राजद्रोह कानून: 12 साल, 867 केस और 13 हजार आरोपी, लेकिन जुर्म साबित हुआ सिर्फ 13 का, जानें क्यों रद्द होने की तरफ है धारा 124ए


सार

2010 से लेकर 2021 तक के डेटा को देखा जाए तो सामने आता है कि राजद्रोह का सबसे ज्यादा इस्तेमाल जिन पांच राज्यों में किया गया, उनमें दो में भाजपा के मुख्यमंत्री तो दो में एनडीए की सहयोगी पार्टियों के सीएम रहे। 

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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह राजद्रोह कानून की समीक्षा के लिए तैयार है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र के इस रुख के बाद कहा है कि जब तक सरकार राजद्रोह कानून के भविष्य पर फैसला नहीं करती, तब तक इसे रद्द किया जाएगा और इसके आरोपी भी जमानत याचिका दायर कर सकते हैं। कोर्ट और केंद्र की तरफ से राजद्रोह कानून पर इस तेज-तर्रार रवैये को लेकर अब इसके औचित्य पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। दरअसल, कोर्ट कई मौकों पर इस कानून की संवैधानिक वैधता पर ही सवाल उठा चुका है, साथ ही इसके गलत इस्तेमाल की बात भी कह चुका है।
ऐसे में अमर उजाला आपको बताएगा कि आखिर राजद्रोह कानून के औचित्य पर सवाल उठ क्यों रहे हैं और आखिर कैसे पिछले 12 साल में राजद्रोह के मामले में जबरदस्त उछाल आया। खासकर मोदी सरकार के राज में कैसे यह मामले तेजी से बढ़े। इसके अलावा एनसीआरबी ने जबसे इससे जुड़ा डेटा प्रकाशित करना शुरू किया, तब से इन आंकड़ों के बीच में कितना फर्क देखने को मिला है?
राजद्रोह कानून पर 2010 से 2021 तक का डेटा रखने वाली वेबसाइट आर्टिकल 14 के मुताबिक, इस पूरे दौर में देश में राजद्रोह के 867 केस दर्ज हुए। वेबसाइट ने जिला कोर्ट, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, पुलिस स्टेशन, एनसीआरबी रिपोर्ट और अन्य माध्यमों के जरिए बताया है कि इन केसों में 13 हजार 306 लोगों को आरोपी बनाया गया। हालांकि, जितने भी लोगों पर केस दर्ज हुआ था, डेटाबेस में उनमें सिर्फ तीन हजार लोगों की ही पहचान हो पाई। 
रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से 2021 तक 595 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। यानी 2010 से दर्ज हुए कुल मामलों में से 69 फीसदी एनडीए सरकार में ही दर्ज हुए। अगर इन मामलों का कुल औसत निकाला जाए तो जहां 2010 के बाद से यूपीए सरकार में हर साल औसतन 68 केस दर्ज हुए, तो वहीं एनडीए सरकार में हर साल औसतन 74.4 मामले दर्ज हुए। 
पहली बार नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने राजद्रोह से जुड़े केसों का डेटा 2014 से ही जुटाना शुरू किया था। हालांकि, एनसीआरबी के आंकड़ों की मानें तो 2014 से 2020 (2021 के आंकड़े उपलब्ध नहीं) के बीच राजद्रोह के 399 मामले ही दर्ज हुए हैं। आर्टिकल 14 ने इस दौरान (2014-20 के बीच) ही राजद्रोह के 557 मामले दिखाए हैं। 
आर्टिकल 14 ने अपने रिकॉर्ड्स में यह साफ किया है कि एनसीआरबी का डेटा राजद्रोह के सभी मामलों को पूरी तरह कवर नहीं करता। इसकी वजह यह है कि ऐसे मामले, जिनमें कई और धाराओं का इस्तेमाल किया जाता है। एनसीआरबी ऐसे मामलों में सिर्फ उन धाराओं को गिनता है, जिनका परिमाण ज्यादा होता है।
राजद्रोह के इन 867 केसों में महज 13 लोगों को ही दोषी पाया गया। यानी इनमें जो 13,000 आरोपी बनाए गए, उनमें से सिर्फ 0.1 फीसदी ही राजद्रोह का दोषी पाया गया। हालांकि, इन मामलों में फंसे लोगों को किस तरह की परेशानी से गुजरना पड़ा, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक आरोपी को जमानत मिलने तक औसतन 50 दिन जेल में बिताने पड़े। वहीं, अगर जमानत के लिए किसी को हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा तो उसे राहत मिलने में औसतन 200 दिन लगे।
2010 से लेकर 2021 तक के डेटा को देखा जाए तो सामने आता है कि राजद्रोह का सबसे ज्यादा इस्तेमाल जिन पांच राज्यों में किया गया, उनमें दो में भाजपा के मुख्यमंत्री तो दो में एनडीए की सहयोगी पार्टियों के सीएम रहे। वहीं एक में विपक्षी पार्टी के सीएम थे। जहां बिहार में 2010 के बाद कुल 171 ऐसे केस दर्ज हुए, तो वहीं दूसरे नंबर पर तमिलनाडु रहा। इसके बाद उत्तर प्रदेश, झारखंड और कर्नाटक रहे। 

आरोपियों के लिहाज से बात करें तो राजद्रोह के मामलों के सबसे ज्यादा 4641 आरोपी झारखंड में बनाए गए। वहीं, तमिलनाडु में 3601, बिहार में 1608, उत्तर प्रदेश में 1383 और हरियाणा में 509 राजद्रोह के आरोपी बनाए गए। 
जिन लोगों पर राजद्रोह के सबसे ज्यादा केस लगाए गए, उनमें सामाजिक कार्यकर्ता और समूह सबसे ज्यादा निशाने पर रहे। इन पर 99 केस दर्ज हुए और कुल 492 आरोपी बनाए गए। वहीं अकादमिक और छात्र वर्ग के खिलाफ राजद्रोह की धारा में 69 केस दर्ज हुए और 144 आरोपी बनाए गए। राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर 66 केस दर्ज हुए और 117 आरोपी बनाए गए। दूसरी तरफ आम कर्मचारियों और व्यापारियों के खिलाफ 30 मामले दर्ज हुए, जबकि 55 आरोपी बनाए गए। पत्रकारों के खिलाफ 21 केस बनाए गए और 40 आरोपियों पर कार्रवाई की गई।

विस्तार

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह राजद्रोह कानून की समीक्षा के लिए तैयार है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र के इस रुख के बाद कहा है कि जब तक सरकार राजद्रोह कानून के भविष्य पर फैसला नहीं करती, तब तक इसे रद्द किया जाएगा और इसके आरोपी भी जमानत याचिका दायर कर सकते हैं। कोर्ट और केंद्र की तरफ से राजद्रोह कानून पर इस तेज-तर्रार रवैये को लेकर अब इसके औचित्य पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। दरअसल, कोर्ट कई मौकों पर इस कानून की संवैधानिक वैधता पर ही सवाल उठा चुका है, साथ ही इसके गलत इस्तेमाल की बात भी कह चुका है।



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