Kargil War: कारगिल के असली युद्ध से पहले हुआ था एक ‘वॉर गेम’, उसी ने खोला था दुश्मनों की चाल का राज


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सुनकर तो शायद एक बारगी आप भी हैरान हो जाएंगे कि क्या ऐसा संभव है कि कोई ऐसा ‘वॉर गेम’ खेला जाता होगा, जो दुश्मन की हर चाल को उसके चलने से पहले ही पकड़ लेता हो। लेकिन सच्चाई यही है कि भारतीय सेना हर साल ऐसा ही एक ‘वॉर गेम’ खेलती है जिसमें अपनी ही सेना के अधिकारियों और जवानों को दुश्मन देश का सैनिक और अधिकारी बनना पड़ता है। फिर शुरू होती हैं ‘वॉर गेम’ की वह दिमागी एक्सरसाइज, जिससे दुश्मनों की एक-एक चाल का पर्दाफाश होता जाता है। कारगिल युद्ध से ठीक एक साल पहले खेले गए इस ‘वॉर गेम’ से सीमावर्ती इलाकों में तैनात ब्रिगेड कमांडरों को अंदाजा हो गया था कि पाकिस्तान की और से कुछ इलाकों में ऐसी की नापाक हरकत की जा सकती है। ‘वॉर गेम’ में पाकिस्तान के अधिकारियों का रोल प्ले करने वाले बटालिक सेक्टर के ब्रिगेड कमांडर दविंदर सिंह ने अमर उजाला डॉट कॉम को ऐसे ही कई किस्सों और युद्ध को जीतने के लिए अपनाई गईं रणनीतियों के बारे में विस्तार से बताया।

अप्रैल 1998 में हुआ था ‘वॉरगेम’

ब्रिगेडियर दविंदर सिंह कहते हैं कि ‘वारगेम’ ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सेना अपने नए अधिकारियों और जवानों के लिए नियमित प्रैक्टिस की तौर पर करती है। इस दौरान अपने ही सेना के जवानों और अधिकारियों को दुश्मन देश का अधिकारी और जवान बनना पड़ता है। फिर उन्हें टास्क दिया जाता है कि वह किस तरीके से भारत की सीमा में घुस सकते हैं या युद्ध की स्थितियां पैदा कर सकते हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान दुश्मनों के इरादों को समझने के लिए दिमागी तौर पर एक्सरसाइज होती ही है, बल्कि सीमा के उस पार के नक्शे और भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए उन सभी संभावनाओं को भी तलाश जाता है कि दुश्मन कहां से हमारी सीमा में घुस सकता है। इसके अलावा किन-किन और रास्तों, माध्यमों और तरीकों से युद्ध की परिस्थितियां पैदा कर सकता है या माहौल बिगाड़ सकता है। ब्रिगेडियर दविंदर सिंह कहते हैं कि अप्रैल 1998 हुए ‘वॉरगेम’ के दौरान वह खुद दुश्मन देश के अधिकारी की भूमिका में थे और उन्होंने भारत-पाकिस्तान की सीमा से जुड़े हुए कारगिल के वह सभी प्वाइंट अपनी नजर में रखे थे, जहां से पाकिस्तान की सेना हमारे देश में घुस सकती है। बल्कि वे खुद इस दौरान उन इलाकों से घुसे, जहां से पाकिस्तानी सैनिक हमारी सीमा में घुसे थे। वे कहते हैं कि जिन प्वाइंट्स को उन्होंने वारगेम के दौरान पहचाना था। पाकिस्तान की सेना ने मई 1999 में उन्हीं जगहों से हमारी सीमा में घुसना शुरू कर दिया था।

