बड़ा सवाल: ‘राष्ट्रद्रोह’ कानून के कारण हुआ था जलियांवाला बाग हत्याकांड, क्या आजाद भारत में होना चाहिए ऐसा कानून?


मौजूदा वक्त में जिस कानून को लेकर सबसे ज्यादा बहस होती है, उसमें राष्ट्रद्रोह विरोधी कानून सबसे प्रमुख है। विपक्षी दलों, सरकार विरोधी आंदोलनकारियों का आरोप होता है कि जो व्यक्ति भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करता है, उस पर राष्ट्रद्रोह की धारा लगाकर उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है और उसे वर्षों तक परेशान किया जाता है। लेकिन कम लोगों को ही यह मालूम होगा कि भारतीय इतिहास की सबसे वीभत्स घटनाओं में से एक जलियांवाला बाग हत्याकांड भी राष्ट्रद्रोह कानून का विरोध करने के कारण ही हुआ था। सामाजिक कार्यकर्ता और सिविल सोसाइटी के लोग आवाज उठाते हैं कि यह कानून उपनिवेशिक सत्ता के लिए सही कहा जा सकता था, लेकिन भारत जैसे आधुनिक लोकतंत्र में इसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। क्या राष्ट्रद्रोह कानून को खत्म करने या इसमें बदलाव करने की आवश्यकता है?

जलियांवाला बाग हत्याकांड के पीछे की कहानी
राष्ट्रद्रोह के वर्तमान कानून को समझने के पहले जलियांवाला बाग हत्याकांड के पीछे की कहानी समझ लेते हैं। दरअसल, 1914-18 के बीच दुनिया में पहला विश्वयुद्ध लड़ा गया था। इसमें गुलाम भारत भी अंग्रेजों का साथ दे रहा था। अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को यह भरोसा दिया था कि यदि भारत प्रथम विश्वयुद्ध में इंग्लैंड का साथ देता है तो वे भारत को स्वतंत्र करने के बारे में गंभीरता से विचार करेंगे।

अंग्रेजों के इसी आश्वासन पर भारतीय नेताओं ने इंग्लैंड का साथ देने की नीति अपनाई थी। इसी कारण प्रथम विश्वयुद्ध में भारत के लगभग 13 लाख सैनिकों ने भाग लिया। उन्हें अलग-अलग देशों में लड़ाई के लिए भेजा गया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार कम से कम 43 हजार भारतीय सैनिक इस युद्ध में मारे गए थे। इनके नाम अंग्रेजी सरकार के दस्तावेजों में उपलब्ध हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मृत  भारतीय सैनिकों की संख्या इससे भी कहीं ज्यादा थी।

हालांकि, जब भारतीय नेताओं ने अंग्रेजों का साथ देने का निर्णय लिया था, उस दौरान भी भारत के पंजाब और बंगाल के अनेक इलाकों में अंग्रोजों का भारी विरोध हो रहा था। कुछ भारतीय नेता अंग्रेजों पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं थे और उनका मानना था कि युदध बीत जाने के बाद अंग्रेज अपनी बात पर खरे नहीं उतरेंगे। इन नेताओं की इसी सोच का प्रभाव माना जा रहा था कि इसी दौरान  पंजाब और अविभाजित बंगाल के अनेक इलाकों में अंग्रोजों के खिलाफ जमकर विरोध हो रहा था।

इन विरोध प्रदर्शनों से अंग्रेजी सरकार बुरी तरह घबरा गई थी। अंग्रेजी सरकार ने इसके पहले 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का खतरा देख लिया था। उसे लग रहा था कि यदि सरकार के खिलाफ इसी तरह विरोध प्रदर्शन होते रहे तो दूसरी बार स्वतंत्रता का आंदोलन अपने चरम पर पहुंच सकता है जिसे संभालना सरकार के लिए संभव नहीं होगा। सरकार एक ही समय पर प्रथम विश्व युद्ध के साथ-साथ भारत के अंदर एक नया मोर्चा नहीं खोलना चाहती थी। यही कारण है कि उसने इन विरोध प्रदर्शनों को स्थाई रूप से रोकने की योजना बनाई।

इस योजना के अनुसार काम करते हुए ही अंग्रेज सरकार ने एक ब्रिटिश न्यायाधीश सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। इस कमेटी का उद्देश्य था कि वह पंजाब और बंगाल में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का बारीकी से अध्ययन करे और यह समझने की कोशिश करे कि सरकार के खिलाफ ये प्रदर्शन क्यों हो रहे हैं। साथ ही सरकार यह भी समझना चाहती थी कि इन विरोध प्रदर्शनों के पीछे किन विदेशी शक्तियों का हाथ है?

