इतिहास से सबक लें नेता, मुफ्त बिजली की रेवड़ी बांटकर गुजरात में वोटों की फसल नहीं उगाई जा सकती!


दो दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के एक ट्वीट पर निगाह गई. ट्वीट के जरिये गुजरात की जनता को आम आदमी पार्टी की तरफ से गारंटी दी गई कि गुजरात में सरकार बनते ही हर परिवार को 300 यूनिट बिजली हर महीने मुफ्त में दी जाएगी. यही नहीं सभी गांवों और शहरों को 24 घंटे बिजली देने की बात की गई और 31 दिसंबर 2021 तक के पुराने बिलों को माफ करने का वादा भी.

केजरीवाल फेंक रहे हैं गुजरात में मुफ्त बिजली का दांव

केजरीवाल को बीस मिनट बाद ये समझ में आया कि गुजरात में बिजली का बिल हर महीने नहीं आता, बल्कि हर दो महीने पर आता है. ऐसे में दूसरे ट्वीट के जरिये ये बताया गया कि हर दो महीने पर आने वाले बिल में छह सौ यूनिट बिजली फ्री में दी जाएगी. जनता को चुनावी सीजन में इस तरह की रेवड़ी बांटकर मुफ्तखोरी की आदत डालने पर श्रीलंका जैसे हालात तो नहीं बन जाएंगे, ये सवाल उठने के पहले ही केजरीवाल ने एक और ट्वीट के जरिये सफाई भी दे डाली कि जनता को फ्री रेवड़ी ‘भगवान का प्रसाद’ है.

गुजरात में नहीं कामयाब रही है रेवड़ी बांटो राजनीति

केजरीवाल के इस तर्क का जवाब तो अर्थशास्त्री ही दे सकते हैं, जिनमें से कई ने हाल ही में कहा था कि श्रीलंका के बिगड़े हालात के लिए रेवड़ी बांटने की संस्कृति ही जवाबदार है. देश में भी कई राज्यों की वित्तीय बदहाली में भी इस तरह की रेवड़ी बांटो संस्कृति का बड़ा हाथ रहा है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या गुजरात की जनता को इस तरह की रेवड़ी बांटो संस्कृति से कोई प्यार है या नहीं. उनके लिए मुफ्तखोरी अहम है या फिर ऐसा प्रशासन, जो राज्य को आर्थिक विकास की राह पर लेकर जाए, जहां राज्य के उद्‌यमी प्रकृति के लोग खुद धन का सृजन कर समाज के उत्थान में योगदान दे सकें. उत्तर भारत के राजनेताओं को इस बात का अंदाजा कम ही होगा कि गुजरात में सैकड़ों ऐसे उद्यमी हैं, जिन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई के करोड़ों-अरबों रुपये अपने गांव के उत्थान में लगाए हैं, दूसरों का माल हड़पने की कोशिश नहीं की है.

पहले भी विपक्ष ने किये लोकलुभावने वादे

गुजरात की राजनीति को दो दशक से भी अधिक समय से नजदीक से देखने के कारण इस तरह के चुनावी वायदों और रेवड़ी बांटने की जुगाली करने में नया कुछ भी नहीं दिखता. पहले भी कई नेताओं और पार्टियों ने एक से बढ़कर एक वायदे किये, लेकिन गुजरात की जनता ने उन वादों पर भरोसा नहीं किया, बल्कि उनके सर पर मोदी का जादू ही चढ़कर बोलता रहा, जो रेवड़ी बांटने की जगह मजबूत और स्वस्थ शासन का संकल्प लोगों के सामने करते रहे और लोगों ने मोदी की झोली में वोट डालकर उन पर अपना भरोसा जताया.