70 इंफेंट्री ब्रिगेड को दी जिम्मेदारी

ब्रिगेडियर दविंदर कहते हैं यही वजह रही कि बटालिक सेक्टर में भारतीय सेना ने 70 इंफेंट्री ब्रिगेड को इस पूरे ऑपरेशन को कमांड करने की जिम्मेदारी दी और वे इस पूरी ब्रिगेड के कमांडर थे। ब्रिगेडियर दविंदर कहते हैं कि क्योंकि वह इस इलाके में बहुत लंबे समय से तैनात रहे थे, इसलिए उनको वे सभी प्वाइंट्स पता थे कि कहां से पाक सेना अंदर आ रहे हैं और कहां पर मोर्चाबंदी करके उन्हें पीछे धकेला जा सकता है। चूंकि ‘वॉर गेम’ के दौरान पाकिस्तान के उन सभी इलाकों का बहुत गहन अध्ययन भी किया था और सभी जाने-अनजाने रास्तों को भी बेहतरीन तरीके से समझते थे। वे कहते हैं कि जब 8 मई 1999 को उनकी ब्रिगेड को यहां पर तैनात किया गया तो हालात बहुत मुश्किल थे। क्योंकि दुश्मन हमारे सिर पर था और हमारे पास सैनिकों की बहुत कमी थी। वे कहते हैं कि उन्होंने सेना के अधिकारियों को जब इस पूरे इलाके की स्थिति से अवगत कराया, तो उनके पास अलग-अलग टुकड़ियों से सैनिक भेजे जाने लगे।

घुसपैठियों ने की फायरिंग

कारगिल युद्ध के दौरान अहम भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ सेना के अधिकारी बताते हैं कि तीन मई 1999 की एक भरी दोपहर थी। भारतीय सेना के जवान मुस्तैदी से 17 से 18 हज़ार फीट की ऊंचाई वाले बर्फीले बटालिक इलाके में अपनी सरहदों की रक्षा कर रहे थे। तभी लद्दाख इलाके की आर्यन वैली स्थित दाह गांव में रहने वाले ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहे ने कुछ सूचना दी कि कुछ संदिग्ध चरवाहे भारतीय सीमा में देखे गए हैं। नामग्याल अपनी भीड़ को ढूंढते हुए ऊंचे इलाके पर पहुंचा था, जहां से उसने पाकिस्तानी सेना के लोग देखे थे। युद्ध के दौरान इस इलाके के कमांडर रहे दविंदर सिंह कहते हैं कि उनसे पहले की कमांड के सैनिकों को जब इसकी सूचना मिली कि कुछ चरवाहे भारतीय सीमा में घुसे हुए हैं, जो कि अपने पहनावे से अफगानी मूल के लग रहे हैं, तो सेना के जवानों ने उस इलाके में जाकर कॉम्बिंग करनी शुरू की। वह कहते हैं कि जैसे ही जवानों ने चरवाहे की बताई हुए जगह पर उन अज्ञात लोगों को देखा, तो उधर से फायरिंग शुरू हो गई। इसी से अंदाजा हो गया था कि हालात अब कुछ दिनों में बदलने वाले हैं। हालांकि इस दौरान नागा और सिख रेजीमेंट की पल्टन के जवानों ने ना सिर्फ मोर्चा संभाला बल्कि दुश्मनों को पीछे खदेड़ने के लिए मजबूर कर दिया।

दो जगहों से लड़ा जा रहा था कारगिल युद्ध

ब्रिगेडियर दविंदर सिंह कहते हैं कि कारगिल का युद्ध दो जगह से लड़ा जा रहा था। एक बटालिक सेक्टर से और दूसरा द्रास सेक्टर से। वे कहते हैं कि क्योंकि पाकिस्तान की सेना के अधिकारी और सैनिक चुपके से चरवाहे बनकर सबसे पहले बटालिक की पहाड़ियों से भारतीय इलाके में घुसे थे। इसलिए सबसे पहली मुठभेड़ इस इलाके से शुरू हुई। उनका कहना है कि भौगोलिक दृष्टिकोण से पाकिस्तान के सैनिक हम से ऊपर की पहाड़ियों पर थे। इस वजह से हम लोगों को न सिर्फ बचते हुए उनका मुकाबला करना था बल्कि पाकिस्तानियों को खदेड़ना भी था। वे कहते हैं कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती दुश्मनों से मुकाबला करने के लिए बड़े हथियारों को ऊंचे इलाकों में तैनात करना था। चूंकि दुश्मन ऊंचे इलाकों पर ही बैठा हुआ था, इसलिए उससे बचकर के उसको निशाने पर लेना चलाती थी। लेकिन जवानों ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दुश्मनों को पीछे धकेला शुरू कर दिया था।

