राष्ट्रभाषा का विवाद: अजय देवगन-किच्चा सुदीप ने भड़काई पुरानी आग, जानें कब से हो रहा हिंदी का विरोध और क्यों?


न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: जयदेव सिंह
Updated Sat, 30 Apr 2022 11:05 AM IST

सार

किच्चा सुदीप ने हाल ही में रिलीज हुई कन्नड़ फिल्म ‘केजीएफ चैप्टर 2’ में काम किया है। सुदीप ने एक कार्यक्रम में कहा कि हिन्दी अब राष्ट्रीय भाषा नहीं रही। बॉलीवुड सफलता पाने के लिए संघर्ष कर रहा है, तमिल और तेलगू फिल्मों की डबिंग कर रहा है। हम जो फिल्में बना रहे हैं वो हर जगह देखी जा रहीं हैं।

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– फोटो : Amar Ujala

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विस्तार

हिन्दी को लेकर अभिनेता अजय देवगन और कन्नड़ अभिनेता किच्चा सुदीप के बीच ट्विटर पर जमकर बहस हुई है । बहस इतनी बढ़ी की कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और एचडी कुमारस्वामी भी इस विवाद में कूद गए। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बताने पर पहली बार विवाद नहीं हो रहा है। पहले भी हिन्दी को लेकर विवाद होते रहे हैं। दक्षिण में हिन्दी के खिलाफ हिंसक आंदोलन तक हो चुके हैं। 

आइये समझते हैं आखिर दोनों अभिनेताओं के बीच हुआ क्या है? हिन्दी राष्ट्रभाषा है या नहीं? इसे लेकर पहले क्या विवाद हो चुके हैं? 

 दोनों अभिनेताओं के बीच हुआ क्या-क्या है? 

किच्चा सुदीप ने हाल ही में रिलीज हुई कन्नड़ फिल्म ‘केजीएफ चैप्टर 2’ में काम किया है। हिन्दी समेत कई भाषाओं में डब की गई ये फिल्म 900 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार कर चुकी है। सुदीप फिल्म की सफलता पर एक कार्यक्रम में बोल रहे थे। इस दौरान उन्होंने कहा कि आप कह रहे हैं कि पैन इंडिया फिल्म कन्नड़ में बनी है। मैं इसमें एक सुधार करना चाहता हूं। हिन्दी अब राष्ट्रभाषा नहीं रही। वो (बॉलीवुड) पैन इंडिया फिल्में बनाते हैं। बॉलीवुड सफलता पाने के लिए संघर्ष कर रहा है, तेलगू और तमिल फिल्मों की डबिंग कर रहा है। हम आज जो फिल्में बना रहे हैं वो हर जगह देखी जा रहीं हैं।  

किच्चा सुदीप के इसी बयान पर अजय देवगन के ट्वीट किया। उन्होंने लिखा, “किच्चा सुदीप मेरे भाई, आपके अनुसार अगर हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं है तो आप अपनी मातृभाषा की फिल्मों को हिंदी में डब करके क्यूं रिलीज करते हैं? हिंदी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रीय भाषा थी, है और हमेशा रहेगी। जन गण मन।’’

अजय देवगन के इस ट्वीट का जवाब सुदीप ने भी ट्वीट करके दिया। उन्होंने कहा, सर, मैंने जिस संदर्भ में वो बात कही, मुझे लगता है कि उसे आपने दूसरे तरीके से समझा है। शायद आपसे मिलकर मैं अपनी बात को बेहतर ढंग से रख सकूंगा। मैं किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता, ना ही किसी को उत्तेजित करना चाहता और ना ही किसी विवाद को बढ़ावा देना चाहता हूं। आखिर मैं ऐसा क्यों करूंगा सर।” उन्होंने अपनी सफाई में एक और ट्वीट किया। सुदीप ने लिखा, “मैं अपने देश की हर भाषा से प्यार और उसकी इज्जत करता हूं। मैं इस मुद्दे को यहीं खत्म करना चाहता हूं। जैसा की मैंने कहा, उस बात का संदर्भ बिलकुल अलग था।  आपको ढेर सारा प्यार और शुभकामनाएं। उम्मीद करता हूं कि मैं आपसे जल्द ही मिलूं।”

 सुदीप कह रहे हैं हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं रही, अजय राष्ट्रभाषा बता रहे हैं, दोनों में कौन सही है?

