तेम्बा बावुमा ने छठी कक्षा में ही देख लिया था दक्षिण अफ्रीकी टीम को आगे ले जाने का सपना


नई दिल्ली. यह 2001 की बात है. केपटाउन के प्रतिष्ठित ‘साउथ अफ्रीकन कॉलेज स्कूल्स’ (एसएसीएस) ने विद्यार्थियों को एक प्रोजेक्ट दिया जिसका विषय था, ‘अगले 15 साल में मैं स्वयं को कहां देखता हूं’. वह 11 साल का एक बच्चा था जिसके निबंध को स्कूल की पत्रिका में जगह मिली थी. यह बच्चा कोई और नहीं बल्कि वर्तमान में दक्षिण अफ्रीका की सीमित ओवरों की टीम के कप्तान तेम्बा बावुमा (Temba Bavuma) थे. उन्होंने लिखा था, ‘मैं अगले 15 साल में खुद को मिस्टर माबेकी (दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति) के साथ हाथ मिलाते हुए देख रहा हूं जो मुझे दक्षिण अफ्रीका की मजबूत टीम तैयार करने के लिए बधाई दे रहे हैं.’

छठी कक्षा में पढ़ने वाले बावुमा ने आगे लिखा, ‘अगर मैं ऐसा कर पाया तो मैं निश्चित तौर पर अपने प्रशिक्षकों और माता पिता के समर्थन तथा विशेषकर अपने दो ‘अंकल’ का आभारी रहूंगा जिन्होंने मुझे इस लायक बनाया.’ बावुमा के इस निबंध को तब स्थानीय मीडिया ने भी खूब तवज्जो दी थी. कई लोगों ने तब किशोरावस्था की तरफ बढ़ रहे इस बच्चे की बातों को गंभीरता से नहीं लिया होगा लेकिन इसके ठीक 15 साल बाद 2016 में जब बावुमा टेस्ट क्रिकेट में शतक जड़ने वाले पहले अश्वेत दक्षिण अफ्रीकी बने तो माबेकी राष्ट्रपति पद से हट चुके थे.

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बमुश्किल 62 इंच लंबे बावुमा ने ना सिर्फ अपनी भविष्यवाणी सच की बल्कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका का कद भी बढ़ा दिया जो रंगभेद की नीति समाप्त होने के तीन दशक बाद भी पुराने दौर की मर्मांतक पीड़ा से उबरने की कोशिश कर रहा है. जाने या अनजाने, बावुमा राष्ट्रीय क्रिकेट टीम के पहले अश्वेत कप्तान के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं जो कि केवल एक प्रतीक नहीं बल्कि ऐसे समाज के लिए उम्मीद की किरण है जो कि उस समाज से घुलने मिलने का प्रयास कर रहा है जिसने उसे सदियों तक दबाकर रखा था.

दक्षिण अफ्रीका की सीमित ओवरों के कप्तान के रूप में और अब तक केवल 16 वनडे खेलने वाले (उन्होंने हालांकि 47 टेस्ट मैच खेले हैं) बावुमा की शांतचित लेकिन ठोस बल्लेबाजी ने उनकी टीम की भारत के खिलाफ टेस्ट सीरीज में जीत में अहम भूमिका निभाई और सीमित ओवरों के कप्तान के रूप में मैदान पर उनकी जीवंत उपस्थिति ने नई उम्मीद जगाई है.

और ऐसा क्यों न हो. आखिर उन्होंने विराट कोहली, केएल राहुल, शिखर धवन, ऋषभ पंत और जसप्रीत बुमराह जैसे शीर्ष खिलाड़ियों से सजी भारतीय टीम के खिलाफ आगे बढ़कर नेतृत्व किया है. यह मामूली उपलब्धि नहीं है. सिपोकाजी सोकानीले दक्षिण अफ्रीकी पुरुष टीम से जुड़ी बेहद लोकप्रिय मीडिया मैनेजर हैं और उन्हें बावुमा वास्तविक नेतृत्वकर्ता लगते हैं. उन्होंने बावुमा को ड्रेसिंग रूम में एक खिलाड़ी ही नहीं एक व्यक्ति के रूप में भी देखा है.

सिपोकाजी ने कहा, ‘तेम्बा वास्तविक नेतृत्वकर्ता हैं और जो काम वह स्वयं करने की स्थिति में न हों उसकी किसी से उम्मीद भी नहीं करते हैं. तेम्बा ने खिलाड़ियों और टीम के लिए उच्च मानदंड तैयार किए हैं और हर कोई उस माहौल का हिस्सा है. हमारी टीम संस्कृति बहुत अच्छी है जो हर किसी को एकजुटता का अहसास दिलाती है.’

लैंगा केपटाउन का एक उपनगरीय इलाका है जहां रंगभेद के दिनों में अश्वेत दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने कई तरह की यातनाएं झेली हैं. इसका अपना सामाजिक राजनीतिक इतिहास है. बावुमा ने ऐसे इलाके में अपने पत्रकार पिता वुयो और खेलों के प्रति प्यार रखने वाली मां के सानिध्य में खुद को आगे बढ़ाया. बावुमा के भाग्य में सूर्य (स्थानीय भाषा में सूर्य को लैंगा कहा जाता है) की तरह चमकना लिखा था.

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संयोग से बावुमा से पहले लैंगा से एक अन्य अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर थामी सोलेकिले निकला था जिनका करियर लंबा नहीं खिंच पाया था. वह हॉकी खिलाड़ी भी थे. उन पर घरेलू टी20 टूर्नामेंट में मैच फिक्सिंग करने के लिये प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन पिछले साल बावुमा के प्रमुख खिलाड़ी और नेतृत्वकर्ता के रूप में उबरने से इस समुदाय को भी मजबूती मिली. उन्होंने उन्हें अहसास दिलाया कि वे भी इस मुकाम पर पहुंच सकते हैं. वह अपनी सामाजिक स्थिति से अवगत हैं जिसका सबूत भारत पर 3-0 से जीत के बाद उनका बयान था.

बावुमा ने रविवार को कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि यह आसान है (टीम की कप्तानी करना). इसमें आपको कई चीजें प्रबंधित करने की जरूरत होती है. मेरे लिए क्रिकेट पर पूरा ध्यान रखना सबसे बड़ी बात रही.’ एक जमाने में दक्षिण अफ्रीकी टीमों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आम बात नहीं थी. मखाया एनटिनी से पूछिए, जिनके लिए अपने सर्वश्रेष्ठ दिनों में भी काम आसान नहीं था. सिपोकाजी को लगता है कि बावुमा इसे पूरी तरह से बदलना चाहते हैं. उन्होंने कहा,‘तेम्बा और डीन एल्गर ने ऐसी टीम संस्कृति तैयार की है जो सभी के अनुकूल है, जिसमें सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और जिसमें उन्हें लगता है कि वे टीम का हिस्सा हैं.’

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