Maharashtra Political Crisis: बाथरूम पॉलिटिक्स के कारण डूब गई शिवसेना! क्या अब भी बरकरार रहेगा ठाकरे परिवार का दबदबा?


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उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के साथ ही शिवसेना की राजनीति में एक प्रमुख अध्याय का पटाक्षेप हो गया। इसके लिए भाजपा की ‘जोड़तोड़’ की राजनीति को जितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, उतना ही जिम्मेदार खुद शिवसेना की राजनीति को भी ठहराया जा सकता है, जिसके कारण इस तरह की परिस्थिति पैदा हुईं। उद्धव सरकार के पतन में पार्टी की ‘बाथरूम पॉलिटिक्स’ को सबसे ज्यादा जिम्मेदार बताया जा रहा है, जिसके कारण पार्टी के शीर्ष नेता भी स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे और मामला सरकार के गिरने तक पहुंच गया। उद्धव ठाकरे पार्टी के अंदर पनप रहे असंतोष की गहराई मापने में असफल रहे और अपने सबसे करीबी साथियों को भी गंवा बैठे।

क्या थी बाथरूम पॉलिटिक्स?

दरअसल, शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा नाम थे। उनका अपना व्यक्तित्व इतना ऊंचा था कि वे जो भी कहते थे, लोग उसे कानून की तरह मान लेते थे और उसका पूरा पालन करते थे। अपने राजनीतिक दबदबे और स्वभाव के कारण बाला साहब ठाकरे कभी किसी से मिलने नहीं जाते थे। जिसे भी उनसे मिलना होता था, वह स्वयं उनके निवास ‘मातोश्री’ आता था। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों को भी उनसे मिलने के लिए समय लेना होता था। शिवसेना को करीब से जानने वालों का मानना है कि बाला साहब ठाकरे की यही स्टाइल उद्धव ठाकरे ने भी अपनाया। उन्हें जिससे नहीं मिलना होता था, वे उसे लंबा इंतजार करवाते थे। लोगों को बता दिया जाता था कि ‘साहब, अभी बाथरूम में हैं’।

उद्धव ठाकरे की यह राजनीतिक स्टाइल बहुतों को पसंद नहीं आती थी। शिवसेना के वे सिपहसालार जो मातोश्री से करीबी संबंध को ही अपनी पूंजी समझकर परिवार के साथ गहराई से जुड़े थे और उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे, वे इस सोच के कारण पार्टी से दूर होते चले गए। शिवसेना के बागी विधायकों ने उद्धव ठाकरे पर यही आरोप लगाए हैं। इन विधायकों का कहना है कि उन्हें तीन-चार लाख लोग अपना जनप्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, लेकिन उनके पास उनसे मिलने के लिए समय नहीं है। यह उनके लिए अपमानजनक था। उद्धव सरकार में प्रमुख मंत्रियों तक को मुख्यमंत्री से नहीं मिलने दिया जाता था। यही असंतोष धीरे-धीरे उबलता रहा और अंततः शिवसेना की टूट का कारण बन गया। आरोप हैं कि उद्धव ठाकरे और मातोश्री के करीब कुछ ऐसे लोगों का कब्जा हो गया, जिससे ठाकरे परिवार लोगों से दूर होता चला गया और मामला बिगड़ता चला गया। उद्धव ठाकरे को बीमारी होने के बाद इस बहाने को एक औपचारिक आधार मिल गया, लेकिन इसने इस असंतोष को बढ़ाने का ही काम किया।     

भाजपा से भी इसी कारण बनी दूरी

शिवसेना को करीब से जानने वालों का कहना है कि बाला साहब ठाकरे के जमाने में शिवसेना की यह राजनीतिक स्टाइल सफलतापूर्वक चलती रही, लेकिन जैसे ही भाजपा में नए नेताओं का उदय हुआ, शिवसेना से उसकी दूरियां बढ़ने लगीं। लालकृष्ण आडवाणी के बाद भाजपा नेता नितिन गडकरी शिवसेना से पार्टी के बीच की कड़ी के रूप में उभरे थे। नागपुर से होने के कारण उनका शिवसेना परिवार से अच्छा रिश्ता बना, लेकिन उन्हें भी ठाकरे से मिलने के लिए उसी तरह समय लेना पड़ता था, जैसे दूसरे नेताओं को लेना पड़ता था। कई बार उन्हें भी लंबा इंतजार करना पड़ता था। इस व्यवहार से नाराज नितिन गडकरी धीरे-धीरे शिवसेना से दूर होते चले गए।

