लव मैरेज करने वाले ‘कालीन भैया’ पंकज त्र‍िपाठी बोले- बीवी सरेआम हाथ पकड़ ले तो सांस रुक जाती है


अपनी भूमिकाओं में तिलिस्म रचना अभिनेता पंकज त्रिपाठी को खूब आता है। रोल कैसा भी हो, वे परकाया प्रवेश करने माहिर हैं। फिल्में ही नहीं ओटीटी के लिए भी गेम चेंजर साबित हुए पंकज त्रिपाठी इन दिनों चर्चा में हैं अपनी ताजातरीन फिल्म शेरदिल से। इस सिलसिले में पंकज त्रिपाठी ने नवभारत टाइम्स के साथ एक्सक्सूलिव बातचीत की और इस खास मुलाकात में वे अपनी फिल्म, बॉक्स ऑफिस, ओटीटी, अवॉर्ड, बेटी, पत्नी, रोमांस और अधूरी ख्वाहिशों पर बात करते हैं।

अपनी फिल्म में आप शेरदिल की भूमिका निभा रहे हैं। आपके लिए शेरदिल कौन है?

-मेरे लिए भारत का हर वो पिता, हर पेरेंट शेरदिल है, जो तमाम चुनौतियों के बाद अपने परिवार को सहेज कर बेहतरी की ओर ले जाना चाहता है। जो बच्चों का भविष्य संवारता है। उनको अच्छा इंसान बनाता है। मैं उन तमाम लोगों को शेरदिल मानता हूं, जो बिना किसी हो हल्ले के चुपचाप अपना काम करते है। मैं एक सज्जन को जानता हूं, जो सड़कों को गड्ढों को भरने का काम करते हैं। कई लोग हैं, जो पेड़ लगाते हैं। ऐसे तमाम हीरोज मेरे लिए शेरदिल हैं।

शेरदिल में आपका जो किरदार है वो अपने गांव के लिए, परिवार के लिए बाघ से खुद को शिकार करवाकर अपनी बलि इसलिए देना चाहता है कि उन्हें पैसे मिल जाएं। आज शहर में भले रोजगार हैं, मगर गांव-कस्बों की गरीबी और पिछड़ेपन को आप कैसे देखते हैं?
-आपके गढ़वाल के ही पिथौरागढ़ के कवि महेश चंद्र पुनैठा जी उनकी एक कविता है, ‘सड़क तुम अब आई हो गांव जब सारा गांव शहर जा चुका है’, तो गरीबी और विस्थापन इंटीरियर पार्ट का एक बहुत बड़ा दंश है। हमारा प्रदेश बिहार विस्थापन के मामले में श्रेष्ट ही होगा। मैं आबूधाबी में था, तो वहां भी हमारे भाई शहर को बना रहे हैं। हम शहरों की दुनिया में रहने वाले लोग कई बार अंदाजा भी नहीं लगा पाते कि गांवों के हालात क्या हैं? हमारी फिल्म की कहानी बिना लाउड हुए आदमी, जानवर, शहर,जंगल, पर्यावरण के मुद्दों की बात करती है, मगर मनोरंजक ढंग से। निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी द्वारा लिखी यह कहानी रियल इंसिडेंट पर आधारित है। उन्होंने दो -तीन साल पहले मुझे अखबार की एक कतरन पढ़वाई थी, पढ़कर मैं शॉक्ड था और तर्क ढूंढ रहा था कि एक व्यक्ति गरीबी से तंग आकर कैसे मरने को तैयार हो जाएगा? कहानी को विश्वसनीय बनाने के लिए हमने थोड़ी सिनेमैटिक लिबर्टी ली है। फिल्म में सयानी गुप्ता, नीरज काबी जैसे मंजे कलाकार हैं। इसकी लोकेशन और गाने (कबीर और गुलजार साहब के) अद्भुत हैं।


आपकी फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज होगी, मगर पिछले कई हफ्तों से बॉक्सऑफिस पर बड़े स्टार्स की हिंदी फिल्में भी अपना रंग नहीं जमा पाई हैं?
– फिल्मों के परिणाम पर मैं चिंतित नहीं होता, क्योंकि वो मेरे हाथ में नहीं है। मेरे हाथ में ईमानदारी से अभिनय करना है और वो मैं करता हूं और मैं अपना सौ प्रतिशत दे चुका हूं, मगर दर्शक इसे कैसे रिसीव करेंगे वो मेरे बस में नहीं है। बाकी तो सुधी दर्शक और ईश्वर जाने।