भारतीय सेना से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि पाकिस्तान कोई ऐसी चाल चलने वाला है इसका अंदाजा इसी बात से हो गया था जब उसने 5000 से ज्यादा बर्फ में रहने वाली सैनिकों की ड्रेस की खऱीद की। खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक जानकारी मिल रही थी कि पाकिस्तानी सेना बर्फ के इलाके में कुछ बड़ा करने वाली है। क्योंकि यह ड्रेस भारी मात्रा में खरीदी गई थी, इसलिए शक होने लगा था कि पाकिस्तान बर्फ के बड़े मरुस्थल में कुछ बड़ा खेल करने वाला है। इसलिए भारतीय सेना पूरी तरीके से मुस्तैद थी। वह कहते हैं कि आभास इस बात से भी होने लगा था कि बॉर्डर पर लगते इलाकों में युद्ध शुरू होने से पहले ही फायरिंग भी तेज हो गई थी।

बर्फ पिघलने का इंतजार कर रहा था पाकिस्तान

जैसे-जैसे बर्फ पिघलने लगी वैसे-वैसे ही ऊंची चोटी पर बैठे पाकिस्तानी दुश्मनों के हाथ-पांव फूलने लगे। ब्रिगेड कमांडर दविंदर सिंह कहते हैं, दरअसल कारगिल का युद्ध 17 से 18 हज़ार फीट की ऊंचाई पर दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र में लड़ा जा रहा था। वे कहते हैं कि जब पाकिस्तान के सैनिक और अधिकारी भारतीय सीमा में घुसने की कर रहे थे, तो कारगिल और द्रास की चोटियों पर जबरदस्त बर्फ जमी हुई थी। अप्रैल के महीने में जैसे ही थोड़ी थोड़ी बर्फ कम होना शुरू हुई, तो पाकिस्तान के सैनिकों और अधिकारियों ने भारतीय सीमा में तेजी से बढ़ना शुरू कर दिया। वे बताते हैं कि तब तक भारतीय सेना को इस बात का अंदाजा हो चुका था और वह हम दुश्मनों को न सिर्फ मार रहे थे बल्कि पीछे ढकेल भी रहे थे। जून और जुलाई के महीने में बर्फ ठीक-ठाक पिघलने लगी थी और ऊंची चोटियों पर बैठे पाकिस्तानी दुश्मनों के लिए वहां पर रुकना मुश्किल होता जा रहा था। क्योंकि बर्फ के पिघलने से चोटियां सूनी होती जा रही थीं। और वहां पर आवाजाही को स्पष्ट रूप से देखा जा रहा था। वह कहते हैं जहां-जहां पर बर्फ जमी हुई थी और दुश्मनों के होने का अंदाजा था, वहां पर लगातार हो रही बमबारी से बर्फ और तेजी से पिघलती रही। नतीजा यह हुआ कि बहुत सी चोटियों पर दुश्मनों के छुपने का सारा ठिकाना खत्म हो चुका था। ब्रिगेडियर दविंदर सिंह कहते हैं कि बटालिक के सभी 21 चोटियां 10 जुलाई 1999 को एक लंबे युद्ध के बाद पूरी तरीके से खाली करा ली गई थीं और इस दौरान कैप्टन मनोज पांडे जैसे जांबाज अधिकारियों समेत कई सैनिकों को खो दिया था।

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सुनकर तो शायद एक बारगी आप भी हैरान हो जाएंगे कि क्या ऐसा संभव है कि कोई ऐसा ‘वॉर गेम’ खेला जाता होगा, जो दुश्मन की हर चाल को उसके चलने से पहले ही पकड़ लेता हो। लेकिन सच्चाई यही है कि भारतीय सेना हर साल ऐसा ही एक ‘वॉर गेम’ खेलती है जिसमें अपनी ही सेना के अधिकारियों और जवानों को दुश्मन देश का सैनिक और अधिकारी बनना पड़ता है। फिर शुरू होती हैं ‘वॉर गेम’ की वह दिमागी एक्सरसाइज, जिससे दुश्मनों की एक-एक चाल का पर्दाफाश होता जाता है। कारगिल युद्ध से ठीक एक साल पहले खेले गए इस ‘वॉर गेम’ से सीमावर्ती इलाकों में तैनात ब्रिगेड कमांडरों को अंदाजा हो गया था कि पाकिस्तान की और से कुछ इलाकों में ऐसी की नापाक हरकत की जा सकती है। ‘वॉर गेम’ में पाकिस्तान के अधिकारियों का रोल प्ले करने वाले बटालिक सेक्टर के ब्रिगेड कमांडर दविंदर सिंह ने अमर उजाला डॉट कॉम को ऐसे ही कई किस्सों और युद्ध को जीतने के लिए अपनाई गईं रणनीतियों के बारे में विस्तार से बताया।

