Shiv Sena: इससे पहले तीन बार बगावत से दो चार हो चुकी है शिवसेना, शिंदे सफल हुए तो लगेगा सबसे बड़ा झटका


महाराष्ट्र की सियासत में बड़ी हलचल मची हुई है। सत्ताधारी पार्टी शिवसेना टूट की कगार पर है। उद्धव सरकार के तीन मंत्रियों समेत 26 शिवसैनिक विधायक बगावत पर उतर आए हैं। कांग्रेस के कई विधायकों के भी नाराज होने की खबर है।  

अगर ऐसा होता है तो महाराष्ट्र की उद्धव सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। उद्धव फिलहाल डैमेज कंट्रोल में जुट गए हैं। शिवसेना के दिग्गज नेता मिलिंद नार्वेकर और रवींद्र पाठक गुजरात पहुंचे। यहां दोनों नेताओं ने बागी विधायकों से मुलाकात की। अचानक शिवसेना में मची अफरा-तफरी से पार्टी की पुरानी बगावती कहानियां लोगों के बीच चर्चा में आ गईं हैं। ऐसी ही तीन कहानियां हम आपको बताएंगे जब शिवसेना में बगावत हुई। एक बार तो उद्धव ठाकरे के भाई ने ही पार्टी तोड़ दी थी। आइए जानते हैं कब, क्या और कैसे हुआ? 

 

पहले मौजूदा राजनीतिक स्थिति के बारे में जान लीजिए

महाराष्ट्र में शिवसेना के विधायकों की बगावत के बाद सत्ता के समीकरण को लेकर अलग-अलग कयास लगाए जा रहे हैं। एकनाथ शिंदे 26 विधायकों के बागी होने का दावा कर रहे हैं। इसमें कुछ निर्दलीय विधायक भी हैं। इसके साथ ही भाजपा निर्दलीय और अन्य छोटे दलों के कुल 13 विधायकों के समर्थन का दावा कर रही है। 

इस स्थिति में भाजपा के 106 विधायकों को मिलाकर भाजपा के पक्ष में संख्याबल 145 हो जाएगा। जो बहुमत का आंकड़ा है। ऐसे में उद्धव ठाकरे की सरकार संकट में आ सकती है। दूसरी ओर ये भी अटकलें हैं कि बागियों द्वारा उद्धव ठाकरे के सामने भाजपा को समर्थन देने की शर्त रखी जा सकती है। अब आपको शिवसेना में हुई तीन पुरानी बगावत की कहानियों के बारे में बताते हैं…

 

1. जब बाल ठाकरे से छगन भुजबल ने विद्रोह किया 

ये कहानी तब की है जब महाराष्ट्र की राजनीति में बाला साहेब ठाकरे का दबदबा हुआ करता था। तब छगन भुजबल की पहचान दबंग ओबीसी नेता के रूप में थी। वह बाल ठाकरे के सबसे करीबी नेताओं में से एक माने जाते थे। हालांकि, दोनों के बीच साल 1985 से विवाद शुरू हो गया। उस साल हुए विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना सबसे बड़ा विरोधी दल बनकर उभरी। 

जब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष चुनने की बारी आई तो भुजबल को लगा कि जाहिर तौर पर बाल ठाकरे उन्हें ही ये जिम्मेदारी देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भुजबल को ये जानकर सदमा लगा कि नेता प्रतिपक्ष का पद ठाकरे ने मनोहर जोशी को दे दिया। इसके बाद भुजबल को प्रदेश की राजनीति से हटाकर शहर की राजनीति तक सीमित कर दिया गया। उन्हें मुंबई का मेयर बनाया गया। 

इस बीच केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन सरकार आ गई जिसने मंडल आयोग की पिछड़ा आरक्षण को लेकर की गईं सिफारिशें लागू करना तय किया। महाराष्ट्र में शिवसेना की पार्टनर, बीजेपी इस फैसले का समर्थन कर रही थी, लेकिन शिवसेना विरोध में थी। ओबीसी समाज से आने वाले भुजबल को ये बात ठीक नहीं लगी। 