आपको ओटीटी का गेम चेंजर माना जाता है? एक अरसे से आप ओटीटी पर छाए हुए हैं?
– ओटीटी के आने से काफी कुछ बदला है। आज हर अभिनेता व्यस्त है, तकरीबन सभी लोगों के पास काम है। ओटीटी पर ढाई या तीन घंटे का बंधन नहीं है, तो जो उप किरदार या सब प्लॉट हुआ करते थे, उन्हें भी अच्छा-खासा एक्सपोजर मिल गया है। वहां आठ एपिसोड्स में कहानी कहनी है, तो लेखक-निर्देशक किरदारों पर इन्वेस्ट करते हैं। वहां पर अभिनेता के ऊपर बॉक्स ऑफिस का दबाव नहीं रहता। दर्शकों को भी परफॉर्मेंस अच्छी लगती है, यो वे तुरंत गूगल या इंटरनेट पर सर्च करते है और अपनी फैन फॉलोइंग से उसे फेमस कर देते हैं। ये बात हमारे अभिनय के शुरुआती दौर में नहीं थी। तब हम तो तरसते थे कि किसी अखबार में छोटी-सी खबर आ जाए। मेरे बाबूजी गांव में रहते हैं और आज भी जब वे किसी अखबार में मेरा इंटरव्यू या कहबर पढ़ते हैं, तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है। वो अखबार में मेरे बारे में पढ़कर उस दिन मुझे फोन जरूर करते हैं।


तो क्या यही वजह थी कि ओटीटी के किरदारों के ओवर एक्सपोजर और दोहन से बचने के लिए, कुछ अलग करने के लिए आपने शेरदिल की भूमिका की?
-ओटीटी पर ऐसा होता है कि किरदार रिपीट करना पड़ता है। मर्जापुर में कालीन भैया ही रिपीट हो रहे हैं बार-बार, तो जब मैंने शेरदिल की भूमिका सुनी, तो मुझे लगा कि ये अलग किरदार है। मुझे गंगाराम जैसे किरदार ने एक्साइट किया। अब लाइटर नोट की कई भूमिकाएं करने के बाद मैं कुछ इंटेंस ड्रामा ढूंढ रहा हूं।

हाल ही में एक प्रतिष्ठित अवॉर्ड फंक्शन में आपको पूरे तीन मिनट का स्टैंडिंग ओविएशन मिला, वो कैसा अहसास था?
-बहुत ही अद्भुत। आबू धाबी के उस पैक्ड ऑडिटोरियम में जहां 15-20 हजार के दर्शक थे। मैं भी थोड़ा हतप्रभ था और मेरे लिए वो अविस्मरणीय था वो कि लोग मुझसे इतना प्रेम करते हैं। मैंने कुछ स्पीच नहीं दिया। वहां मौजूद लोगों की तालियों और हर्षोल्लास ने सब कुछ कह दिया था। मुझे लगा कि ये कहानियों का असर है या मेरे आचरण या बातों का प्रभाव है? मैंने किस लेवल पर उनसे कनेक्ट किया? मैं बहुत ऋणी महसूस करता हूं। मैं अपने दर्शकों को सुधि दर्शक कहता हूं और मानता हूं कि ये उन्हीं का प्रेम और आभार है। मनोरंजन के जरिए हमारी कोशिश यही है कि लोगों में दया, करुणा और प्रेम का संचार सकें। भगवान और मां-बाप का शुक्रगुजार हूं। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि इतनी शोहरत और प्रेम मिलेगा मुझे। मैं तो मुंबई आया था अभिनय करने यही सोच कर कि काम मिलेगा और घर की दाल-रोटी चलती रहेगी। मेरा नाईट मेयर यही है कि खराब अभिनेता फिर भी चल जाएगा, मगर मैं खराब इंसान नहीं कहलाना चाहता। अभिनय के जरिए भी मेरा प्रोग्रेशन अच्छा इंसान बनने और अच्छा काम करने का ही है।


