Parenting Puzzle: आखिर बच्‍चों को क्‍यों समझ नहीं आतीं अपने पापा की बातें?


ई दिल्‍ली. आजकल माता-पिता के लिए बच्‍चों की परवरिश किसी पहेली से कम नहीं रह गई है. बच्‍चों की परिवरशि से जुड़ी तमाम पहेलियों में एक पहली है पिता और बच्‍चों के बीच वैचारिक विरोधाभाष और समझ में अंतर की. मसलन, आपने भी यह कभी न कभी महसूस किया होगा कि बच्‍चे अपने पिता की बातों को न ही आसानी से समझ पाते हैं और न ही स्‍वीकार कर पाते हैं.

बात पढ़ाई की हो, तब भी पिता अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी बच्‍चों को पाठ समझाने में लगभग असफल ही रहते हैं. इसी के उलट, वही बात बच्‍चों की मां उसे न केवल बेहद आसानी से समझा देती हैं, बल्कि बच्‍चे उस बात को बहुत आसानी से स्‍वीकार भी कर लेते हैं. क्‍या बच्‍चों का यह व्‍यवहार सामान्‍य है या इसके पीछे कोई वजह भी है?

आइए, इंद्रप्रस्‍थ अपोलो हॉस्पिटल के वरिष्‍ठ मनोचिकित्‍सक डॉ. शैलेष झा से समझें, आखिर क्‍या है माता-पिता और बच्‍चों के बीच की यह अनोखी पहेली….

