कैंसर से जंग में हार रही हैं मासूम बच्चियां, अस्पतालों तक न पहुंचने के ये हैं कारण


नई दिल्ली. क्या कैंसर (Cancer) के इलाज में भी भेदभाव बरती जा सकती है? अगर मरीज डॉक्टर तक पहुंच जाए तो संभवतः ऐसा मुश्किल है लेकिन जब मरीज को डॉक्टर तक पहुंचाने की बात आए तो ऐसा हो सकता है. देश के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल टाटा मेमोरियल अस्पताल (Tata Memorial Hospital -TMH) के आंकड़ों से पता चला है कि बच्चों के कैंसर के इलाज में बच्चियों की संख्या बहुत कम है. टीएमएच के आंकड़ों के मुताबिक बाल चिकित्सा में दो लड़कों पर सिर्फ एक लड़की का ही कैंसर का इलाज हो पाता है. बाकी बच्चियां कैंसर से जंग में यू ही हार जाती हैं.

बच्चियों में कैंसर का इलाज क्यों नहीं हो पाता है, इसके लिए मोटा-मोटी जो बात पता चली है उसके हिसाब से यह लैंगिंक भेदभाव की ओर इशारा कर रहा है. कैंसर रोग विशेषज्ञ के मुताबिक लैंगिक असमानता बच्चियों को कैंसर से जंग में हारने को मजबूर कर रहा है. उनके अनुसार इसके लिए पूर्वग्रहों, जागरूकता और वित्तीय समाधान जैसे कई मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है.

10 साल में सिर्फ 35 फीसदी लड़कियों का इलाज
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक टाटा मेमोरियल अस्पताल में पिछले 10 साल में 2011 से 2021 के दौरान 18394 बच्चों को कैंसर के इलाज के लिए लाया गया. इनमें से 11, 962 लड़के थे जबकि लड़कियों की संख्या मात्र 6,432 थीं. यानी जितने बच्चे को कैंसर के इलाज में टाटा मेमोरियल में लाया गया उनमें 65 प्रतिशत लड़के और 35 फीसदी लड़कियां शामिल थीं.

इलाज के लिए लड़कों की संख्या दोगुना
देश के दूसरे हिस्सों के अस्पतालों में भी बच्चों में कैंसर का इलाज कराने के लिए लड़कों की संख्या ज्यादा होती है. कैंसर बाल चिकित्सा में देश का दूसरा सबसे बड़ा अस्पताल है होमी भाभा कैंसर अस्पताल वाराणसी. यहां भी लैंगिंक असमानता कम नहीं है. इस अस्पताल में 2019 में कुल 325 बच्चों को भर्ती कराया गया. इनमें से 197 लड़के थे. यानी 60 प्रतिशत लड़के.. वहीं 2020 में कुल 392 बच्चों को कैंसर के इलाज के लिए भर्ती करवाया गया, इनमें से 63 फीसदी लड़के ही थे. आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 साल में लड़कियों की तुलना में इलाज कराने वालों में लड़कों की संख्या लगभग दोगुनी थी. इलाज कराने के लिए आने वाले लड़का-लड़की में 75 प्रतिशत की लैंगिक असमानता थी.

क्या कारण है
टाटा मेमोरियल अस्पताल के पेडएट्रिक्स ऑन्कोलॉजिस्ट डॉ गिरीश चिन्नास्वामी ने बताया कि आमतौर पर बच्चों को ओरल, ब्रेस्ट या प्रोस्टेट कैंसर नहीं होता. ज्यादातर बच्चों में ब्लड कैंसर, लंग्स कैंसर और ब्रेन कैंसर होता है. उन्होंने बताया कि कैंसर के इलाज में लैंगिंक असमानता का संभवतः सबसे बड़ा कारण यह है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों को इलाज के लिए लाया ही नहीं जाता है. हालांकि बच्चों में अगर कैंसर की पहचान पहले कर ली जाए तो इनके रिकवर होने की संभावना 80 प्रतिशत तक होती है.

बच्ची का जीवन कम महत्वपूर्ण
लड़कियों को अस्पताल तक नहीं लाने का एक उदाहरण देते हुए बताया गया कि लातुर में एक नौ साल की बच्ची को ब्लड कैंसर हुआ. उसे टाटा मेमोरियल अस्पताल में लाया तो गया लेकिन बच्ची के पिता उसे मार्च 2021 को उसे जबर्दस्ती लेकर चले गए. जब सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उनसे बेटी को अस्पताल ले जाने पर जोर दिया तो उन्होंने मना कर दिया. कुछ सप्ताह बाद ही बच्ची की मौत हो गई. एक कार्यकर्ता ने बताया कि परिवार के पास पहले से एक और बेटी थी. इस बच्ची को अपना भविष्य बताते हुए परिवार मुंबई जाने से मना कर दिया. यानी उन्होंने जीवन की जगह पहले से मौजूद परिवार को उपर रखा.

Tags: Cancer, Children, Health

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