नई दिल्ली. आजकल हेल्थ इंश्योरेंस बहुत जरूरी हो गया है. यही कारण है कि इसके प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है. लेकिन, क्लेम देते वक्त बीमा कंपनियों द्वारा की जाने वाली आनाकानी के कारण आज भी बहुत से लोग स्वास्थ्य बीमा करवाने से हिचकिचाते हैं. उनका मानना है कि कंपनियां बीमा क्लेम देते वक्त बहुत सी शर्तें जोड़ देती हैं और बहुत कम पैसों का भुगतान करती हैं.
हालांकि, लोगों का यह मानना पूरी तरह से तो सही नहीं है, लेकिन कुछ हद तक इसमें सच्चाई भी है. कुछ बीमा कंपनियां क्लेम देते वक्त कुछ ऐसे नियमों का हवाला देती हैं, जो बहुत अतार्किक होते हैं. इनको बीमाधारक पूरा नहीं कर पाता और कंपनियां उनके क्लेम को रिजेक्ट कर देती हैं. आमतौर पर हॉस्पिटल में दाखिल होने, नॉन-नेटवर्क हॉस्पिटल में उपचार और क्लेरिक्ल मिस्टेक जैसे मामलों में क्लेम लेने में काफी दिक्कत होती है.
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हॉस्पिटेलाइजेशन का पंगा
जब व्यक्ति बीमार होता है तो वह अस्पताल जाता है. अस्पताल में यह डॉक्टर के विवेक पर निर्भर करता है कि वह उसे दवा देकर घर भेजे या उसे अस्पताल में उसे दाखिल कर उसका इलाज करे. मनीकंट्रोल डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार नागपुर के रहने वाले सुरेश अग्रवाल ने भी हेल्थ पॉलिसी ले रखी थी. एक दिन अचानक वे घर में बेहोश होकर गिर पड़े. उन्हें अस्पताल ले जाया गया तो डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल में एडमिट कर लिया. दो दिन बाद उन्हें डिस्चार्ज किया गया. जब अग्रवाल ने बीमा कंपनी के पास क्लेम दाखिल किया तो कंपनी ने यह कहते हुए क्लेम देने से इंकार कर दिया कि उनकी जो बीमारी थी, उसमें उन्हें अस्पताल में दाखिल होने की जरूरत नहीं थी.
अग्रवाल का कहना है कि मरीज का इलाज कैसे और कहां, करना है यह डॉक्टर तय करते हैं. इसमें बीमाधारक का कोई रोल नहीं होता. डॉक्टर मरीज की स्थिति के अनुसार ही अस्पताल में भर्ती करने का फैसला लेते हैं. अग्रवाल ने अब बीमा नियामक IRDAI और बीमा कंपनी के पास अपनी शिकायत दर्ज कराई है.
बीमा संबंधी शिकायतों के बारे में ग्राहकों की सहायता करने वाली फर्म इंश्योरेंस समाधान की चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर शिल्पा अरोड़ा का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति बेहोश हो जाता है तो यह एक गंभीर मामला है और इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. इसमें डॉक्टर जनरल इंश्योरेंस काउंसिल की गाइडलाइन के अनुसार ही निर्णय लेते हैं. इसमें मरीज का कोई रोल नहीं होता है.
फर्स्ट पॉलिसी इंश्योरेंस ब्रोकर्स के रीजनल डायरेक्टर हरि राधाकृष्णनन का कहना है कि फूड पॉइजनिंग और बुखार जैसी बीमारियों में बीमा कंपनियां इस आधार पर क्लेम रिजेक्ट कर देती हैं कि हॉस्पिटेलाइजेशन इन बीमारियों में जरूरी नहीं था. इंश्योरेंस कंपनियों का कहना है कि कई बार अस्पताल केवल बीमारियों की जांच के लिए ही मरीज को अस्पताल में दाखिल कर लेते हैं. नीवा बोप्पा हेल्थ इंश्योरेंस के अंडरराइटिंग, प्रोडक्ट्स और क्लेम डायरेक्टर भाबातोष मिश्रा का कहना है कि हॉस्पिटेलाइजेशन के क्लॉज का प्रयोग कंपनियां कभी-कभार ही करती हैं.
आमतौर पर तो अस्पताल में दाखिल होने पर जो खर्च होता है, वो कंपनियां देती हैं. मिश्रा का कहना है कि कई बार ऐसा होता है कि इंडोस्कोपी जैसे टेस्ट के लिए ही अस्पताल मरीज को 24 घंटे तक एडमिट कर लेते हैं. ऐसे मामलों में क्लेम नहीं दिया जाता है. बुखार जैसे मामलों में भी बीमा कंपनी मरीज की स्थिति, मेडिकल रिपोर्ट्स और अन्य स्वास्थ्य मानकों पर गौर करते हुए बीमा दावे पर कार्रवाई करती है.