मार्च 1991 में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर मनोहर जोशी के खिलाफ बयान दिया। ये भी साफ कर दिया कि अब वह मुंबई का दोबारा मेयर नहीं बनना चाहते हैं। उन्हें विपक्ष का नेता बनाया जाना चाहिए। ये बातें सुनकर बाल ठाकरे ने जोशी और भुजबल को मातोश्री बुलाया और समझौते की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 

पांच दिसंबर 1991 को भुजबल ने बाल ठाकरे के खिलाफ विद्रोह कर दिया। 8 शिवसेना के विधायकों ने विधानसभा स्पीकर को खत सौंपा कि वे शिवसेना-बी नाम का अलग से गुट बना रहे हैं और मूल शिवसेना से खुद को अलग कर रहे हैं। 

स्पीकर ने भुजबल के गुट को मान्यता दे दी जिसके बाद उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस की सदस्यता ले ली। इस तरह से शिवसेना को भुजबल ने दो फाड़ कर दिया। ये पहली बार था जब ठाकरे परिवार को कहीं से धोखा मिला था। 

 

2. नारायण राणे ने 10 विधायकों संग की थी बगावत

शिवसेना को दूसरी बार तब झटका लगा था, जब 2005 में नारायण राणे ने बगावत की। राणे ने शिवसेना के साथ अपने सियासी सफर की शुरुआत की थी। साल 1968 में केवल 16 साल की उम्र में ही नारायण राणे युवाओं को शिवसेना से जोड़ने में जुट गए।

 शिवसेना में शामिल होने के बाद नारायण राणे की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती चली गई। युवाओं के बीच नारायण राणे की ख्याति को देखकर शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे भी प्रभावित हुए। उनकी संगठन की क्षमता ने उन्हें जल्द ही चेंबूर में शिवसेना का शाखा प्रमुख बना दिया। 

साल 1985 से 1990 तक राणे शिवसेना के कॉरपोरेटर रहे। साल 1990 में वो पहली बार शिवसेना से विधायक बने। इसके साथ ही वो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बने। राणे का कद शिवसेना में तब और बढ़ गया जब छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़ दी। 

साल 1996 में शिवसेना-बीजेपी सरकार में नारायण राणे को राजस्व मंत्री बनाया गया। इसके बाद मनोहर जोशी के मुख्यमंत्री पद से हटने पर राणे को सीएम की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। एक फरवरी 1999 को शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन वाली सरकार में नारायण राणे मुख्यमंत्री बने। 

हालांकि, ये खुशी चंद दिनों की थी। जब उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तो नारायण राणे के सुरों में बगावत हावी होने लगी। राणे ने उद्धव की प्रशासनिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए। इसके बाद नारायण राणे ने 10 शिवसेना विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ दी और फिर तीन जुलाई 2005 को कांग्रेस में शामिल हो गए। 

 

3. राज ठाकरे ने जब नई पार्टी बना ली

बाल ठाकरे के भतीजे और उद्धव ठाकरे के भाई राज ठाकरे पहले शिवसैनिक हैं, जिन्होंने शिवसेना छोड़ने के बाद नई पार्टी बनाई। राज ठाकरे ने 2005 में शिवसेना ने नाता तोड़ लिया था। इसके बाद 2006 में उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया। शिवसेना से अपनी राह अलग करने के बाद उनके साथ विधायक भले ही नहीं गए, लेकिन बड़े पैमाने पर काडर से जुड़े लोग उनके पीछे-पीछे शिवसेना छोड़ चल पड़े। 

मौजूदा बगावत में एकनाथ शिंदे करीब 35 विधायकों के साथ होने का दावा कर रहे हैं। अगर शिंदे की बगावत सफल होती है तो 56 साल पुरानी पार्टी शिवसेना में ये अब तक की सबसे बड़ी टूट होगी। पिछली तीन टूट में कभी भी 10 से ज्यादा विधायक टूटकर अलग नहीं हुए थे।



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