अगर संविधान की बात करें तो उसमें किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है। आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। इसमें असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, मैथली, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिन्धी, तमिल, तेलगू और उर्दू शामिल हैं।  हालांकि, शुरुआत में केवल 14 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला था। 1967 में सिन्धी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली और 2004 में बोडो, डोंगरी, मैथली और संथाली को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला।   

जहां तक हिन्दी की बात है तो आजादी के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा मिला। यानी, कामकाज के लिए हिन्दी का इस्तेमाल होगा। इसके साथ ही अंग्रेजी भी 15 साल के लिए कामकाज की भाषा मानी गई।  ये भी तय किया गया कि भारत के अलग-अलग राज्य अपने हिसाब से कामकाज की भाषा तय कर सकते हैं। अनुच्छेद 351 में कहा गया कि ये सरकारों की जिम्मेदारी है कि वो हिंदी भाषा को इस तरह से बढ़ावा दें कि वो भारत की विविधता वाली संस्कृति को आगे बढ़ा पाए। 

15 साल बाद यानी 1965 में सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के प्रयोग का समय पूरा होना था। इससे पहले ही एक तरफ अंग्रेजी को हटाने की मांग शुरू हुई। वहीं, दूसरी तरफ दक्षिणी राज्यों में इसके खिलाफ हिंसक प्रदर्शन होने लगे। इन सबके बीच सरकार ने ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट बनाया। इसमें अंग्रेजी और हिन्दी को केंद्र सरकार के कामकाज की भाषा बना दिया गया।  इसके साथ ही सदन की कार्यवाही, कोर्ट और राज्य-केंद्र के बीच संचार की भाषा अनिवार्य रूप से अंग्रेजी ही बनी रही। ये सिलसिला अब तक बरकरार है। 

हिन्दी को लेकर पहले क्या विवाद हो चुके हैं?  

हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देने की कई मांगें हो चुकी हैं। इसके साथ ही हिन्दी के विरोध का भी लंबा इतिहास है। हिन्दी का सबसे मुखर विरोध तमिलनाडु में रहा है। आजादी के पहले से यहां हिन्दी का विरोध होता रहा है। 1937 में उस वक्त के मुख्यमंत्री सी राजगोपालचारी ने तमिलनाडु (उस वक्त मद्रास) के 125 स्कूलों में हिन्दी को अनिवार्य रूप से पढ़ाने का आदेश जारी किया।  

द्रविड़ कड़गम (DK) के संस्थापक पेरियार ईवी रामासामी ने इसका विरोध किया। विरोध प्रदर्शनों में एक शख्स की मौत भी हुई। 1200 लोग गिरफ्तार किए गए। विरोध के चलते सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। इसके बाद राज्य के स्कूलों में हिन्दी को ऑप्शनल कर दिया गया। रोचक बात ये है कि बाद में राजगोपालचारी खुद हिन्दी विरोधी प्रदर्शनों का चेहरा बने। 26 जनवरी 1965 को हिंदी को अंग्रजी के स्थान पर देश की आधिकारिक भाषा बनना था और उसके बाद हिंदी में ही विभिन्न राज्यों को आपस में और केंद्र के साथ संवाद करना था।  हिंदी को लागू करने और न करने के आंदोलनों के बीच वर्ष 1963 में ‘राजभाषा कानून’ पारित किया गया, जिसने 1965 के बाद अंग्रेजी को राजभाषा के तौर पर इस्तेमाल न करने की पाबंदी को खत्म कर दिया। लेकिन, इससे पहले ही विरोध शुरू हो गए। 