माता-पिता का व्‍यावहारिक लचीलापन
 डॉ. शैलेष झा के बताते हैं कि पिता और बच्‍चों के बीच उलझती पहेली की एक वजह पैरेंटल रिजिलिएंस भी है. पैरेंटल रिजिलिएंस यानी माता-पिता का व्‍यावहारिक लचीलापान. माता-पिता के व्‍यवहार जितना सख्‍त और आदेशात्‍मक होगा, बच्‍चे बातों को उतनी ही देर से समझेंगे. ज्‍यादातरों घरों में देखा जाता है कि मां का व्‍यवहार बच्‍चों के प्रति पिता के अपेक्षाकृत लचीला होता है. वह लगभग रोजाना बच्‍चों की दिनचर्या को बेहद रुचि लेकर सुनतीं है और उनकी भावनाओं को समझती हैं. मां का यही सकारात्‍मक नजर‍िया बच्‍चों को उनसे जोड़ता है. बच्‍चे खुलकर अपनी बातें मां से कह पाते हैं और उनकी बातों को आसानी से समझ कर स्‍वीकार कर पाते हैं.
बच्‍चों के साथ द्विपक्षीय संवाद की कमी
 बच्‍चों के साथ ज्‍यादातर पिताओं का संवाद एक पक्षीय ही होता है. वह बच्‍चों की काबलियत पर गौर किए बगैर एक हुक्‍म देते हैं और निश्चित समय पर उस पर अमल भी चाहते हैं. हालांकि यह बात दीगर है कि समय पर वह काम हुआ कि नहीं वह खुद भूल जाते हैं. इसके अलावा, यदि याद भी रहा और काम पूरा हो गया तो बच्‍चों की हौसलाअफजाई नहीं करते. काम पूरा नहीं हुआ तो तो वह बच्‍चे से यह जानने की कोशिश भी नहीं करते कि किन वजहों से काम पूरा नहीं हुआ है. इसीलिए कहा जाता है कि पिता का बच्‍चों के प्रति नजरिया टाइम बाउंड रिजल्‍ट का होता है. पिता का यही रुख बच्‍चों को उनसे वैचारिक रूप से दूर करता जाता है.
पिता का परिणाम आधारित नजरिया
 यह बात फैक्‍ट है कि पिता टाइम बाउंड और इफीसिएंसी ओरिएंटेड स्किल्‍स को सिखाने से ज्‍यादा बच्‍चों पर इंपोज करना शुरू करना शुरू कर देते हैं. वह इबिलिटी सेंट्रिक न होकर हम आउट कम पर ज्‍यादा फोकस करने लग जाते हैं. वह बच्‍चों में उनकी एबिलिटी को नजरअंदाज कर दूसरे बच्‍चों के साथ तुलना और सामाजिक तुलना करने लग जाते हैं. मौजूद दौर में देखें तो हर घर में इसकी एक होड सी मजी हुई है. इतना ही नहीं, ज्‍यादातर घरों में पिता बच्‍चों को अपना बैकग्राउंड थॉट बताए बिना अपनी अपेक्षाएं उन पर थोपना शुरू कर हैं. नतीजनत, बच्‍चे अपने गोल को लेकर अपने टारगेट को लेकर कंफ्यूज हो जाते हैं और वह उस विषय पर बात करने से कतारने लगते हैं.
बच्‍चों को लेकर माता-पिता की गलतफहमी
 ज्‍यादातर पिताओं की अपनी यह समझ है कि उनके बच्‍चे अभी बहुत छोटे हैं, लिहाजा वह अभी उनकी बात समझेंगे नहीं. नतीजतन, वह अपने बच्‍चों से सीधा यह कहते हैं कि तुमको यह काम करना है या तुमको यह काम नहीं करना है. वह इस समझाने की जहमत नहीं उठाते हैं कि उन्‍हें कोई बात क्‍यों करनी चाहिए और क्‍यों नहीं करनी चाहिए. यहां पिता की यह सोच पूरी तरह से गलत है कि बच्‍चों को समझ में नहीं आता है. वर्तमान समय में बच्‍चों को उम्र के साथ काफी एक्‍सपोजर मिल रहा है. उसके अनरूप कोशिश की जाए तो वह उनकी बात को काफी बेहतर तरीके से समझा सकते हैं और बच्‍चों को उनकी बात समझ भी आएगी.
बच्‍चों के मानसिक बदलाव की अनभिज्ञता
 अक्‍सर हम करते हैं कि पता ही चला बच्‍चे कब बड़े हो गए. दरअसल, जिंदगी की भागमभाग और खुद की अपेक्षाओं के चक्‍कर में पिता बच्‍चों में हो रहे बदवाल को मिस कर जाते हैं. जरूरी है कि माता-पिता को बच्‍चे के हर स्‍टैज के डेवलपमेंट के बारे में नॉलेज होनी चाहिए. बच्‍चों को किस समय पर किस तरह के इमोशनल और सोशल सपोर्ट की जरूरत हो, इसका अहसास पिता को खासतौर पर होना चाहिए. हर विषय पर फ्री कम्‍यूनिकेशन का पैटर्न बने, जिससे वह चीज पिता अपनी बात बच्‍चों तक पहुंचा सकें और बच्‍चे उस विषय पर अपना फीडबैक दे सके. बच्‍चों के साथ बहुत आगे का प्‍लान न करें. छोटी छोटी चीजें बच्‍चों के सामान्‍यजस्‍य के साथ आगे बढ़े. हर दिन को एक नई चुनौती के तौर पर देखें.

क्‍यों, पापा के बस में नहीं बच्‍चों को पढ़ाना
डॉ. शैलेष झा के अनुसार, लगभग सभी घरों बच्‍चों के साथ परिवार के अन्‍य सदस्‍यों की भूमिका को लेकर एक आपसी समझ होती है. ज्‍यादातर घरों में बच्‍चों के देखभाल और पढ़ाई की जिम्‍मेदारी मां के पास ही होती है. लिहाजा, पिता बच्‍चों के साथ सामान्‍य संवाद तो करते हैं, लेकिन जिन मसलों का मां का मलतब है, उन पर बात करने से या तो बचते है या फिर फौरीतौर पर बात करते हैं. उदाहरण के तौर पर पढ़ाई को ही ले लें. अक्‍सर हम देखते हैं कि पिता को जब वक्‍त मिलता है वह बच्‍चों को बढ़ाने की कोशिश करते हैं, यह सब बच्‍चे के लिए एक्‍सेप्टिंग नहीं होता है, जिसकी वजह से बच्‍चों को छोटी से छोटी बात समझ में नहीं आती है.