केशुभाई पटेल ने भी किया था मुफ्त बिजली का वादा

ऐसा नहीं है कि गुजरात के लोगों को मुफ्त बिजली देने का वादा किसी विपक्षी पार्टी या नेता ने पहली बार किया है. 2012 विधानसभा चुनावों के पहले बीजेपी से इस्तीफा देकर नई पार्टी के तौर पर गुजरात परिवर्तन पार्टी खड़ी करके केशुभाई पटेल ने तब गुजरात के सीएम रहे नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की कोशिश की थी. ध्यान रहे कि केशुभाई पटेल 1995 में बनी बीजेपी की पहली सरकार के मुख्यमंत्री थे और 1998 में भी पार्टी ने उन्हें दोबारा सीएम बनाया था. लेकिन 2001 के भूकंप के बाद असरदार डंग से काम नहीं करने के कारण जब केशुभाई पटेल को सीएम की कुर्सी से हटाकर मोदी को सीएम बना दिया गया, तो धीरे-धीरे पार्टी से दूरी बनाते गये केशुभाई ने 2012 के विधानसभा चुनावों के पहले पार्टी ही छोड़ दी.

नहीं मिली थी केशुभाई की पार्टी को कामयाबी

गुजरात परिवर्तन पार्टी के बैनर तले 2012 के चुनावों में केशुभाई पटेल ने 177 उम्मीदवार खड़े किये थे. ग्रामीण मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए केशुभाई ने गुजरात के गांवों में रहने वाले हर परिवार को मुफ्त बिजली देने का वादा किया था. 47 लाख किसानों को खेती के लिए मुफ्त बिजली देने का भी स्वप्न दिखाया गया था. लेकिन जब चुनाव परिणाम आए, तो पता चला कि गुजरात की जनता ने केशुभाई के वादों पर भरोसा नहीं किया. उनकी पार्टी को महज दो सीटें हासिल हुईं, जिनमें से एक उनकी अपनी सीट वीसावदर थी और दूसरी बगल की सीट धारी. जिस पटेल समुदाय से केशुभाई आते थे, उन पटेलों पर भी मुफ्त बिजली देने का राग बेअसर हुआ. केशुभाई के करीबी सहयोगी और पार्टी के महामंत्री गोरधन झड़फिया पटेल बहुल गोंडल की सीट से चुनाव हार गये. मुफ्त बिजली का वादा गुजरात परिवर्तन पार्टी के काम नहीं आया, आम आदमी पार्टी को दशक भर पहले का ये वाकया याद रखना होगा.

कांग्रेस के घर का वादा भी नहीं लुभा पाया मतदाताओं को

जहां तक चुनावी वादों का सवाल है, उस कड़ी में पिछले दो दशक में गुजरात में किसी राजनीतिक पार्टी ने सबसे बड़ा वादा वोटों की फसल को काटने के लिए किया हो, तो वो 2012 विधानसभा चुनावों के दौरान ही कांग्रेस का ‘घरनुं घर’ का वादा था. 1985 में आखिरी दफा चुनाव जीतकर अपनी सरकार बनाने वाली कांग्रेस ने जनता, खासकर आधी आबादी को ललचाने के लिए ये बड़ा दांव खेला था. वादा ये कि राज्य की आठ महानगरपालिकाओं और 156 नगरपालिकाओं में हर उस परिवार की महिला के नाम मकान का आवंटन किया जाएगा, जिनका अपना घर नहीं है. हर साल तीन लाख मकान तैयार कर देने की घोषणा भी की गई. कांग्रेस के दफ्तरों से फॉर्म भी बांटे गये, एक–दो दिनों तक फॉर्म लेने के लिए लाइनें भी लगीं.

