किस्सा: आजादी के बाद 15 साल तक गुलाम क्यों रहा गोवा, भारतीयों की एंट्री पर क्यों था प्रतिबंध, जानें सबकुछ


न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र
Updated Tue, 08 Feb 2022 05:05 PM IST

सार

अमर उजाला आपको बता रहा है कि गोवा की आजादी की लड़ाई में आखिर देश की पहली सरकार का क्या योगदान रहा था और आखिर क्यों गोवा की आजादी में 15 साल का लंबा समय लग गया। 

पीएम नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में दिए भाषण में गोवा की स्वतंत्रता में हुई देरी को लेकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु पर निशाना साधा।

पीएम नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में दिए भाषण में गोवा की स्वतंत्रता में हुई देरी को लेकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु पर निशाना साधा।
– फोटो : Social Media

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विस्तार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान कांग्रेस को जमकर घेरा। गोवा विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पीएम ने यहां गोवा की आजादी तक के मसले को उठाया और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पर निशाना साधा। मोदी ने इस दौरान नेहरु के लाल किले से दिए उस भाषण का भी जिक्र किया, जिसमें पूर्व पीएम ने गोवा में सेना नहीं भेजने के बात कही थी।

अमर उजाला आपको बता रहा है कि गोवा की आजादी की लड़ाई में आखिर देश की पहली सरकार का क्या योगदान रहा था और आखिर क्यों गोवा की आजादी में 15 साल का लंबा समय लग गया। 

भारत की आजादी के वक्त क्यों नहीं स्वतंत्र हुआ गोवा?

अरब सागर से लगे होने के कारण प्राचीनकाल से ही गोवा व्यापार और सैन्य अभियानों का केंद्र रहा था। जहां पूरे भारत में 19वीं सदी से ही अंग्रेजों ने शासन शुरू कर दिया था, वहीं गोवा पर पुर्तगालियों का कब्जा बरकरार रहा। पुर्तगाली शासकों ने 450 साल तक गोवा पर शासन किया। इस दौरान गोवा में पुर्तगाली शासन के खिलाफ कुछ क्रांतियां भी हुईं। 18वीं और 19वीं सदी में स्वतंत्रता के लिए कई चेहरे सामने आए। लेकिन गोवा में पूर्ण स्वराज की मांग पहली बार 18 जून 1946 को उठी, जब समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गोवा के युवाओं के साथ खुद को आजादी के अभियान में झोंक दिया था। इसी लिए हर साल 18 जून को गोवा क्रांति दिवस मनाया जाता है। 

हालांकि, जहां भारत को 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से आजादी मिल गई थी, वहीं गोवा जिस पर पुर्तगालियों का राज था, आजाद नहीं हो पाया। माना जाता है कि कांग्रेस के तत्कालीन नेता जवाहर लाल नेहरु पहले भारत को अंग्रेजों के शासन से आजाद कराना चाहते थे। इस लिए उन्होंने गोवा को पुर्तगालियों के लिए ही छोड़ दिया था। 1946 में दिए गए अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था, “गोवा भारत के खूबसूरत चेहरे पर एक छोटा सा मुहांसा है और भारत की आजादी के बाद इसके फूटने यानी आजादी में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

आजादी के बाद क्या रहा गोवा को लेकर नेहरु का पक्ष?

15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी के बाद भी गोवा पर पुर्तगालियों की पकड़ बनी रही। हालांकि, अपने आजादी के संदेश में पंडित नेहरु ने साफ किया था कि गोवा भले ही अभी स्वतंत्र होकर भारत में न मिल पाया हो, लेकिन यह भारत का हिस्सा है और अंततः भारत में ही शामिल होगा। कांग्रेस के दिसंबर 1948 में पास किए गए प्रस्ताव में भी गोवा की स्वतंत्रता और इसके भारत में शामिल होने का समर्थन किया गया। 

अपनी छवि बचाने के लिए नहीं किया गोवा पर हमला?

इस बीच अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने गोवा की स्वतंत्रता की मांग उठानी शुरू कर दी। कई नेता इस दौरान सत्याग्रह आंदोलन के लिए गोवा भी पहुंचे। हालांकि, पंडित जवाहरलाल नेहरु हमेशा से ही गोवा की आजादी अहिंसा और शांतिपूर्ण तरीके से चाहते थे। नेहरु ने हमेशा से भारत की विदेश नीति को पांच सिद्धांतों पर आधारित रखा था। यह सिद्धांत थे दूसरों के मामलों में दखल न देना, किसी के खिलाफ हिंसा न अपनाना, देशों की अखंडता और स्वायत्ता का समर्थन और सहयोग से साथ में रहने का सम्मान। वी गाडगिल समेत कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना था कि अगर नेहरु उस दौरान किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई से इसीलिए बच रहे थे, क्योंकि इससे दुनिया के राजनीतिक पटल पर वे खुद की शांति लाने वाले नेता की छवि गंवा देंगे। 