 इस बार भी सबसे मुखर विरोध तमिलनाडु में हुआ। विरोध करने वाले पांच युवकों ने खुद को आग लगा ली। बढ़ते विरोध के बीच  सरकार ने अंग्रेजी को कामकाज की भाषा के रूप में आगे भी जारी रखने का फैसला किया। 1960 के बाद तमिलनाडु में सिर्फ दो भाषाओं में कामकाज होता है। अंग्रेजी और तमिल। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध वहां की राजनीति का अहम हिस्सा है। इसका कितना महत्व है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि 1967 में हिन्दी विरोध का आंदोलन चलाने वाली डीएमके सत्ता में आ गई। 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने देशभर में नवोदय स्कूल की शुरुआत की घोषणा की। डीएमके नेता करुणानिधि ने इसका विरोध किया। डीएमके के विरोध के बीच राज्य में हिंसा भी हुई। दंगों में 21 लोगों ने खुद को आग लगा ली। इसके बाद सरकार को अपने फैसले को बदलना पड़ा। विरोध का ही नतीजा रहा कि तमिलनाडु में अब तक कोई नवोदय विद्यालय नहीं है।  

 क्या सारे हिन्दी विरोधी आंदोलन तमिलनाडु में ही हुए हैं? 

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पहले से ही तेलगू और उर्दू समेत कई भाषाएं बोली जाती रही हैं। यही वजह है कि इन राज्यों में तमिलनाडु की तरह हिंसक आंदोलन नहीं हुए। हालांकि, यहां भी हिन्दी विरोध की कुछ घटनाएं जरूर हुई हैं। जैसे 1952 में जवाहर लाल नेहरू ने ओस्मानिया यूनिवर्सिटी को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने का प्रस्ताव किया, जिसमें शिक्षा की भाषा हिन्दी होती। अंग्रेजी की जगह हिन्दी को शिक्षा का भाषा बनाने का यहां के छात्रों ने विरोध किया। 

कर्नाटक जहां मौजूदा विवाद की शुरुआत हुई वहां भी तमिलनाडु जैसे हिन्दी विरोधी आंदोलन नहीं हुए। केरल में भी कुछ छिटपुट हिन्दी विरोधी आंदोलन हुए हैं। खास बात ये देश में सबसे कम हिन्दी भाषी केरल में ही रहते हैं। 

पूर्वोत्तर में हिन्दी को लेकर किस तरह की स्थिति रही है?

 पूर्वोत्तर के राज्यों में भी हिन्दी का इस्तेमाल बहुत कम होता है। इन राज्यों में केवल अरुणाचल प्रदेश ऐसा है जहां 10वीं तक की पढ़ाई में हिन्दी अनिवार्य भाषा है।  बाकी राज्यों में केवल आठवीं तक हिन्दी पढ़ाई जाती है। वहीं, त्रिपुरा में तो ये अनिवार्य भी नहीं है। बीते आठ अप्रैल को ही गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि पूर्वोत्तर के राज्यों में 10वीं तक हिन्दी को अनिवार्य बनाया जाएगा। इसके लिए 2,200 हिन्दी शिक्षकों की नियुक्ति इन राज्यों में की जाएगी। केंद्र के इस कदम का असम के कुछ संगठनों ने विरोध भी किया है।   

 देश के कितने राज्यों में बोली जाती है हिन्दी?

  2011 की जनगणना के मुताबिक देश के 35 में से 12 राज्यों (तब आंध्र और तेलंगाना अलग नहीं हुए थे।) में हिन्दी राज्य की पहली भाषा है। इनमें से ज्यादातर उत्तर और मध्य भारत के राज्य हैं। दक्षिण, पूर्वोत्तर, गुजरात, बंगाल जैसे राज्यों में हिन्दी बहुत कम बोली जाने वाली भाषा है। इनमें से कुछ राज्यों में दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है। हालांकि, किसी भी राज्य में हिन्दी के विरोध में तमिलनाडु जैसे उग्र  प्रदर्शन नहीं हुए, इसके बाद भी महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा जैसे राज्य भाषाई बहुलता की वकालत करते रहे हैं।



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