अप्रैल 1998 में हुआ था ‘वॉरगेम’

ब्रिगेडियर दविंदर सिंह कहते हैं कि ‘वारगेम’ ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सेना अपने नए अधिकारियों और जवानों के लिए नियमित प्रैक्टिस की तौर पर करती है। इस दौरान अपने ही सेना के जवानों और अधिकारियों को दुश्मन देश का अधिकारी और जवान बनना पड़ता है। फिर उन्हें टास्क दिया जाता है कि वह किस तरीके से भारत की सीमा में घुस सकते हैं या युद्ध की स्थितियां पैदा कर सकते हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान दुश्मनों के इरादों को समझने के लिए दिमागी तौर पर एक्सरसाइज होती ही है, बल्कि सीमा के उस पार के नक्शे और भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए उन सभी संभावनाओं को भी तलाश जाता है कि दुश्मन कहां से हमारी सीमा में घुस सकता है। इसके अलावा किन-किन और रास्तों, माध्यमों और तरीकों से युद्ध की परिस्थितियां पैदा कर सकता है या माहौल बिगाड़ सकता है। ब्रिगेडियर दविंदर सिंह कहते हैं कि अप्रैल 1998 हुए ‘वॉरगेम’ के दौरान वह खुद दुश्मन देश के अधिकारी की भूमिका में थे और उन्होंने भारत-पाकिस्तान की सीमा से जुड़े हुए कारगिल के वह सभी प्वाइंट अपनी नजर में रखे थे, जहां से पाकिस्तान की सेना हमारे देश में घुस सकती है। बल्कि वे खुद इस दौरान उन इलाकों से घुसे, जहां से पाकिस्तानी सैनिक हमारी सीमा में घुसे थे। वे कहते हैं कि जिन प्वाइंट्स को उन्होंने वारगेम के दौरान पहचाना था। पाकिस्तान की सेना ने मई 1999 में उन्हीं जगहों से हमारी सीमा में घुसना शुरू कर दिया था।

70 इंफेंट्री ब्रिगेड को दी जिम्मेदारी

ब्रिगेडियर दविंदर कहते हैं यही वजह रही कि बटालिक सेक्टर में भारतीय सेना ने 70 इंफेंट्री ब्रिगेड को इस पूरे ऑपरेशन को कमांड करने की जिम्मेदारी दी और वे इस पूरी ब्रिगेड के कमांडर थे। ब्रिगेडियर दविंदर कहते हैं कि क्योंकि वह इस इलाके में बहुत लंबे समय से तैनात रहे थे, इसलिए उनको वे सभी प्वाइंट्स पता थे कि कहां से पाक सेना अंदर आ रहे हैं और कहां पर मोर्चाबंदी करके उन्हें पीछे धकेला जा सकता है। चूंकि ‘वॉर गेम’ के दौरान पाकिस्तान के उन सभी इलाकों का बहुत गहन अध्ययन भी किया था और सभी जाने-अनजाने रास्तों को भी बेहतरीन तरीके से समझते थे। वे कहते हैं कि जब 8 मई 1999 को उनकी ब्रिगेड को यहां पर तैनात किया गया तो हालात बहुत मुश्किल थे। क्योंकि दुश्मन हमारे सिर पर था और हमारे पास सैनिकों की बहुत कमी थी। वे कहते हैं कि उन्होंने सेना के अधिकारियों को जब इस पूरे इलाके की स्थिति से अवगत कराया, तो उनके पास अलग-अलग टुकड़ियों से सैनिक भेजे जाने लगे।



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