नेहरु ने इसके लिए भारत की आजादी के ढाई साल बाद यानी 27 फरवरी 1950 को गोवा के पुर्तगाली शासन से राजनयिक स्तर पर बात शुरू की। इसके लिए पुर्तगाली राजदूत को बॉम्बे और भारतीय राजदूत को पणजी में नियुक्त किया गया था। हालांकि, नेहरू ने 14 अगस्त को एलान किया था कि उनके सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के प्रस्ताव को पुर्तगालियों ने नकार दिया। 6 दिसंबर को नेहरु ने कहा कि वे लगातार इतने सालों से पुर्तगाली शासन के सामने शांतिपूर्ण तरीके से बात कर रहे थे, लेकिन इसका कोई नतीजा सामने नहीं आया। 

पुर्तगालियों का तर्क था कि गोवा उनका विदेशी प्रांत है और गोवा की संस्कृति ऐतिहासिक रूप से पुर्तगाली ही है। इस दौरान प्रधानमंत्री नेहरु लगातार गोवा के शासकों को शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता सौंपने की मांग करते रहे, लेकिन पुर्तगालियों ने उनकी सभी मांगे नकार दीं। 12 अप्रैल 1954 को पुर्तगाली तानाशाह सालाजार ने रेडियो ब्रॉडकास्टर को दिए इंटरव्यू में कहा था- “गोवा को हम यूं ही नहीं जाने दे सकते। यह कोई बेचने या ऐसे ही छोड़ देने वाली जगह नहीं है।”

जब नेहरु ने भारतीयों को दी थी गोवा में न घुसने की सलाह

पुर्तगाली शासकों के गोवा न छोड़ने के चलते 1954-55 के दौर में राज्य में सत्याग्रह शुरू हो गए। इनका नेतृत्व गोवा विमोचक सहायक समिति ने किया। हालांकि, इन सत्याग्रहों की बढ़ती उग्रता को देखते हुए प्रधानमंत्री नेहरु की सरकार को लगा कि पुर्तगाली शासक कहीं अहिंसक आंदोलनकारियों पर गोलीबारी या हिंसक कार्रवाई न कर दें। इसके चलते उन्होंने भारत के ही एक हिस्से में भारतीयों को न जाने की सलाह दे दी थी। हालांकि, भारतीय आंदोलनकारियों ने उनकी इस मांग को अनसुना कर दिया था। पुर्तगाली शासन भी गोवा को बचाने के लिए हिंसा पर उतर आया था और प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी तक की गई। राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में 15 अगस्त 1955 को हुए ऐसे ही एक आंदोलन के दौरान पुर्तगालियों की फायरिंग में 22 गोवावासियों की मौत हुई थी, जबकि 225 घायल भी हुए थे। 

गोवा पर सैन्य हमले को लेकर क्या था नेहरु का डर?

पुर्तगाल 1949 में गठित हुए नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन यानी नाटो का सदस्य भी रहा है। नाटो का सिद्धांत है कि अगर उसके किसी सदस्य देश पर हमला होता है तो यह हमला सभी नाटो सदस्यों पर माना जाएगा। 

इसी के चलते तत्कालीन कांग्रेस सरकार को डर था कि अगर वे गोवा को सैन्य हमले के जरिए लेने की कोशिश करते हैं, तो नाटो गठबंधन के बाकी देश भारत के खिलाफ कार्रवाई के लिए उतर सकते हैं। 

जब नेहरु बोले- जबरदस्ती गोवा को भारत में शामिल कराने की कोशिश नहीं होगी

पुर्तगाली शासन के अड़ियल रवैये के बावजूद भारत के तत्कालीन पीएम ने नेहरु ने शांतिपूर्ण ढंग से गोवा को शामिल कराने की कोशिश नहीं छोड़ी। हालांकि, उन्होंने गोवा मुद्दे पर बॉम्बे में दो अक्तूबर 1955 और चार जून 1956 को दो बड़ी रैलियां कीं। इन दोनों में ही उन्होंने साफ कर दिया था कि भारत जबरदस्ती गोवा को मिलाने की कोशिश नहीं करेगा। 15 अगस्त 1955 को स्वतंत्रता दिवस पर भी लाल किले की प्राचीर से दिए भाषण में नेहरु ने कहा था कि वे गोवा में सत्याग्रहियों की मदद के लिए कोई सेना नहीं भेजेंगे।

गोवा को भारत में शामिल कराने के लिए कब आया सैन्य कार्रवाई का ख्याल?