महिला मतदाताओं ने किया ‘भाई’ मोदी पर भरोसालेकिन जब 2012 विधानसभा चुनावों के परिणाम आए, तो कांग्रेस के होश फाख्ता हो गये. गुजरात की मतदाता बहनों ने अपने भाई नरेंद्र मोदी की कलाई में वोट की राखी बांध दी, जो पिछले एक दशक से महिला मतदाताओं को अपनी बहन के तौर पर संबोधित करते हुए मुसीबत में उनकी सहायता के लिए हमेशा तैयार रहने का भरोसा देते आए थे. स्वाभाविक तौर पर गुजरात की महिलाओं ने मोदी पर भरोसा किया, न कि कांग्रेस के घर देने के वादे पर. गुजरात की जनता ने तीसरी दफा मोदी की अगुआई में चुनाव लड़ने वाली बीजेपी को अपना समर्थन दिया, 115 सीटें बीजेपी की झोली में डाल दी, महज 61 सीटें ही कांग्रेस के हाथ लगीं. गुजरात विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे शक्तिसिंह गोहिल खुद अपना चुनाव हार गये.

मोदी को रेवड़ी से ज्यादा सुशासन पर भरोसा

ऐसा नहीं था कि मोदी पर इन लोकलुभावने वादों से निबटने के लिए उतने ही बड़े वादे करने का दबाव नहीं था. पार्टी के अंदर कई बड़े नेता और हजारों कार्यकर्ता इस बात का दबाव बना रहे थे कि विपक्ष की काट के लिए बीजेपी को भी ऐसा बड़ा वादा करना चाहिए, रेवड़ी बांटनी चाहिए. लेकिन मोदी को वोट लेने के लिए मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देना पसंद नहीं था. मोदी ने तल्खी के साथ अपने साथियों को बता दिया कि अगर विपक्ष की तरह उन्हें भी ऐसे ही हथकंडे अपनाने पड़ें, तो फिर बीजेपी और अन्य पार्टियों में फर्क क्या रह जाएगा, उससे तो बेहतर है कि उनके जैसा आदमी सरकार में ही न रहे.

बिजली की चोरी रोकी मोदी ने, वोट की चिंता बगैर

मोदी इस तरह का दबाव 2007 के विधानसभा चुनावों में भी झेल चुके थे. 2003 से ज्योतिग्राम परियोजना पर काम करने वाले मोदी ने सुनिश्चित किया था कि गुजरात में चौबीस घंटे बिजली लोगों को उपलब्ध हो, लेकिन इसके साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाए कि बिजली की चोरी न हो. ग्रामीण इलाकों में खेती के लिए बिजली की चोरी आम बात थी. इसलिए मोदी ने न सिर्फ खेती और घरेलू इस्तेमाल वाली बिजली के मीटर अलग-अलग किये, बल्कि बिजली की चोरी रोकने के लिए विशेष पुलिस थाने बनवाए. राज्य परिवहन निगम की बसों पर ऐसे होर्डिंग लगाये गये, जिसमें बिजली चोरी करने पर हाथ में हथकड़ी लगाकर थाने में ले जाये गये व्यक्ति को चित्रित किया गया था. पार्टी के नेताओं को डर था कि इस तरह के होर्डिंग ग्रामीण मतदाताओं को नाराज कर सकते हैं, वोटों का नुकसान हो सकता है।

नर्मदा परियोजना का पानी मुफ्त बांटने को तैयार नहीं हुए मोदी

मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस न सिर्फ खेती वाली बिजली की दरें कम करने का वादा कर रही थी, बल्कि बिजली चोरी के केस भी वापस लेने का वादा कर रही थी. लेकिन मोदी तब भी डिगे नहीं. गुजरात के लोगों के स्वाभिमानी मिजाज पर उन्हें भरोसा था, जिन्हें मुफ्तखोरी पसंद नहीं, बल्कि वो सरकार से उम्मीद करते हैं कि वो शासन ऐसा चलाये कि वो खुद अपनी राह बना सकें. मोदी ने चौबीस घंटे बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित करके उनका भरोसा जीता, न कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर. मोदी ने ऐसी ही दृढ़ता तब भी दिखाई थी, जब विपक्षी दल सरदार सरोवर बांध परियोजना से हासिल होने वाले नर्मदा के पानी को मु्फ्त में देने का सब्जबाग दिखा रहे थे, लेकिन मोदी इसके लिए तैयार नहीं हुए. आखिर वो इस परियोजना को आर्थिक फटेहाली के रास्ते पर नहीं ले जा सकते थे.

