सुप्रीम कोर्ट : सरकार को नीति बनाते समय कर्मचारियों के पारिवारिक जीवन की सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए


उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को अपने एक फैसले में कहा कि सरकारों को अपने कर्मचारियों के लिए नीति बनाते समय व्यक्ति की गरिमा और निजता के एक तत्व के रूप में उनके पारिवारिक जीवन की सुरक्षा के महत्व पर उचित ध्यान देना चाहिए। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि निजता, गरिमा और व्यक्तियों के पारिवारिक जीवन के अधिकारों में राज्य का हस्तक्षेप आनुपातिक होना चाहिए।

न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए केरल हाईकोर्ट के एक आदेश को सही ठहराते हुए यह बात कही है। दरअसल, हाईकोर्ट ने अपने आदेश में अंतर-आयुक्त स्थानांतरण (आईसीटी) को वापस लेने से जुड़े परिपत्र की वैधता को बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क आयुक्तालय निरीक्षक (केंद्रीय उत्पाद शुल्क, निवारक अधिकारी और परीक्षक) ग्रुप बी भर्ती नियम 2016 में का ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।

पीठ ने नीति पर विस्तार से विचार किया और कहा कि जब हम केरल उच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले को बरकरार रखते हैं, तो हम प्रतिवादियों (केंद्र) के लिए यह खुला छोड़ देते हैं कि वे पति-पत्नी की पोस्टिंग को समायोजित करने के लिए नीति पर विकलांग और अनुकंपा आधार पर फिर से विचार करें। 

पीठ ने कहा कि इस तरह की प्रक्रिया को कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में छोड़ देना चाहिए, इस प्रक्रिया में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 और अनुच्छेद 21 के तहत आने वाले संवैधानिक मूल्यों की विधिवत रक्षा की जाए। पीठ ने यह भी कहा कि वर्तमान मामले में राज्य को दो उद्देश्यों से निर्देशित किया गया है: पहला, आईसीटी के दुरुपयोग की संभावना और दूसरा सेवा में होने वाली विकृति जो और अधिक मुकदमेबाजी की संभावनाएं पैदा करती है। पीठ ने कहा कि राज्य को अपने कर्मचारियों के लिए नीति बनाते समय व्यक्ति की गरिमा और गोपनीयता के एक तत्व के रूप में पारिवारिक जीवन की रक्षा के महत्व पर उचित ध्यान देना होगा।

कोर्ट ने कहा है कि पारिवारिक जीवन को बनाए रखने की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक विशेष नीति को कैसे संशोधित किया जाना चाहिए, इसे सरकारों द्वारा निर्धारित करने के लिए छोड़ा जा सकता है। हालांकि, अपनी नीति तैयार करने में सरकारें यह नहीं कह सकती कि वह पारिवारिक जीवन के संरक्षण सहित बुनियादी संवैधानिक मूल्यों से जुड़े अनुच्छेद 21 से बेखबर है। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह विचार करते हुए कि क्या नीति में कोई संशोधन आवश्यक है, उन्हें (केंद्र और राज्य) नीति के उद्देश्यों और इसे लागू करने के लिए अपनाए गए साधनों के बीच आनुपातिक संबंध की आवश्यकता को ध्यान में रखना चाहिए।

पीठ ने कहा कि किसी भी नीति को उसकी वैधता, उपयुक्तता, आवश्यकता और मूल्यों को संतुलित करने की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए, जो संवैधानिक मूल्यों द्वारा सूचित निर्णय लेने की प्रक्रिया के अंतर्गत आता है। पीठ ने बात 20 सितंबर, 2018 को जारी एक सर्कुलर को ध्यान में रखते हुए कही, जिसमें आईसीटी के लिए निर्धारित अवधि के तहत अत्यधिक अनुकंपा आधार जैसी असाधारण परिस्थितियों को उल्लेखित किया गया है। पीठ ने कहा कि क्या इस तरह के प्रावधान को विशेष रूप से शामिल करने के लिए उपयुक्त रूप से बढ़ाया जाना चाहिए जिसमें (i) पति या पत्नी की पोस्टिंग शामिल है; (ii) विकलांग व्यक्ति; या (iii) अनुकंपा हस्तांतरण, एक ऐसा मामला है जिस पर बोर्ड (सीबीडीटी) द्वारा नीतिगत स्तर पर विचार किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने कहा कि सेवा न्यायशास्त्र के कुछ बुनियादी नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि स्थानांतरण अखिल भारतीय सेवा के तहत है। कर्मचारी को कहां तैनात किया जाना चाहिए, ऐसे मामले सेवा की अनिवार्यताओं द्वारा तय होते हैं। इसमें किसी कर्मचारी को अपनी पसंद की जगह पर स्थानांतरण या पोस्टिंग का दावा करने का कोई मौलिक अधिकार या उस मामले में निहित अधिकार नहीं है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए 50-पृष्ठ के फैसले में पीठ ने कहा कि स्थानांतरण और पोस्टिंग से संबंधित कार्यकारी निर्देश और प्रशासनिक निर्देश स्थानांतरण या पोस्टिंग का दावा करने का एक अपरिहार्य अधिकार प्रदान नहीं करते हैं।



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