नितिन ग़डकरी के बाद भाजपा ने शिवसेना से अपने रिश्तों को बनाए रखने के लिए प्रमोद महाजन का उपयोग किया। सरल और पक्के राजनीतिक स्वभाव के प्रमोद महाजन ठाकरे की इस राजनीति का बुरा नहीं मानते थे और पार्टी की गतिविधियों को सफलतापूर्वक चलाते रहे। लेकिन प्रमोद महाजन के बाद के भाजपा नेता ठाकरे परिवार की इस ठसक को ज्यादा बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे। उसका नतीजा हुआ कि पार्टी से उनकी दूरी बढ़ने लगी और पिछले चुनाव में अलग होने के रूप में सामने आई।

क्या शिवसेना बनी रहेगी मजबूत

शिवसेना का सबसे बड़ा आधार मुंबई में है। महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता की राजनीति की अभी भी वह सबसे बड़ी दावेदार है। जल्द ही वहां महानगर पालिकाओं के चुनाव होने हैं, जिसमें शिवसेना का कोई मुकाबला नहीं है। यदि उद्धव ठाकरे एक बार फिर से महानगरपालिका में अपना कब्जा बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं, जिसकी संभावना ज्यादा है, तो शिवसेना और उद्धव ठाकरे की राजनीतिक ताकत मजबूत बनी रहेगी। आदित्य ठाकरे को भी नए युवाओं को अपने साथ मजबूती से जोड़ने की रणनीति अपनानी होगी। यदि वे इसमें सफल रहते हैं तो शिवसेना को नई ऊर्जा मिलती रहेगी और शिवसेना पर ठाकरे परिवार का कब्जा बरकरार रहेगा। लेकिन इसमें असफल रहने पर हिंदुत्व का यह आधार वोट बैंक भाजपा जैसे दूसरे दलों की ओर शिफ्ट कर सकता है।  

अपने लोगों को महत्व न देना बना परेशानी का कारण

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ला ने अमर उजाला से कहा कि उद्धव ठाकरे अपने मंत्रियों तक को मिलने के लिए समय नहीं देते थे। विधायकों के फोन तक नहीं उठाए जाते थे। इससे जनप्रतिनिधियों में अपनी उपेक्षा का भाव पैदा हुआ जो उनके अंदर असंतोष का कारण बना। उन्होंने कहा कि इसी दौरान एकनाथ शिंदे विधायकों की आवाज सुनने के लिए सदैव न केवल तत्पर रहते थे, बल्कि वे उनकी हर संभव मदद करने के लिए भी उपलब्ध रहते थे। यही कारण है कि शिवसेना में यह असंतोष इस स्तर तक बढ़ गया।

विस्तार

उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के साथ ही शिवसेना की राजनीति में एक प्रमुख अध्याय का पटाक्षेप हो गया। इसके लिए भाजपा की ‘जोड़तोड़’ की राजनीति को जितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, उतना ही जिम्मेदार खुद शिवसेना की राजनीति को भी ठहराया जा सकता है, जिसके कारण इस तरह की परिस्थिति पैदा हुईं। उद्धव सरकार के पतन में पार्टी की ‘बाथरूम पॉलिटिक्स’ को सबसे ज्यादा जिम्मेदार बताया जा रहा है, जिसके कारण पार्टी के शीर्ष नेता भी स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे और मामला सरकार के गिरने तक पहुंच गया। उद्धव ठाकरे पार्टी के अंदर पनप रहे असंतोष की गहराई मापने में असफल रहे और अपने सबसे करीबी साथियों को भी गंवा बैठे।

क्या थी बाथरूम पॉलिटिक्स?

दरअसल, शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा नाम थे। उनका अपना व्यक्तित्व इतना ऊंचा था कि वे जो भी कहते थे, लोग उसे कानून की तरह मान लेते थे और उसका पूरा पालन करते थे। अपने राजनीतिक दबदबे और स्वभाव के कारण बाला साहब ठाकरे कभी किसी से मिलने नहीं जाते थे। जिसे भी उनसे मिलना होता था, वह स्वयं उनके निवास ‘मातोश्री’ आता था। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों को भी उनसे मिलने के लिए समय लेना होता था। शिवसेना को करीब से जानने वालों का मानना है कि बाला साहब ठाकरे की यही स्टाइल उद्धव ठाकरे ने भी अपनाया। उन्हें जिससे नहीं मिलना होता था, वे उसे लंबा इंतजार करवाते थे। लोगों को बता दिया जाता था कि ‘साहब, अभी बाथरूम में हैं’।