इसके अलावा, बच्‍चों को पढाते वक्‍त ज्‍यादार पिता अपनी काबिलियत प्रोजेक्‍ट करने लग जाते हैं. उनकी कोशिश होती है कि आज मैं कुछ पढ़ा रहा हूं तो कुछ अच्‍छा, कुछ नया और कुछ ज्‍यादा करके दिखाऊंगा. यह बच्‍चे के लिए बहुत वेलकमिंग स्‍टैप नहीं होता है. बच्‍चों को पढ़ाने समय हमें इस बात का ध्‍यान रखना होगा कि हमारा तरीका उनको पसंद आ रहा है या नहीं. हमें यह ओपन नेस रखनी होगी कि हमारा कौन सा तरीका बच्‍चे के लिए एक्‍सेप्टिंग है और कौन नहीं. बच्‍चों के लिए कोई भी तरीका बहुत इंपोजिंग और बहुत फोर्सेबल नहीं होना चाहिए. हमें खुद से रेगुलर फीडबैक लेना चाहिए कि जैसा हम कर रहे हैं क्‍या वह बच्‍चों के लिए ठीक है.

कैसे सुलझेगी पिता के साथ बच्‍चों की यह पहेली
डॉ. शैलेष झा के अनुसार, पिता और बच्‍चों के बीच समय के साथ उलझती जाती इस पहली को सुलझाना इतना भी मुश्किल नहीं हैं. यदि पिता खासतौर पर हम अपने व्‍यवहार में निम्‍नलिखित कुछ बातों का ध्‍यान रखें तो इस पहले को आसानी से सुलझाया जा सकता है.

बच्‍चों की जरूरतों का रखें ध्‍यान

पिता को खासतौर पर इसका अहसास होना चाहिए कि बच्‍चों को किस समय पर किस तरह के इमोशनल और सोशल सपोर्ट की जरूरत है. समय पर इमोशनल और सोशल सपोर्ट देकर बच्‍चों में मस्तिष्‍क में बन रही वैचारिक ग्रंथियों को दूर किया जा सकता है.

बच्‍चों से लगातार होता रहे संवाद

इसमें कोई दोराय नहीं है कि बच्‍चों के बेहतर भविष्‍य के लिए पिता का अनुशासन जरूरी है, लेकिन यह ध्‍यान रहे कि अनुशासन बच्‍चे के मन में इतना भय पैदा कर दे कि वह अपनी बात कहने से भी डरने लगे. लिहाजा, हर विषय पर आप बच्‍चों से उनकी राय जरूर पूछें.

बच्‍चों को लगातार करते रहें प्रोत्‍साहित

प्रोत्‍साहन न केवल आपकी कार्य क्षमता को बढ़ाता है बल्कि एक मानसिक जुड़ाव भी पैदा करता है. लिहाजा, पिता अपने बच्‍चों की समय समय पर प्रोत्‍साहित करते रहे. यह प्रोत्‍साहन बच्‍चों के मन से पिता को लेकर पैदा होती झिझक को दूर करने में मददगार शाबित होगी.

क्षमता के अनुरूप हों हमारी अपेक्षाएं

ज्‍यादातर पिता इबिलिटी सेंट्रिक न होकर हम आउट कम पर ज्‍यादा फोकस करने लग जाते हैं. लिहाजा, टॉस्‍क देने से पहले पिता बच्‍चे की वास्तविक क्षमता का आंकलन जरूर कर लें.

खुद से लें अपने व्‍यवहार का फीडबैक

समय समय पर माता-पिता अपनी और अपने बच्‍चों की निष्‍पक्ष समीक्षा जरूर करें. माता-पिता को यह अहसास होना चाहिए कि बच्‍चों को उनकी कब और कहां जरूरत थी और उस जरूरत में वह किस तरह मददगार साबित हुए.

Tags: Health News, Mental health, Parenting tips, Sehat ki baat

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