BCCI अध्यक्ष सौरव गांगुली रणजी ट्रॉफी आयोजन के मुद्दे पर फिर से फ्लॉप क्यों दिखे?


नई दिल्ली. कहते हैं कि राजनीति में हर बयान की एक टाइमिंग और उसके मायने होते हैं. क्रिकेट की राजनीति में भी बयान की अहमियत कुछ वैसी होती है. अब देखिये ना जब रवि शास्त्री (Ravi Shastri) जैसे शख्स जो अक्सर सत्ता वंदना में लगे रहते हैं, वो भी अगर सार्वजनिक मंच पर ये कहने का दुस्साहस करें कि रणजी ट्रॉफी (Ranji Trophy) को अगर नजरअंदाज किया जाना अपनी क्रिकेट की रीढ़ की कमजोर करने के बराबर होगा. शास्त्री ने ये रीढ़ वाला शब्द शायद जान-बूझकर डाला ताकि बोर्ड अध्यक्ष सौरव गांगुली (Sourav Ganguly) को थोड़ी परेशानी हो. शास्त्री और गांगुली तो जिगरी दोस्त हैं नहीं, ये बात तो आप सभी को पता है और जब भी मौका मिलता है तो टीम इंडिया के पूर्व कोच दादा गांगुली पर प्रत्यक्ष तरीके से ना ही सही लेकिन परोक्ष तरीके से लपेटने का कोई मौका थोड़े छोड़ते हैं!

आपको याद है ना कि कैसे पिछले ही हफ्ते उन्होंने एक इटंरव्यू में कहा था कि कुछ लोग ऐसे हैं जो नहीं चाहते थे विराट कोहली (Virat Kohli) अगले दो साल और कप्तानी करे और इतने मैच जीत लें कि कोई उनके आस-पास भी नहीं पहुंचे. ये कुछ लोग जाहिर सी बात है ना तो एमएस धोनी (MS Dhoni) हैं और ना ही राहुल द्रविड़ (Rahul Dravid). यहां पर शास्त्री ने धीरे से दादा पर निशाना साधा क्योंकि दबी जुबान में अक्सर ये कहा जाता था कि दादा को किसी और कप्तान की कामयाबी बहुत ज्यादा नहीं भाती है और इसलिए उन्होंने धोनी के पराक्रम के दौर में भी उनकी खुलकर तारीफ नहीं कि और अक्सर विदेशी जमीं पर खराब रिकॉर्ड की चर्चा मीडिया में करते दिखते.

जो गांगुली को करना वो दूसरे कर गए
बहरहाल, एक बार फिर से हम वही पहुंचते हैं जहां से इस लेख की शुरुआत हुई. राजनीति में कहा ये भी जाता है कि एक कुशल राजनीतिज्ञ को ये भी पता होता है किस वक्त जनता के मूड को भांपते हुए यथोचित कदम उठाना चाहिए ताकि छवि पर किसी तरह की आंच ना आये. भारतीय क्रिकेट में जैसे ही पिछले कुछ दिनों से आईपीएल की नई टीमों, ऑक्शन और आयोजन को लेकर चर्चा जोर पर थी, धीरे-धीरे रणजी ट्रॉफी के आयोजन होने पर भी बीसीसीआई की आलोचना हो रही थी. कहा ये जा रहा था कि अगर आईपीएल के बॉयो-बबल बन सकता है तो रणजी के लिए ऐसा क्यों नहीं हो सकता है.

रणजी ट्रॉफी जो भारतीय क्रिकेट का सबसे अहम घरेलू टूर्नामेंट है उसे लगातार दूसरे साल क्यों टाला जा रहा था. एक खिलाड़ी और पूर्व कप्तान के तौर पर यूं तो इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सबसे पहला और तेज कदम सौरव गांगुली को उठाना चाहिए था लेकिन यहां भी वो सचिव जय शाह और खंजाची अरुण धुमल से मात खा गये. सबसे पहले अगर धूमल ने रणजी के आयोजन के संकेत मीडिया में दिए तो आधिकारिक तौर पर कुछ देर बाद शाह का बयान आया. हर तरफ से बोर्ड की तारीफ हुई और सचिव और खंजाची एक अच्छे कदम की वाहावाही लूट गये. बोर्ड अध्यक्ष और पूर्व कप्तान गांगुली बस देखते ही रह गये.

