विधानसभा चुनाव की जमीनी खबरें-6 : क्या मणिपुर में भाजपा दोबारा सरकार बनाने में सफल होगी?, पढ़िए वहां की चुनावी बिसात का पूरा हाल


(कमालिका सेनगुप्ता की रिपोर्ट)

मणिपुर. एक ऐसा प्रदेश जो पूर्ण राज्य का दर्जा पाने के बाद करीब 50 सालों तक उग्रवाद से जूझता रहा. पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) की जारी प्रक्रिया के बीच यहां पूर्वोत्तर के इस राज्य में भी 27 फरवरी और 4 मार्च को वोट डाले जाने हैं. मणिपुर (Manipur) की कुल आबादी करीब 28 लाख है. इसमें से भी 20 लाख लोग राजधानी इंफाल (Imphal) में रहते हैं. यहां की आबादी में सबसे अधिक तादाद लगभग 41% आदिवासियों की है. इसमें से भी 53% मैतेई हैं, 24% नगा, 16% कूकी झो और शेष अन्य. कुल 60 विधानसभा सीटों में 40 घाटी की और बाकी 20 पहाड़ी इलाकों की हैं. धार्मिक आधार पर देखा जाए तो ईसाई और हिंदू लगभग बराबर संख्या में हैं. इनमें ईसाई अधिकांश: राज्य के पहाड़ी इलाकों में रहते हैं. यहां हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आज तक उग्रवाद की ही है. अभी चुनाव की घोषणा से कुछ समय पहले हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं. ऐसी ही घटना के दौरान चूड़ाचंद्रपुर में एक भारतीय सैनिक की जान चली गई.

भाजपा का दांव इस बार भी बीरेन सिंह पर

भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने मणिपुर (Manipur) में 2014 के बाद से अहमियत हासिल की. फिर जब 2016 में कांग्रेस (Congress) के निवर्तमान मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह (N Biren Singh) भाजपा में आए तो पार्टी का ग्राफ और बढ़ा. उसने 2017 के विधानसभा चुनाव में पहली बार 21 सीटें जीतीं. उसके साथ चुनावी गठबंधन में नेशनल पीपुल्स पार्टी (NPP) और नगा पीपुल्स फ्रंट (NPF) जैसे दल भी थे. इनकी मदद से भाजपा ने राज्य में सरकार बना ली, जो अभी है. जबकि कांग्रेस को 15 सालों तक सत्ता के रहने के बाद बाहर होना पड़ा.

भाजपा इस बार भी एन बीरेन सिंह (N Biren Singh) के चेहरे को आगे रखकर चुनाव मैदान में है. उसने नारा दिया है, ‘फिर भाजपा, फिर विकास.’ इसके साथ ‘डबल इंजन की सरकार’ (केंद्र-राज्य में एक ही पार्टी की) वाला नारा भी प्रचलित किया है. बीरेन सिंह पर भाजपा के भरोसे की वजह ये है कि वह कुशल राजनेता तो हैं ही. पहले पत्रकार रहे और फुटबॉल भी खेलते थे. उनके बारे में कहा जाता है कि वे इकलौते नेता हैं, जो घाटी और पहाड़ी इलाकों के बीच संतुलन साधना जानते हैं.

एन बीरेन सिंह ने 2-3 कार्यक्रम चलाए जो लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हुए. जैसे, ‘पहाड़ों की ओर चलो’ ‘गांवों की ओर चलो’. साथ ही ‘सीएम दा हाइसी’ (मुख्यमंत्री को बताइए) भी. इन कार्यक्रमों ने उनकी लोगों के बीच सकारात्मक छवि बनाई है. कोरोना संक्रमण के दौरान उनकी सरकार के कामों को भी लोगों ने सराहा है. उनके कार्यकाल के दौरान आम तौर पर राज्य में शांति रही है.

हालांकि उनके सामने चुनौतियां भी हैं. एक- दूसरे दलों से आए नेताओं, विशेषकर कांग्रेस से आने वालों को संतुष्ट रखना और वे चुनाव बाद पार्टी छोड़कर न भागें यह सुनिश्चित करना. दूसरा- वे गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (UAPA) पर काफी हद तक निर्भर हैं. जबकि इस कानून की मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी काफी निंदा होती रही है.