आप अपनी बेटी के काफी करीब हैं। अवॉर्ड फंक्शन में आपकी बेटी आशी आपके साथ रेड कार्पेट पर चली और उनकी खूबसूरती के साथ-साथ इस बात की भी चर्चा चल पड़ी कि वे अभिनय के क्षेत्र में आएंगी?
-पहली बार वे मेरे साथ ऐसे किसी इवेंट में शामिल हुईं। उनके बारे में काफी खबरें छपीं, तो मुझे हंसी भी आई। मैंने कहा कि इन खबरों का असर नहीं होने देना अपने ऊपर। तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, तो उसने प्रतिप्रश्न किया कि आपको लगता है मुझ पर असर होगा? मैंने कहा, लगता तो नहीं है। अब अभिनय में आना है या नहीं, ये तो वही तय करेंगी। फिलहाल तो वे पढ़ रही हैं। उनको थिएटर में भी रुचि है। वे लिट्रेचर काफी पढ़ती हैं। देखो आगे क्या होता है। वैसे घर में बच्चे जो बर्ताव माता-पिता का देखते हैं, वो अनकहे ढंग से उनमें आ जाता है। पिता के रूप में मैं यही चाहता हूं कि वह बेहतर नागरिक और अच्छी इंसान बने। संवेदनशील हो, जो कि वो हैं।


आज जो सोशल, इकोनॉमिकल और रिलीजियस माहौल चल रहा है, उसे लेकर एक सिटीजन या अभिनेता होने के नाते आप फिक्रमंद होते हैं?
-मैं उस किस्म का कलाकार हूं कि आपको मेरी फिक्र मेरी कहानियों में दिखेगी। मेरा माध्यम सिनेमा है। जैसे नेचर, पर्यावरण और इंसान और जानवर के रिश्ते को लेकर मेरी जो फिक्र है, वो आपको मेरी फिल्म शेरदिल में देखने मिलेगी। दुनिया तो हमेशा से ऐसी ही थी। हर एज ग्रुप को लगता है कि पिछला जो वक्त था, वो ज्यादा अच्छा था। ये वक्त अच्छा नहीं है। महाभारत में क्या था? दूसरी तरफ देखें, तो समाज भी इवॉल्व हुआ है। आज टैबू कहलाने वाले विषयों पर बात हो रही है और बदलाव भी हुआ है, जो ऑर्गेनिक है। जो बयार चल रही है, वो बयार चलेगी। कभी पूर्वा बहती है, तो कभी पछुवा हवा चलती है। जीवन पूर्वा-पछुवा के बीच के थपेड़ों को झेलने का नाम है। सब चीजें हमेशा एक जैसी नहीं रहती।


आज घर-परिवार की सुख-शांति के साथ-साथ इतनी शोहरत हासिल करने के बाद कोई अधूरी ख्वाहिश?

-मैं वृक्षारोपण करना चाहता हूं। लोगों को हवा-पानी के प्रति जागरूक करना चाहता हूं ताकि हमारे बच्चों के बच्चों को हवा-पानी मिल सके। उसके लिए हमें अभी से थोड़ा प्रयास करना होगा। बाकी निजी ख्वाहिश कुछ है नहीं, हां ये जरूर लगता है कि दो-चार दिन की छुट्टी मिले, तो मैं मां-बाबूजी के पास जाऊं।

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कभी ये ख्वाहिश नहीं होती कि बॉलिवुड के टिपिकल हीरो की तरह पर्दे पर नाच-गाना और रोमांस करें? आप वैसे कितने रोमांटिक हैं?
-हां, क्यों नहीं? मैं एक अभिनेता हूं और भूमिकाओं में प्रयोग जरूर करना चाहूंगा। मैं ऐसी कहानी ढूंढ रहा हूं। एक रोमांटिक कहानी सुनी है मैंने, अगर वो बन जाती है, तो जल्द ही रोमांटिक रोल में नजर आऊंगा। मैं कितना रोमांटिक हूं, ये तो पत्नी ही बता पाएगी। मैं थोड़ा नॉन रोमांटिक हूं। आप जब अध्यात्म और लिट्रेचर में घुस जाओ, तो रोमांस की मात्रा कम हो जाती है। तो आप हर चीज को थोड़ा तार्किक और पोएटिक अंदाज में देखने लगते हैं। वैसे प्रेम विवाह किया है मैंने रोमांस तो होगा ही। हो सकता है सामाजिक दबाव में मैं उस रोमांस को दिखाता नहीं होउंगा . मेरी पत्नी अभी भी सार्वजनिक महफिल में हाथ पकड़ ले तो मैं सचेत हो जाता हूं, मेरी सांसें रुक जाती हैं, क्योंकि हमने तो वो देखा है कि मां दस मीटर आगे चल रही हैं और बाबूजी दस मीटर पीछे। शादियों में भी हम साथ-साथ नहीं जाते। बरेली की बर्फी में हमने शायद ऐसा सीन रखा भी था।



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