अपने फैसलों की चुप्पी से दादा ने किया है अब तक मायूस
वैसे बीसीसीआई का इतिहास राजनीतिज्ञों से भरा पड़ा है और टीम इंडिया के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली यूं तो राजनीतिज्ञ नहीं है लेकिन उनकी राजनीतिक सोच का अंदाजा, उनके खेल के दिनों से ही उन्हें करीब से जानने वालों को पता है. अगर ऐसा नहीं होता को दादा को कुछ साल पहले ममता बनर्जी बंगाल क्रिकेट संघ में सीधे एंट्री नहीं दिलवाती और बाद में भारतीय जनता पार्टी उन्हें राज्य के चुनावों के दौरान मुख्यमंत्री पद का चेहरा तक बनाने के संकेत यूं ना देती. ऐसे में गांगुली भले ही बीसीसीआई अध्यक्ष है लेकिन फिलहाल वो ना तो एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह चल पा रहे हैं और ना ही एक उम्दा प्रशासक वाला काम कर पा रहे हैं. और तो और जब पहली बार कोई इतने बड़े ओहदे वाला पूर्व खिलाड़ी और कप्तान बोर्ड का अध्यक्ष बना तो इसने ही सबसे ज़्यादा साथी खिलाड़ियों और युवा खिलाड़ियों को अपने फैसलों की चुप्पी से मायूस किया है.

क्या दादा को भी कुर्सी से चिपके रहने वाला रोग लग गया है?
क्या दादा को राजनीतिज्ञों की तरह कुर्सी से चिपके रहने वाला रोग लग गया है? क्या दादा जो बोर्ड अध्यक्ष बनते ही घरेलू क्रिकेट में सेंट्रल कांट्रैक्ट लाने का सपना खिलाड़ियों को दिखा रहे ते उसे इतने सालों तक ठंडे बस्ते में रहने दे दिया? दादा जब अध्यक्ष बने थे तो उन्होंने घरेलू क्रिकेट की बेहतरी को लेकर तमाम बड़े वादे किए थे. ये कितनी बड़ी विंडबना की बात है जब एक पूर्व खिलाड़ी बीसीसीआई का बॉस बना हो, जिस दौर में भारतीय क्रिकेट का राजस्व अपने चरम पर हो उसी दौर में घरेलू क्रिकेट से जुड़े लोगों की आर्थिक हालात की गंभीरता को लेकर ऐसी संवेदनहीनता?

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प्रशासक के तौर पर गांगुली बुरी तरह से फ्लॉप
एक खिलाड़ी और कप्तान के तौर पर गांगुली की महानता के बारे में पिछले दो दशक से ना जाने कितने लेख लिखे गए होंगे और टीवी पर लाखों घंटों की प्रोगामिंग की गयी होगी लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू ये है कि एक प्रशासक के तौर पर गांगुली बुरी तरह से फ्लॉप ही हुए हैं. इस मामले में जय शाह और अरुण धूमल कम अनुभवी होने के बावजूद दादा को पछाड़ गए हैं. अब आप खुद सोचिये कि टेस्ट क्रिकेट की कप्तानी से संन्यास लेने के फैसले पर कोहली ने शाह से संपर्क किया, उनकी सलाह सुनी लेकिन गांगुली को पूछा तक नहीं जो बोर्ड के सर्वेसर्वा हैं. आलम ये है कि किसी ने जब ये खबर चलवायी कि गांगुली तो कोहली को नोटिस भेजना चाहते थे तो उन्हें आनन-फानन में इस खबर का खंडन करके सफाई तक देनी पड़ी.

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गांगुली के बारे में कोलकाता मीडिया या बंगाल से जुड़ा कोई भी पत्रकार लिखने में हिचकता है, राष्ट्रीय मीडिया में भी गांगुली के ज्यादातर खेल पत्रकारों से दोस्ताना संबध हैं. इस लेखक से भी हैं और मुझे ये कहने में संकोच भी नहीं कि दादा ने कई मौकों पर बड़प्पन का सबूत दिया है लेकिन अफसोस की बात है कि बोर्ड अध्यक्ष के तौर पर ना सिर्फ मैं बल्कि पूरा क्रिकेट जगत उनके स्कोर को शतक तो दूर की बात, अर्धशतक वाले आंकड़े के करीब भी नहीं मानेगा.

Tags: Ms dhoni, Rahul Dravid, Ranji Trophy, Ravi shastri, Rohit sharma, Sourav Ganguly, Virat Kohli

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