इस कमेटी की संस्तुति पर ही रॉलेक्ट ऐक्ट कानून बना जिसमें इस तरह के आंदोलनों को दबाने के लिए सरकार को लगभग असीमित शक्ति प्रदान कर दी गई। इसमें सरकार नेताओं पर बिना कोई मुकदमा चलाए वर्षों जेल में रख सकती थी, वह प्रेस को सेंसर कर सकती थी। इन मामलों में गिरफ्तार नेताओं को अपने बचाव के लिए पर्याप्त अवसर भी नहीं दिया जाता था।

इस एक्ट के पास होने के बाद जगह-जगह पर सरकार विरोधी प्रदर्शन होने लगे। नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवियों का मानना था कि इस कानून के बाद सरकार का विरोध करना संभव नहीं रह जाएगा। वह निरंकुश हो जाएगी और जो भी विरोध करेगा, उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा। इसके विरोध में प्रदर्शन करने के लिए ही लोग जलियांवाला बाग में बैशाखी के दिन एकत्र हुए थे। इन पर जनरल डायर के इशारे पर गोलियां बरसा दी गईं जिसमें 400 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। मृतकों में डेढ़ महीने के एक बच्चे के साथ 41 नाबालिग युवक भी शामिल थे।

अब इस तरह के कानून की आवश्यकता नहीं
दयाल सिंह कॉलेज में राजनीति विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शिवानी सिंह ने अमर उजाला से कहा कि औपनिवेशिक सत्ता एक कल्याणकारी राज्य सत्ता नहीं थी। उसका काम केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखना और टैक्स वसूलना था। टैक्स वसूलने के लिए उसके लिए यह आवश्यक था कि शांति बनी रहे और जनता में उसके खिलाफ विद्रोह न पैदा हो। ऐसे में जो भी नेता सरकार के खिलाफ आवाज उठाते थे, उन्हें किसी भी कीमत पर उसे रोकना था। इसी के लिए राजद्रोह कानून लाया गया था।

डॉ. शिवानी सिंह कहती हैं कि लेकिन 1947 के बाद भारत एक कल्याणकारी लोकतांत्रिक राज्य घोषित हो गया। इसमें सरकार को टैक्स वसूलने के बदले में जनता के हित के लिए कल्याणकारी कार्य करना भी आवश्यक हो गया। सरकार इसके लिए कार्य करने के साथ-साथ समय-समय पर उचित कानून भी बनाती है जिससे लोगों को अपने कार्य-व्यापार में कोई बाधा न पैदा हो।

लेकिन, साथ ही राज्य ने नागरिकों को यह अधिकार दिया कि सरकार के किसी भी कार्य या कानून से यदि उसे (किसी नागरिक) को कोई परेशानी हो रही हो तो वह उसके खिलाफ आवाज उठा सकता है। बिना शस्त्र उठाए वह धरना, प्रदर्शन, सभा करके अपने विरोध को प्रकट भी कर सकता है। औपनिवेशिक काल की तरह उसके इस अधिकार को कम या समाप्त नहीं किया जा सकता है। संविधान में अदालतों के जरिए नागरिकों के इस अधिकारों को संरक्षित करने की व्यवस्था भी की गई है। 

डॉ. शिवानी सिंह का मानना है कि यदि किसी कारण से कोई सरकार नागरिकों के इन अधिकारों का हनन करती है, उसके बोलने, लिखने पर रोक लगाती है तो यह किसी डिक्टेटरशिप रूल वाले देश की निशानी हो सकती है, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की नहीं। किसी लोकतांत्रिक देश को ऐसे कानून या सोच की आवश्यकता नहीं हो सकती जो किसी नागरिक को अपना विचार व्यक्त करने से रोकते हों।

उन्होंने कहा कि सत्ता किसी के व्यक्तिगत जीवन, खाने-पहनने, मांस खाने या न खाने, किसी फिल्म को देखने-बनाने में दखल नहीं दे सकती। इस तरह की सोच लोकतांत्रिक व्यवस्था की सफलता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है, इसलिए सरकार को नागरिकों को अपने विचार प्रकट करने का पर्याप्त उचित मंच उपलब्ध कराना चाहिए।



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