1957 में पहली बार प्रधानमंत्री नेहरू ने गोवा को भारत में शामिल कराने के लिए सैन्य कार्रवाई पर गंभीर विचार किया। तब विनोबा भावे को लिखे एक खत में नेहरु ने सैन्य कार्रवाई का इशारा किया था। लेकिन पुर्तगालियों की गोवा के नागरिकों के प्रति बनाई गईं नीतियों के कारण उन्होंने फिर से इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया। 

गोवा की आजादी की अलख फिर कैसे जगी?

1960 में एक बार फिर भारत के सामने गोवा का सवाल एक बार फिर तब मुंह बाए खड़ा हो गया, जब पुर्तगाल ने संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसमें उससे एशिया और अफ्रीका में अपने साम्राज्यों को आजाद करने के बारे में पूछा गया था। मार्च 1961 में नेहरु ने दिल्ली में रखे गए एक कार्यक्रम में गोवा के नेताओं के साथ मुलाकात की। बताया जाता है कि यहीं से गोवा को आजाद कराने के लिए सैन्य अभियान शुरू करने की योजना बनी। 

अक्तूबर 1961 में पुर्तगाल के साम्राज्य वाले शासनों के एक सेमिनार में अफ्रीकी नेताओं ने नेहरु से मांग की थी कि वे आजादी के लिए उन्हें रास्ता दिखाएं, ताकि आगे उनकी स्वतंत्रता भी सुनिश्चित हो। इसके कुछ महीनों बाद ही नेहरु ने बॉम्बे चौपाटी में रैली की। यहां पहली बार नेहरु ने सार्वजनिक मंच से गोवा को आजाद कराने के लिए ‘दूसरे तरीकों’ के इस्तेमाल की बात की। 

कैसे आजाद हुआ गोवा, कैसे की सेनाओं ने तैयारी?

1. पहला कदम- नौसेना ने शुरू किया ‘ऑपरेशन चटनी’

नेहरु सरकार ने सैन्य कार्रवाई के जरिए गोवा को पुर्तगाल के कब्जे से छुड़ाने के लिए ऑपरेशन विजय की योजना तैयार की। हालांकि, इससे पहले एक दिसंबर 1961 को ऑपरेशन चटनी शुरू हुआ। भारतीय नौसेना ने दुश्मन की हरकतों पर नजर रखने के लिए ये अभियान शुरू किया था। अरब सागर में अंजद्वीप को कब्जे में लेने के लिए अगले ही दिन फौज ने अपना ग्राउंड असॉल्ट प्लान तैयार कर लिया। 

इसके तहत भारतीय नौसेना के जहाजों- राजपूत और कृपाण को कारोबारी जहाजों को सुरक्षा देने के लिए तैनात किया गया। नौसेना के जहाजों आईएनएस बेतवा और ब्यास को निगरानी के लिए लगाया गया। उधर, आईएनएस मैसूर और त्रिशूल जमीनी ऑपरेशन के लिए तैयार थे। भारतीय सेना की जबरदस्त तैयारी के बीच अंजद्वीप ने हार मान ली। एक टुकड़ी द्वीप में दाखिल हुई और दोनों ओर से गोलियां भी चलीं। आईएनएस त्रिशूल और मैसूर की फायरिंग से पुर्तगालियों की हालत बिगड़ गई। 18 दिसंबर 1961 को दोपहर 2.25 बजे इस द्वीप में तिरंगा लहराया गया और ऑपरेशन चटनी सफल रहा।

2. दूसरा कदम- तीनों सेनाओं का साझा ऑपरेशन- ‘ऑपरेशन विजय’

आठ दिसंबर 1961 को भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान और बॉम्बर्स गोवा के आसमान में उड़ान भरने लगे। 11 दिसंबर को पूरी तैयारी के साथ भारतीय सेना की टुकड़ियां बेलगाम पहुंचीं। 17 दिसंबर को भारत ने 30 हजार सैनिकों को ऑपरेशन विजय के तहत गोवा भेजने का फैसला किया। इसमें थलसेना, नौसेना और वायुसेना शामिल थीं। इसी दिन एक छोटे से संघर्ष के बाद बॉर्डर पर बिचोलिम में मॉलिनगुएम शहर पर कब्जा कर लिया गया।

18 दिसंबर के दिन तीनों सेनाओं ने एक साथ हमला कर दिया। ऑपरेशन विजय में बेतवा, कावेरी समेत 3 भारतीय युद्धपोतों ने पुर्तगाल के युद्धपोत अल्फांसो डी अल्बुकर्क पर ताबड़तोड़ हमले किए। पूरे ऑपरेशन में भारत की तरफ से 34 जानें गईं और 51 लोग घायल हुए। पुर्तगाल की तरफ 31 जानें गईं और 57 लोग घायल हुए और 4,669 कैदियों ने सरेंडर कर दिया। आखिरकार पुर्तगाली शासकों ने गोवा को छोड़ने का फैसला कर लिया। 



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