‘न्याय’ का पासा भी नहीं चला मोदी के सामने

प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जब 2019 के चुनावों में जा रहे थे, उस समय कांग्रेस ने एक और बड़ा लोकलुभावना दांव फेंका था, ‘न्याय’ योजना को आगे रखकर. न्यूनतम आय योजना यानी न्याय को आगे रखकर कांग्रेस ने वादा किया कि देश के करीब बीस फीसदी गरीब परिवारों को हर साल 72000 रुपये दिये जाएंगे. उस समय ज्यादातर राजनीतिक पंडितों ने इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक माना था. लगा ये कि कांग्रेस बाजी पलट देगी. लेकिन जब चुनाव के नतीजे आए तो पता चला कि गांव के जिन गरीबों को उज्ज्वला जैसी योजना का फायदा मिला है, उन्होंने कांग्रेस की न्याय योजना पर भरोसा नहीं किया, बल्कि मोदी की झोली ही वोट से भर दी और ‘बेनेफिशियरी क्लास’ नामक नया वोट ब्लॉक तैयार कर दिया.

इतिहास से सबक नहीं लेते विपक्षी नेता

ये सारे किस्से यह बताने के लिए काफी हैं कि मोदी की काट के लिए इस तरह की रेवड़ी बांटो योजनाएं कभी कामयाब नहीं रही हैं. लोगों के लिए भ्रष्टाचार मुक्त शासन अहम है, जो कड़े और बड़े फैसले ले सके. ये बात देश की जनता ने भी साबित की है और गुजरात के लोगों ने भी. जाहिर है, जब 2022 के गुजरात विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरु हो गई है, विपक्ष को ये याद रखना होगा. मुफ्तखोरी की संस्कृति और रेवड़ी बांटने की प्रवृति से फायदा नहीं होने वाला है, सकारात्मक एजेंडे के साथ आगे बढ़ना होगा. केजरीवाल की दिक्कत ये है कि खुद उनकी अपनी सरकार के एक मंत्री भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खा रहे हैं और दूसरे पर गाज गिरने की आशंका उन्हें खुद सता रही है, ऐसे में भ्रष्टाचार मुक्त शासन का वादा भला वो किस मुंह से गुजरात के लोगों के आगे कर सकते हैं. ऐसे में उनको रेवड़ी बांटो संस्कृति का ही भरोसा रह गया है. 2017 के विधानसभा चुनावों या फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी पर निजी हमले कर उनकी दाल नहीं गली थी, ऐसे में मुफ्त बिजली के भरोसे ही वोटों की गोलबंदी के लिए बेचैन हैं केजरीवाल, ये बात अलग कि गुजरात में इस तरह के पैंतरे कभी कामयाब नहीं हुए हैं. बहुतों ने कोशिश पहले भी की, लेकिन मुंह की खाई. इतिहास की त्रासदी ये है कि इसे पढ़ते तो सब हैं, लेकिन उससे सबक नहीं सीखते.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

ब्लॉगर के बारे में

ब्रजेश कुमार सिंह

ब्रजेश कुमार सिंह

लेखक नेटवर्क18 समूह में मैनेजिंग एडिटर के तौर पर कार्यरत हैं. भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से 1995-96 में पत्रकारिता की ट्रेनिंग, बाद में मास कम्युनिकेशन में पीएचडी. अमर उजाला समूह, आजतक, स्टार न्यूज़, एबीपी न्यूज़ और ज़ी न्यूज़ में काम करने के बाद अप्रैल 2019 से नेटवर्क18 के साथ. इतिहास और राजनीति में गहरी रुचि रखने वाले पत्रकार, समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन, दो दशक तक देश-विदेश में रिपोर्टिंग का अनुभव.

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