कांग्रेस के पास न चेहरा, न मोहरा

कांग्रेस के पास इस वक्त मणिपुर (Manipur) में कोई मान्य चेहरा नहीं है. ऐसा लगता है, जैसे पार्टी का ढांचा ढह रहा है. बड़े पैमाने पर उसके नेता पार्टी छोड़कर भाजपा (BJP) में शामिल हो चुके हैं. हालांकि उसके पास अभी पहले मुख्यमंत्री रह चुके ओकराम इबोबी सिंह (Ibobi Singh) जैसे कुछ नेता हैं. वे थोउबल से चुनाव में भी उतरे हैं. पूर्व उपमुख्यमंत्री गैखंगम भी नुंगबा सीट से चुनाव मैदान में हैं. पार्टी ने पांच वामपंथी दलों से गठजोड़ भी किया है. और इन्हीं आधारों पर वह जीत का दावा कर रही है. अपनी सरकार बनाने का भरोसा जता रही है. हालांकि उसकी कोई स्पष्ट रणनीति नजर नहीं आती.

एनपीपी और एनपीएफ, सरकार में साथ पर चुनाव में अलग

एनपीपी, वैसे तो मेघालय में अच्छा जनाधार रखने वाली पार्टी है. लेकिन उसका मणिपुर में भी ठीक-ठाक दखल है. एनपीपी (NPP) 2017 में भाजपा (BJP) के साथ रही. उसे सरकार बनाने में भी मदद की. सरकार में शामिल रही. लेकिन इस बार यह भाजपा से अलग चुनाव लड़ रही है. स्थानीय लोगों के अधिकारों की बात करने वाली एनपीपी ने लोगों से वादा किया है कि अगर पूर्ण बहुमत से उसकी सरकार ने बनी तो वह सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (AFSPA) हटवाने का प्रयास करेगी.

ऐसे ही, एनपीएफ नगालैंड में अधिक असर रखती है. जबकि मणिपुर में थोड़ा कम. यह पार्टी से 2017 से अब तक भाजपा की सरकार के साथ रही है. लेकिन चुनाव में इस बार अलग है.

मुद्दे मुख्य 3 और मुकाबला 2 के बीच

मणिपुर में 3 प्रमुख मुद्दे हैं. पहला- एएफएसपीए (AFSPA) को हटाया जाना. इस मुद्दे पर सभी पार्टियां एकमत हैं. मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह (N Biren Singh) भी इसके पक्षधर बताए जााते हैं कि एएफएसपीए हटना चाहिए. लेकिन उन्होंने अब तक इसके लिए प्रयास नहीं किया. हालांकि वे अब वादा कर रहे हैं कि केंद्र सरकार से इस संबंध में बातचीत शुरू की जाएगी. दूसरा मसला हिंसा का है. बीते साल चूड़ाचंद्रपुर की घटना में असम राइफल्स के कर्नल विप्लव त्रिपाठी के साथ ही 6 आम नागरिकों की मौत का मसला यहां चुनाव में गूंज रहा है. पड़ोसी नगालैंड में 14 नागरिकों की मौत का मामला भी इससे जुड़ा है. अभी जनवरी में भी मणिपुर (Manipur) के अलग-अलग हिस्सों में हुईं हिंसा की घटनाएं चुनाव के केंद्र में हैं. चुनाव पूर्व हिंसा भी यहां आम बात है. लोग इस समस्या का स्थायी समाधान चाहते हैं. तीसरा मुद्दा पानी और बेहतर सड़क संपर्क की कमी को दूर करने का है. मणिपुर सूखा प्रभावित राज्य है और यहां पहाड़ी और मैदानी इलाकों के बीच सड़क संपर्क भी बेहतर नही है. लोगों को इन दिक्कतों से भी मुक्ति चाहिए.

अब रही बात मुकाबले की तो वह मुख्य रूप से भाजपा (BJP) और कांग्रेस (Congress) के बीच ही बताया जा रहा है. जानकार कहते हैं कि इसमें भी भाजपा की स्थिति अभी बेहतर है. बस, उसे अपने ही नेताओं के अंदरूनी झगड़ों से निपटने में सफलता मिले तो वह फिर सरकार बना सकती है.

Tags: Assembly Elections 2022, Manipur, Manipur Elections



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