नॉन नेटवर्क अस्पताल में इलाज
नॉन-नेटवर्क अस्पताल में बीमाधारक द्वारा इलाज कराने पर भी बीमा क्लेम रिजेक्ट करने की बहुत सी शिकायतें आजकल आ रही हैं. स्टार हेल्थ और अलाइड इंश्योरेंस ने अपनी ग्रुप हेल्थ पॉलिसी में यह क्लॉज जोड़ा है जिसके बाद कई ग्राहकों का क्लेम नॉन नेटवर्क अस्पताल में इलाज कराने पर रिजेक्ट कर दिया गया. वहीं, कंपनी का कहना है कि यह नियम वैयक्तिक हेल्थ पॉलिसीज पर लागू नहीं होता. यह कॉर्पोरेट इंश्योरेंस के लिए बनाया गया है.
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स्टार हेल्थ इंश्योरेंस के एमडी आनंद राय का कहना है कि यह क्लॉज कांट्रेक्ट का हिस्सा पहले से ही है, लेकिन इसे लागू अब किया गया है. राय का कहना है कि गौर करने वाली बात यह है कि यह नियम एक्सीडेंट और इमरेजेंसी मामलों में लागू नहीं होता और कपंनी ऐसे मामलों में नॉन-नेटवर्क अस्पताल में हुए इलाज के लिए भी क्लेम देती है.
ज्यादा खर्च
कुछ कंपनियां अपने हेल्थ कवर में कस्टमरी और रीजनेबल चार्जेज क्लॉज भी रखती है. इसका सीधा सा मतलब यह है कि क्लेम का निपटारा करते वक्त कंपनी को यह अधिकार है कि वह ये निर्णय ले सकती है कि अस्पताल ने जो खर्च बताया है वह तार्किक है या नहीं. पुणे में एक सिक्योरिटी एजेंसी के मालिक स्वानंद देवधर भी इस क्लॉज के शिकार हुए हैं. देवधर का कहना है उन्होंने अपनी कंपनी के कर्मचारियों का एक मशहूर बीमा कंपनी से ग्रुप इंश्योरेंस कांट्रेक्ट किया. बाद में कंपनी ने कुल क्लेम अमाउंट में से कुछ रकम काटनी शुरू कर दी. एक मामले में तो अस्पताल में दाखिल होने का के बिल में डॉक्टर कंसल्टेशन फीस 1.2 लाख रुपये थी परंतु कंपनी ने इस एवज बस 50 हजार रुपये ही दिए. देवधर का कहना है कि जब एक प्रोफेशनल डॉक्टर बिल देता है तो उस पर कोई कैसे सवाल उठा सकता है. लेकिन, बीमा कंपनी को चार्जेज बहुत ज्यादा लगे.
श्योरक्लेम के को-फाउंडर और सीईओ अनुज जिंदल का कहना है कि हमारे यहां कोई सर्वमान्य बिलिंग प्रेक्टिस नहीं है. इसलिए रीजनेबल चार्जेज की कोई परिभाषा नहीं है. यही कारण है कि एक ही क्षेत्र में एक तरह के इलाज की प्रक्रिया अलग-अलग है. मिश्रा का कहना है कि बीमा कंपनी आमतौर पर तार्किक इलाज खर्च का निर्धारण किसी क्षेत्र के क्लेम ट्रेंड्स और डाटा के आधार पर करती है. वैश्विक स्तर पर भी यह नियम लागू होता है.
क्लेरिकल मिस्टेक
कई बार बीमा कंपनियां क्लेम के लिए दिए गए दस्तावेजों में छोटी क्लेरिकल गलतियों पर भी क्लेम रिजेक्ट कर देती है. ऐसा ही हुआ नैनीताल के दीपक त्रिपाठी के साथ. उनका एक्सीडेंट हुआ. इमरजेंसी रूम में तैनात डॉक्टर ने मेडिको लीगल रिपोर्ट में उनके एक्सीडेंट की तारीख गलत लिख दी. जिसे बाद में ठीक भी कर दिया गया. अन्य दस्तावेजों में भी सही तारीख दर्ज थी. लेकिन, फिर भी कंपनी ने इस बाधार पर बीमा क्लेम रिजेक्ट कर दिया कि मेडिको लीगल रिपोर्ट में कटिंग की गई है.
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यहां करें शिकायत
अगर किसी पॉलिसी होल्डर का क्लेम रिजेक्ट हो जाता है तो सबसे पहले उसे बीमा कंपनी के ग्रीवेंस रिडर्सल ऑफिसर के पास शिकायत देनी चाहिए. अगर 30 दिन के भीतर वह कोई संतोषजनक आपको नहीं देता है तो आपको बीमा लोकपाल के कार्यालय से संपर्क करना चाहिए. अगर बीमा लोकपाल के निर्णय से भी आप संतुष्ट नहीं हैं तो आप उपभोक्ता अदालत में जा सकते हैं.
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Tags: Health Insurance, Insurance, Personal finance
FIRST PUBLISHED : May 24, 2022, 12:52 IST