लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सपा-कांग्रेस में बढ़ रहीं नजदीकियां, पुराने दोस्त हो रहे दूर


ममता त्रिपाठी

सियासत में कुछ भी स्थायी नहीं होता, ना दोस्त ना ही दुश्मन. उत्तर प्रदेश में महज तीन महीने पहले विधानसभा चुनावों के दौरान समाजवादी पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जिस तरह गलबहियां करके चुनाव लड़ रहे थे किसी ने सोचा नहीं था कि चुनाव के नतीजों के बाद एक-दूसरे पर यूं आरोप प्रत्यारोप लगाएंगे. मगर सच्चाई यही है कि दोनों ही पार्टियों की राहें अलग हो चुकी हैं. ओमप्रकाश राजभर का विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की बैठक में ना रहना और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को लेकर दी गई पार्टी में उनकी मौजूदगी, वो भी अपने सारे विधायकों के साथ सारी कहानी को बयां करने के लिए काफी है कि विपक्ष के गठबंधन में आई दरार अब खाई में तब्दील हो चुकी है.

शिवपाल यादव पहले ही खुलकर सपा से नाराजगी जाहिर करते रहे हैं. केशव देव मौर्य, संजय चौहान और अब ओमप्रकाश राजभर, एक-एक करके सपा के सारे साथी बेगाने होते जा रहे हैं. मगर सबसे ज्यादा दिलचस्प पहलू ये है कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने ही सही, मगर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच फिर से नजदीकियां बढ़ती दिख रही हैं. अखिलेश जहां अपने लोगों को बेगाना करते जा रहे हैं, तो वहीं बेगानों को अपना बनाते दिख रहे हैं. 2024 के लोकसभा चुनावों के लिहाज से ये एक नया समीकरण बनता दिख रहा है.

अखिलेश की पार्टी में कांग्रेस विधायक को न्योता
आपको बता दें कि यशवंत सिन्हा के लखनऊ दौरे के दौरान अखिलेश यादव ने सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर को नहीं बुलाया, मगर कांग्रेस की विधायक आराधना मिश्रा उस बैठक में मौजूद रहीं. कांग्रेस पार्टी के यूपी विधानसभा में दो विधायक हैं. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान गठबंधन किया था. दो लड़कों की जोड़ी को जनता ने नकार दिया जिसके बाद से गठबंधन टूट गया था. बावजूद इसके दोनों ही सियासी दलों ने कभी भी एक-दूसरे पर कोई सीधा आरोप नहीं लगाया था.

विधान परिषद में समाजवादी पार्टी से नेता प्रतिपक्ष का दर्जा छिन गया जिसके बाद सपा के नेताओं ने तो एतराज जताया ही साथ में कांग्रेस ने भी योगी सरकार को आड़े हाथों लेते हुए इसे एक मनमाना फैसला करार दिया है. हालांकि कांग्रेस की तल्खी की वजह विधान परिषद में उसका शून्य पर पहुंचना भी हो सकता है.

अखिलेश कर रहे सभी प्रयास
पिछले तीन चुनावों में अखिलेश यादव को लगातार हार का मुंह देखना पड़ा है जिससे उनका और उनकी पार्टी का मनोबल अपने न्यूनतम स्तर पर है. ऐसे में खुद को साबित करने के लिए अखिलेश वो सारे जतन कर रहे हैं ताकि उनकी पार्टी में उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर उठ रही आवाजें कम हों. अखिलेश यादव ने पार्टी के सारे फ्रंटल संगठनों को भंग कर दिया और समाजवादी पार्टी के विस्तार के लिए 18 सदस्यीय टीम बनाई है जो लोगों को पार्टी से जोड़ने का काम करेगी. राष्ट्रीय राजनीति में अखिलेश यादव हमेशा कांग्रेस के बगलगीर ही दिखाई पड़ते हैं. इसलिए लोकसभा चुनाव के वक्त अगर सपा और कांग्रेस में नीतिगत गठबंधन होता है तो कोई हैरत की बात नहीं होगी.

सपा की हमराह बनती नजर आ रही है कांग्रेस
न्यूक्लियर डील के वक्त केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार को बचाने में मुलायम सिंह यादव की अहम भूमिका रही थी ये किसी से भी नहीं छिपा है. 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान आगरा में अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और राहुल-प्रियंका रोड शो में एक-दूसरे के आमने-सामने आ गए थे. परिपक्व राजनेता की तरह सभी ने एक-दूसरे का अभिवादन किया था. फिलहाल जिस तरह के हालात बनते दिख रहे हैं उसमें ओमप्रकाश राजभर सपा से हाथ छुड़ाते ही नजर आ रहे हैं और कांग्रेस 2024 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस संकटकाल में सपा की हमराह बनती नजर आ रही है. ओमप्रकाश राजभर ने भाजपा के बजाए बसपा की तारीफ की है कि अगर किसी से हाथ मिलाना होगा तो बसपा क्या खराब है.

बसपा युद्ध स्तर पर कर रही है लोकसभा चुनाव की तैयारी
आपको बता दें कि विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही मायावती बिल्कुल एक्टिव मोड में सियासत कर रही हैं, जिसका असर लोकसभा उपचुनाव में देखने को भी मिला. उपचुनाव में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी को बड़ी संख्या में वोट किया है. इसके अलावा बसपा लोकसभा चुनाव की तैयारी भी युद्ध स्तर पर कर रही है. पार्टी ने हर विधानसभा में 75 हजार सक्रिय सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा है और हर सदस्य से 200 रुपये लिए जाएंगे.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

Tags: Akhilesh yadav, Congress, Samajwadi party



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