उद्धव ठाकरे की यह राजनीतिक स्टाइल बहुतों को पसंद नहीं आती थी। शिवसेना के वे सिपहसालार जो मातोश्री से करीबी संबंध को ही अपनी पूंजी समझकर परिवार के साथ गहराई से जुड़े थे और उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे, वे इस सोच के कारण पार्टी से दूर होते चले गए। शिवसेना के बागी विधायकों ने उद्धव ठाकरे पर यही आरोप लगाए हैं। इन विधायकों का कहना है कि उन्हें तीन-चार लाख लोग अपना जनप्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं, लेकिन उनके पास उनसे मिलने के लिए समय नहीं है। यह उनके लिए अपमानजनक था। उद्धव सरकार में प्रमुख मंत्रियों तक को मुख्यमंत्री से नहीं मिलने दिया जाता था। यही असंतोष धीरे-धीरे उबलता रहा और अंततः शिवसेना की टूट का कारण बन गया। आरोप हैं कि उद्धव ठाकरे और मातोश्री के करीब कुछ ऐसे लोगों का कब्जा हो गया, जिससे ठाकरे परिवार लोगों से दूर होता चला गया और मामला बिगड़ता चला गया। उद्धव ठाकरे को बीमारी होने के बाद इस बहाने को एक औपचारिक आधार मिल गया, लेकिन इसने इस असंतोष को बढ़ाने का ही काम किया।     

भाजपा से भी इसी कारण बनी दूरी

शिवसेना को करीब से जानने वालों का कहना है कि बाला साहब ठाकरे के जमाने में शिवसेना की यह राजनीतिक स्टाइल सफलतापूर्वक चलती रही, लेकिन जैसे ही भाजपा में नए नेताओं का उदय हुआ, शिवसेना से उसकी दूरियां बढ़ने लगीं। लालकृष्ण आडवाणी के बाद भाजपा नेता नितिन गडकरी शिवसेना से पार्टी के बीच की कड़ी के रूप में उभरे थे। नागपुर से होने के कारण उनका शिवसेना परिवार से अच्छा रिश्ता बना, लेकिन उन्हें भी ठाकरे से मिलने के लिए उसी तरह समय लेना पड़ता था, जैसे दूसरे नेताओं को लेना पड़ता था। कई बार उन्हें भी लंबा इंतजार करना पड़ता था। इस व्यवहार से नाराज नितिन गडकरी धीरे-धीरे शिवसेना से दूर होते चले गए।

नितिन ग़डकरी के बाद भाजपा ने शिवसेना से अपने रिश्तों को बनाए रखने के लिए प्रमोद महाजन का उपयोग किया। सरल और पक्के राजनीतिक स्वभाव के प्रमोद महाजन ठाकरे की इस राजनीति का बुरा नहीं मानते थे और पार्टी की गतिविधियों को सफलतापूर्वक चलाते रहे। लेकिन प्रमोद महाजन के बाद के भाजपा नेता ठाकरे परिवार की इस ठसक को ज्यादा बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे। उसका नतीजा हुआ कि पार्टी से उनकी दूरी बढ़ने लगी और पिछले चुनाव में अलग होने के रूप में सामने आई।

क्या शिवसेना बनी रहेगी मजबूत

शिवसेना का सबसे बड़ा आधार मुंबई में है। महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता की राजनीति की अभी भी वह सबसे बड़ी दावेदार है। जल्द ही वहां महानगर पालिकाओं के चुनाव होने हैं, जिसमें शिवसेना का कोई मुकाबला नहीं है। यदि उद्धव ठाकरे एक बार फिर से महानगरपालिका में अपना कब्जा बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं, जिसकी संभावना ज्यादा है, तो शिवसेना और उद्धव ठाकरे की राजनीतिक ताकत मजबूत बनी रहेगी। आदित्य ठाकरे को भी नए युवाओं को अपने साथ मजबूती से जोड़ने की रणनीति अपनानी होगी। यदि वे इसमें सफल रहते हैं तो शिवसेना को नई ऊर्जा मिलती रहेगी और शिवसेना पर ठाकरे परिवार का कब्जा बरकरार रहेगा। लेकिन इसमें असफल रहने पर हिंदुत्व का यह आधार वोट बैंक भाजपा जैसे दूसरे दलों की ओर शिफ्ट कर सकता है।  

अपने लोगों को महत्व न देना बना परेशानी का कारण

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ला ने अमर उजाला से कहा कि उद्धव ठाकरे अपने मंत्रियों तक को मिलने के लिए समय नहीं देते थे। विधायकों के फोन तक नहीं उठाए जाते थे। इससे जनप्रतिनिधियों में अपनी उपेक्षा का भाव पैदा हुआ जो उनके अंदर असंतोष का कारण बना। उन्होंने कहा कि इसी दौरान एकनाथ शिंदे विधायकों की आवाज सुनने के लिए सदैव न केवल तत्पर रहते थे, बल्कि वे उनकी हर संभव मदद करने के लिए भी उपलब्ध रहते थे। यही कारण है कि शिवसेना में यह असंतोष इस स्तर तक बढ़ गया।



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