रूणहत्या न हो जाए। इसीलिए पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी व सरहदी सूबे में कांग्रेसी सरकारें बर्खास्त की गईं। कनिंघम को बुला कर गवर्नर बनाया गया। भारत-पाकिस्तान की सीमा का निर्धारण होना था। रेडक्लिफ अपने काम में लगे थे। कश्मीर का एजेंडा अभी लंबित था। 

कश्मीर यात्रा में माउंटबेटन ने महाराजा हरी सिंह से कहा था कि यदि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प देता है, तो भारत के नेताओं को आपत्ति न होगी। हरी सिंह की अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं। पाकिस्तान का इस्लाम के अलावा कोई वैचारिक आधार था ही नहीं अतः वह कम्युनिस्ट विस्तार के विरुद्ध एक स्वाभाविक मोहरा था। इस दृष्टि से कश्मीर विशेषकर गिलगित-बाल्टिस्तान का पाकिस्तान में जाना ब्रिटिश हित के अनुकूल था।

जब रेडक्लिफ एवार्ड ने गुरुदासपुर को भारत में शामिल किया, तो यह स्पष्ट हो गया कि माउंटबेटन ने नेहरू के प्रभाव में आकर कश्मीर के लिए यह सड़क मार्ग भारत को उपलब्ध करा दिया है। यदि यह गुरुदासपुर कॉरिडोर भारत को न मिलता, तो भारत के लिए कश्मीर के लिए कोई अभियान भी चलाना संभव न था। बलोचिस्तान की तरह कश्मीर भी पाकिस्तान का अंग हो जाता। लेकिन इस तरह कश्मीर विवाद की भूमिका लिख गई। 23 अक्तूबर, 1947 को हुए कबायली आक्रमण के समय भारत पाकिस्तान दोनों में ब्रिटिश सेनाध्यक्ष थे। 

प्रत्येक घटना की जानकारी माउंटबेटन को हो रही थी। नेहरू जी भ्रम अनिर्णय के शिकार थे। वह तो सरदार का दखल था कि विलय हस्ताक्षरित हुआ व सेनाएं श्रीनगर में 27 को उतरने लगीं तब कश्मीर घाटी बच सकी। घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि कश्मीर घाटी का भारत में रह जाना एक चमत्कार से कम नहीं है। यह ब्रिटिश एजेंडे के विपरीत रहा होगा। फिर भी माउंटबेटन ने सुनिश्चित किया कि घाटी में उड़ी से आगे उत्तर में स्कर्दू की ओर भारतीय सेना न बढ़े।

यह युद्ध ऐसी शतरंज थी, जिसमें दोनों ओर से ब्रिटिश सेनाध्यक्ष फ्रेंडली मैच खेल रहे थे। उनका उद्देश्य अपनी-अपनी सेनाओं को इच्छित सीमाओं तक सीमित करने का था। गिलगित एजेंसी जुलाई 1947 में महाराजा के पास वापस आती है। कबायली आक्रमण से भारत-पाकिस्तान युद्ध 26 अक्तूबर, 1947 को प्रारंभ हो जाता है। एक नवंबर, 1947 को गिलगित में महाराजा की सेना में कार्यरत मेजर ब्राउन जो मूलतः ब्रिटिश एजेंट था, विद्रोह कर पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर देता है। आश्चर्य यह है कि गिलगित भारत का भाग हो चुका है, लेकिन भारत का ब्रिटिश सेनाध्यक्ष व माउंटबेटन कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करते। 

न ही स्कर्दू को आजाद कराते हैं। वह इलाका बिना किसी प्रतिरोध के पाकिस्तान को चला जाता है। जम्मू में युद्ध चल रहा है। जवान शहीद हो रहे हैं। इधर हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी उस युद्ध के दौरान पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा पाकिस्तान का रोक दिया गया पानी फिर से चालू कराते हैं। लगता है कि माउंटबेटन का भारत में रुकना कश्मीर विभाजन के एक एजेंडे के तहत था। माउंटबेटन न रहे होते, तो देश में ब्रिटिश सेनाध्यक्ष के स्थान पर जनरल करियप्पा या जनरल नाथू सिंह होते। सेना पूरी शक्ति से युद्ध करती। पाकिस्तान के कश्मीर ख्वाब का अंत हो जाता।



Source link

Enable Notifications OK No thanks